अगर खुदा न करे… -1

(Agar Khuda Na Kare- Part 1)

लीलाधर 2015-11-12 Comments

This story is part of a series:

अगर खुदा न करे सच ये ख्‍वाब हो जाए
मेरी सहर हो तेरा आफताब हो जाए!

45 साल की उम्र कोई बड़ी तो नहीं होती? और मुझसे आठ साल छोटी मेरी बीवी से अभी भी औरतें पूछती हैं- Are you newly married?
और फिर जब वे हमारे बड़े-बड़े बच्‍चों को देखती हैं तो उनकी दातों तले उंगलियाँ दब जाती हैं, पूछती हैं, कब शादी हुई थी? बचपन में ही?
मैं जहाँ हम दोनों के युवा जैसे दिखते चुस्‍त शरीर को लेकर प्रशंसा और गर्व के भाव से भरा रहता हूँ, वहीं पत्‍नी कहती है- अब पहले वाला बचपना छोड़ो। देखो, बच्‍चे कितने बड़े हो गए हैं! औरतों को बूढ़ी होने का शौक होता है क्‍या?

वैसे यह ख्‍वाब मूलत: मेरा ही है, पर पत्‍नी ने उसमें साझी होना मंजूर कर लिया है। कई सालों के समझाने, बहस करने, रूठने-मनाने के बाद आखिरकार जब उसने हामी भरी तो लगा अब क्‍या देर है, तुरंत कर डालेंगे।
पर मालूम नहीं था एक मनोनुकूल दम्पति का मिलना और उसके साथ अनुकूल परिस्‍थितयों का भी जुट पाना इतना मुश्किल होगा। बार-बार लगता है जिंदगी में क्‍या किसी दूसरी औरत का स्‍वाद क्‍या नहीं मिलेगा?
और उससे भी अधिक उत्‍तेजक लगती है अपनी खूबसूरत पत्‍नी को किसी दूसरे मर्द की बाँहों में देखने की कल्‍पना!
वह उसके गोरे सुंदर शरीर को अनावृत करे, उसके अंगों को, जिनका सौंदर्य अबतक केवल मैंने देखा है, उसकी नजरों के सामने आएँ; वह उनका संचालन करे, उसके सु्ंदर गोल बड़े स्‍तनों, उन पर सजे साँवले चूचुकों का चुम्बन, चूषण, मर्दन करे… उसकी योनि को बिना संकोच के चूमे, चाटे… उसमें अपने कठोर लिंग के घर्षण से चिन्गारियाँ उठा दे; मेरी उत्‍तेजित, ‘आपे-में-नहीं’ पत्‍नी आँखें उलटाती, जोर-जोर साँसें छोड़ती, उसके बंधन में छटपटाती, सीऽऽ सीऽऽ सीऽऽ आऽऽह आऽऽह ओऽऽह करती कमरे को गुंजाती झड़ती जाए…

आह! ‘अगर खुदा न करे सच ये ख्‍वाब हो जाए’…

“हुजूर आरिजो रुखसार क्या तमाम बदन
मेरी सुनो तो मुजस्सम गुलाब हो जाए…”

दिल तो करता है किसी दोस्त को ही थ्रीसम के लिए बुला लूँ… पर वह इजाजत ही नहीं देगी, कहेगी- मैं तो तुम्‍हारे लिए तैयार हुई हूँ। मुझे अपने लिए थोड़े ही चाहिए?” हमेशा वही बात!

काश…

आस छोड़ी नहीं है, लगा हूँ। लेकिन जब तक कोशिशें रंग नहीं लातीं एक फंतासी ही मुझे सहारा देती है…

फंतासी… आधी हकीकत, आधा फसाना …

तब मेरी पत्‍नी ने नई ही हामी भरी थी, उसका गुस्‍सा ताजा था। ठीक से हामी भी नहीं भरी थी, ‘कभी हाँ कभी ना’ की स्‍थिति थी। कभी व्‍यंग्‍य करती कि मैं कैसा आदमी हूँ जो अपनी पत्‍नी को दूसरे मर्द के साथ सुलाना चाह रहा हूँ। ‘तुम्‍हारे जैसा मर्द हजार लाख में नहीं, करोड़ में भी कोई एक ही होगा।’ और कभी पूछती- क्‍या हुआ, उस दम्‍पति से बात कर रहे थे?

