सुपर स्टार-11
(Super star-11)
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मेरी ओर देखते हुए निशा बोली- अब तो कुछ बताओ अपने बारे में..
उन लड़कियों की हिम्मत देख मुझमें भी थोड़ी हिम्मत आ गई थी। मुझे लग रहा था कि शायद अब मैं भी अपनी तन्हाई से लड़ लूँ। मैंने उनसे अपनी कहानी बताई और कहा- मैं नहीं जानता.. कि मुझे अपनी जिंदगी में क्या बनना है.. मैं तो बस वहाँ जाऊँगा और सबसे पहले कहीं भी कोई नौकरी करूँगा, बस इतना ही सोचा है।
तृष्णा- काश दुनिया के हर मर्द के प्यार में तुम्हारे जैसा ही समर्पण होता।
मैं- अगर हर लड़की तृषा जैसे ही सोचती तो शायद कोई भी मर्द कभी किसी से प्यार करता ही नहीं।
निशा- तुम्हें नौकरी ही करनी है न..? हमारे पास तुम्हारे लिए एक नौकरी है। अगर तुम चाहो तो।
मैं- कैसी नौकरी?
निशा- हम तीनों को अपना मुकाम बॉलीवुड में हासिल करना है और यहाँ पर सफलता के लिए दिखावा बहुत ज़रूरी है और इस दिखावे के लिए हमें एक पर्सनल असिस्टेंट चाहिए। अभी तो तुम्हें हम बस रहने की जगह, खाना और कुछ खर्चे ही दे पायेंगे.. पर जैसे हमारी कमाई बढ़ेगी.. हम तुम्हारी तनख्वाह भी बढ़ा देंगे।
अब तीनों मेरे जवाब को मेरी ओर देखने लगी। मैंने ‘हाँ’ में सर हिलाया।
फिर सबने अपने गिलास टकराए और ने मेरे हाथ को पकड़ मेरे गिलास को भी टकराते हुए कहा- ये जाम हमारी आने वाली कामयाबी और पहचान के नाम।
अब रात हो चुकी थी और अभी भी 24 घंटों का सफ़र बाकी था। जब-जब मैं आँखें बंद करता.. मुझे तृषा की जलती हुई चिता मेरे सामने होती। ऐसा लगता मानो वो अपना हाथ बढ़ा रही हो और मैं उसे बचा नहीं पा रहा हूँ।
मेरे बगल वाली बर्थ पर तृष्णा सोई थी। वो मुझे इस तरह बार-बार करवट लेता देख मेरे पास आई और उसने मेरे हाथ को कस कर पकड़ लिया।
मेरे कानों में तृष्णा धीरे से बोली- शांत हो जाओ और सोने की कोशिश करो। मैं तुम्हारे दर्द को समझती हूँ.. पर ऐसे तड़पोगे तो तृषा भी बेचैन ही रहेगी।
वो मेरे बाल सहलाने लगी, मैं धीरे-धीरे सो गया।
सुबह निशा की आवाज़ से मेरी नींद खुली- सोते ही रहोगे क्या? सुबह के दस बजने जा रहे हैं।
मैं अंगड़ाई लेता हुआ उठा और फ्रेश होने चला गया। मैं फ्रेश होकर जब वापिस आया तो देखा.. मोबाइल में गाना बज रहा था.. ज्योति तृष्णा को पकड़ डांस कर रही थी और निशा अपने मोबाइल के कैमरे में वो सब रिकॉर्ड कर रही थी।
मैं जैसे ही अन्दर दाखिल हुआ ज्योति ने तृष्णा को छोड़ मुझे पकड़ लिया।
मैं- अब मैंने क्या गलती की है, मुझे तो छोड़ दो।
तो फिर से मुझे छोड़ तृष्णा को पकड़ कर डांस करने लग गई।
वो सब डांस के दौरान जिस तरह की शक्लें बना रही थीं.. उसे देख कर मुझे भी हंसी आ गई।
आज बहुत वक़्त के बाद ये मुस्कान आई थी। तभी गाना बदला और नया गाना था ‘झुम्मा चुम्मा दे दे…’
एक ही पल में हंसी और अगले ही पल मेरी आँखें भर आईं।
ज्योति की नज़र मुझ पर पड़ी, फिर उसने गाना बंद किया और मेरे पास सब आ गईं- क्या हुआ