उस खास दम्‍पति से हमारी बातचीत का सिलसिला बन चला था, उसके बारे में वह दो-तीन बार पूछ चुकी थी।
अन्‍य कई दम्‍पतियों से बातें करने के बाद वही हमें सबसे अधिक जँच रहा था। रायपुर, छत्तीसगढ़ का निवासी, पति बिजनेसमैन, पत्‍नी गृहिणी।
फोन पर उनसे बात होती। दोनों काफी दोस्‍ताना और समझदार तरीके से पेश आते। मैं चिंतित रहता कि पता नहीं मेरी पत्‍नी सहयोग करेगी कि नहीं।प्रकाश (पति) मुझे समझाता कि औरतें तो इनकार करती ही हैं, आप उसकी चिंता मत करो। अंजलि जी (मेरी पत्‍नी) ने इतनी दूर आपको आने दिया है, तो समझो मंजिल मिलेगी ही मिलेगी। मैंने कई ‘इनकार वाली’ औरतों से किया है। वे बाद में बढ़-चढ़कर भाग लेती हैं।
एक-दो बार मेरे ठेलने पर मेरी पत्‍नी ने भी उससे बात की थी, हालाँकि बहुत रस्‍मी। वह प्रत्‍यक्षत: नापसंदगी जाहिर करती कि यह तो कइयों के साथ किए हुए है, चालू आदमी है।
पर मुझे लगता वह अंदर ही अंदर उसमें रुचि लेती है। यह भी लगता है कि ‘उस मौके’ पर मेरी पत्‍नी के संभावित गुस्‍से और व्‍यंग्‍यबाणों को ठीक से ‘हैंडल’ करने और अंतत: उसे बिस्‍तर पर लाकर ‘चोद’ लेने में सफल हो जाने के लिए मुझे ऐसा ही अनुभवी और धैर्यवान आदमी चाहिए।
उस आदमी की पत्‍नी भी उत्‍साही थी, मुझे कहती- अंजलि जी (मेरी पत्‍नी) मान जाएंगी, चिंता नहीं कीजिए। एक बार हम मिलें तो सही। मजाक भी करती, प्रकाश के साथ उन्‍हें होने तो दीजिए, फिर देखिएगा वे क्‍या करती हैं। गंभीर होकर मुझे समझाती– कौन औरत होती जो प्रस्ताव पर सीधे हाँ कर दे? हमने भी इस बात पर प्रकाश से लड़ाइयाँ की हैं।
उसकी ना-ना के बावजूद प्रकाश उसे प्यार से धीरे-धीरे आगे बढ़ाता गया था और अंततः दूसरे कपल से सेक्स करवा ही दिया था।

खैर, दुविधा से जूझते मैंने अंतत: मिलने का प्रोग्राम बना ही डाला। प्रकाश काफी उत्‍सुक था और रायपुर से हमारी ही खातिर उतनी दूर से आने को तैयार था (क्‍यों न होता, यहाँ उसके लिए नया ‘माल’ था)।
लेकिन सौभाग्‍य से उसे अपने व्‍यवसाय के सिलसिले में कलकत्‍ता आने का मौका मिल गया। मैंने उससे वादा ले लिया था कि वह अंजलि के साथ कोई जबरदस्‍ती नहीं करेगा। मैंने उसे बहुत हतोत्साहित किया था कि निराश होने के लिए तैयार रहे, पर वह रोमांचित था, कहता था, एक अनिच्‍छुक औरत को ‘तोड़ने’ में जो मजा है, वह पहले से ही राजी औरत में नहीं। आप देखना अंजलि जी क्‍या गुल खिलाती हैं।

निश्‍चित तारीख को वे कलकत्‍ता आ पहुँचे। मैं अंजलि को देख रहा था, उसके चेहरे के भाव क्‍या हैं, अब तो उसे मिलना ही पड़ेगा। पर उसमें एक दुर्लभ किस्‍म का आत्‍मविश्‍वास दिखता था, यही चीज मुझे डरा रही थी। शायद प्रकाश का पाला इस बार ‘असली’ औरत से पड़ेगा।

हमने तय किया था पहले एक पार्क में मिलेंगे, वहाँ अगर ठीक लगा तो आगे बढ़ेंगे।

तय तिथि और समय पर वे आ पहुँचे।
खूबसूरत एलियट पार्क, कलकत्‍ता के प्रसिद्ध धरमतल्‍ला से एक-दो किलोमीटर आगे, मेट्रो के मैदान स्‍टेशन के सामने। अभी नया ही बना था, रंग-बिरंगे फूलों वाले पार्क में सतरंगी पट्टियों वाली साड़ी में थोड़ी भारी बदन की स्‍त्री के साथ खड़ा था वह।
औरत सामान्‍य थी पर अपनी वेशभूषा के कारण अच्‍छी लग रही थी। मर्द उसकी अपेक्षा आकर्षक और मजबूत बदन का था। चेहरे पर ऊर्जा और ताजगी थी हालांकि उम्र में वे हमसे लगभग पाँच सात साल बड़े थे।

इशारों से और मोबाइल के जरिए हम एक दूसरे के सामने हुए, मर्दों ने हाथ मिलाया, औरतें सकुचाती एक-दूसरे को कुछ पल देखीं, फिर हल्‍की सी ‘हाय’, दोनों मर्द कनखियों से एक दूसरे की औरतों को देख और तौल रहे थे।
प्रकाश अपने स्‍वभाव के अनुरूप दोस्‍ताना तरीके से मिला।

हमने चाय पी, कुछ देर इधर-उधर की बातें कीं। मैंने उनके साथ जाना तय कर लिया, मेरी पत्‍नी हिचकी, मुझे दबी आवाज में लौटने को कहा।
पर अब पीछे हटना कहाँ था? लौटने का मतलब होता कि वे हमें पसंद नहीं आए! उन्हें कितना बुरा लगता!!
प्रकाश और सुषमा होंठों पर मुस्‍कान लिए, उत्‍सुकता को मन में दबाए, ऊपर से सामान्य बने हमें देख रहे थे।
मैंने पत्‍नी से चलने की जिद की।

हम पहले एक रेस्टोरेंट में गए। मैं प्रकाश के साथ और मेरी पत्‍नी सुषमा के साथ बैठी। मैंने प्रकाश को दुहराया कि सबसे बड़ी बाधा मेरी पत्‍नी का संकोच और हिचक ही है और वह हजार कोशिशों के बावजूद उसका इनकार या कम से कम असहयोग झेलने के लिए तो तैयार ही रहे।
लेकिन वह आत्‍मविश्‍वस्‍त था, जैसे शिकारी हिरन के बारे में निश्‍चिंत हो, कि बचकर जाएगा कहाँ। उसने कहा कि वह कई औरतों के ‘इनकार’ पर जीत हासिल कर चुका है। पत्‍नियाँ ही नहीं, उसने कई अकेली औरतों को भी फतह किया है।
मुझे लग रहा था आखिर क्‍या करेगा यह। कहीं यह ‘रफ’ बर्ताव तो नहीं करेगा, मेरी पढ़ी-लिखी, सुसंस्‍कृत पत्‍नी पर इसका जादू चलेगा?

उसकी पत्‍नी मेरी पत्‍नी से बातें करते हुए उसे बीच बीच में ‘चीयर अप’ (उत्‍साहित) कर रही थी, कह रही थी चिंता न करो, सबकुछ ठीक रहेगा। कुछ बुरा नही लगेगा।

अंतत: हम उनके होटल पहुँचे।
प्रकाश ने कमरे का दरवाजा अंदर से बंद कर दिया और हम सब बिस्‍तर पर बैठ गए।
थोड़ा अटपटा लग रहा था कि क्‍या बात करें! एकदम से क्‍या शुरू ही हो जाएंगे?
मेरी पत्‍नी के चेहरे पर कई भाव आ-जा रहे थे, वह लज्‍जा से गड़ी जा रही थी। एक कुलीन खानदान की बहू के लिए यह कितना गैरपारंपरिक और भारी था मैं समझ रहा था।
उसने कहा- तुम तीनों जो चाहो करो, मैं नहीं शामिल हूँगी।

प्रकाश ने उसे बहाने से छूने की कोशिश की तो उसका चेहरा सख्‍त हो गया, वह पीछे हट गया।
मुझे लग रहा था जैसे अंजलि के अंदर गुस्‍सा सिर उठा रहा है। मैं उत्सुक था कि हमारे बीच अपरिचय की दीवार जल्‍दी टूटे। कुछ ऐसा करें कि उसमें सभी शामिल हों और कम से कम एक दूसरे की मौजूदगी के अभ्‍यस्‍त तो हो जाएँ।

प्रकाश ने इस समस्‍या के लिए सोच रखा था। उसने कहा चलो ताश का खेल खेलते हैं। लेकिन अंजलि को ताश नहीं आती थी। हम ड्रिंक भी नहीं करते थे, नहीं तो शराब खुद ही एक सोशल अनौपचारिक वातावरण बना देता है।
‘चलो, लूडो तो खेलते हो?’ प्रकाश ने ऑफर किया।
अंजलि अब भला क्या आपत्ति कर सकती थी, मैं मुस्कुराया, वह तैयारी से आया था।
‘हाँ, हाँ…’ उसकी पत्नी ने तुरंत अनुसरण किया।

लूडो मुझे अलग से भी इस काम के लिए सही खेल लगता है। ताश में दिमाग लगाना पड़ता है, अगर शराब का साथ न हो तो उसमें उत्‍त्‍ेजना को कायम रख पाना मुश्‍किल जान पड़ता है।
लूडो में चतुराई की गुंजाइश भी कम है। भाग्‍य से जो अंक आए वही आपको चलाता है।

हम सभी ‘साँप और सीढ़ी’ खेलने बैठ गए।
प्रकाश ने प्रस्‍ताव किया- जिसको भी साँप काटेगा, वह अपने बदन में पहनी कोई एक चीज उतार देगा…
अंजलि के चेहरे का भाव बदला पर वह कुछ नहीं बोली।
‘और जो सीढ़ी चढ़ने का lucky होगा वह दूसरे को चूम या कुछ और कर सकेगा। यह सिर्फ मनोरंजन के लिए है।’ सुषमा ने आगे कहा।
प्रस्‍ताव चूँकि औरत की तरफ से था इसलिए अंजलि ना नहीं कर सकी।

खेल शुरू हो गया, अंजलि ने भी अपनी बारी में पाँसा फेंका और चाल चली।
मैं उत्‍सुक था कौन पहले साँप या सीढ़ी की लपेट में आता है।

पहला लपेट साँप ने लिया ‘सुषमा’ वह मुस्‍कुराई, उसने पांवों से मोजे उतार दिए! नंगे गोरे, चिकने पैरों को देखकर मेरे पैंट के अंदर सुरसुराहट हुई।
अंजलि को साँप ने डँसा। प्रकाश की उत्‍सुकता को निरस्‍त करते हुए उसने अपनी उंगली से अंगूठी निकाल दी। मुझे तसल्ली हुई कि अंजलि खेल में शामिल हो रही है।
प्रकाश मुस्‍कुरा रहा था।

खेल आगे बढ़ा। इस बार मुझको सीढ़ी मिली, अंजलि का चेहरा खिंच गया ‘रिलैक्‍स, यह तो बस खेल है!’ कहता हुआ मैं उठ खड़ा हुआ। घूमकर सुषमा के पास गया और उसका चेहरा उठाया और मुँह पर चूम लिया।
सुषमा ने मेरे चुम्बन का मजा लेते हुए मेरा सिर पकड़कर अपने मुँह पर दबा लिया।

औरत का चुम्बन, जो होश छीनने लगता है। वह भी पहली बार किसी दूसरी औरत का।

‘अँ… हँ… हँ…’ प्रकाश ने खँखारकर आने का इशारा किया, हम अलग हुए। और समय होता तो अंजलि ताना मारती, अभी उसके चेहरे पर बस लाली थी।

अबकी मुझे साँप ने काटा, अंजलि बोली- अच्‍छा है सजा मिली।
मुझे उसका मजाक करना अच्‍छा लगा, मैंने नहले पर दहला मारा- सजा या मजा?
मैंने शर्ट उतार दी।

प्रकाश को सीढ़ी आई तो अंजलि खेल छोड़ने लगी। प्रकाश उसको आश्‍वस्‍त करता हुआ बोला- मैं बस खेल की औपचारिकता निभाऊँगा, कुछ नहीं करूंगा।
उसने अंजलि का हाथ पकड़ा और हथेली के पीछे की सतह पर चूम लिया।
अंजलि जैसे मुक्त हुई।

मुझे अगली बार साँप ने काटा तो मैंने बनियान उतार दी। पैंट उतारने पर चड्ढी ही बचती। मैं उस समय की सोच रहा था जब इन औरतों के कपड़ों का नम्बर आएगा। क्या सचमुच ऐसा होगा? सचमुच मेरी पत्नी के कपड़े उतरेंगे?
मैं चाहता था उसे चलाए चलने के लिए भाग्य सुषमा को भी विवस्त्र करता चले… काश पाँसे इसी तरह आएँ।

मगर सुषमा सड़सड़ाती आगे बढ़ी चली जा रही थी। वह एक के बाद दूसरी सीढी भी चढ़ गई। किस्मत उसका साथ दे रही थी। मगर भगवान अंजलि का बेड़ा गर्क (या कि पार?) ही करना चाह रहे थे, उसे बार-बार साँप काट रहा था। फिर भी, औरतों के पास बहुत कुछ होता है उतारने के लिए।

गेम समाप्त होते होते यह स्थिति थी–
सुषमा : गले का हार छोड़कर सारे गहने जा चुके, बदन पर साया-साड़ी-ब्लाउज, मेरे दो चुम्बन। उसकी तरफ से भी मुझे तीन चुम्बन।
अंजलि : सारे गहनों से वंचित, (गर्दन पर मंगलसूत्र की गाँठ मैंने ही खोली थी), एक कपड़े तक बारी आई थी। वह कुछ देर तक दुविधा में रही थी कि क्या उतारे। मैंने सुझाव दिया था कि पैंटी निकाल दे। अंदर की चीज है, बाहर वह जस की तस दिखती रहेगी, मगर वह सुनकर ही भड़क गई थी। सुषमा ने उसे अंततः साड़ी उतारने पर मना लिया। साड़ी उतारकर उसने होटल की दी हुई चादर ओढ़ ली। बदन पर साया और ब्लाउज ही बच रहे थे। (ये कब जाएंगे?)

मैं : टॉपलेस, मगर पैंट सलामत! शर्ट, घड़ी, बनियान और मोजे जा चुके थे। तीन चुम्बन के मौके, तीनों सुषमा पर जोरदार तरीके से। अंतिम वाले में मैंने थोड़ा सस्पेंस बनाया था। मुँह बढ़ाया था सुषमा के होंठों की तरफ, पर धोखा देते हुए नीचे गले पर उतर गया था और वास्तविक चुम्बन के समय तो उभारों के बीच में था। ऐसा मैंने थोड़ा अंजलि को जलाने के खयाल से भी किया, ताकि बदला लेने के खयाल से वह प्रकाश से सम्पर्क बनाए।

प्रकाश : बनियान, पैंट को छोड़कर मोजे और अंगूठी तक खुल चुकी थी। दो बार सीढ़ी चढ़ने का कारण अंजलि के साथ कुछ करने के दो चांस मिले थे। एक बार उसने अंजलि की हथेली के पीछे चूमा था। दूसरी बार अंजलि ने ना ना करते हुए सिर झुका लिया था। मेरे और सुषमा के बढ़ावा देने के बाद उसने उसके झुके सिर के पीछे गरदन चूमी थी। मुझे डर था कहीं वह भड़क न जाए, पर वह सह गई थी।

आधा घंटा हम चारों का बंद कमरे में एक साथ हुए बीत गया था, मंजिल अभी दूर थी।
लूडो ने इतना कर दिया था कि मेरी बीवी के सख्त रवैये में नरमी ले आए। लेकिन इस बदलाव को मुकाम तक ले जाने के लिए अब कुछ तेज करने की जरूरत थी। साँप-सीढ़ी को दुबारा खेलना उबाऊ होता।
कहानी जारी रहेगी।
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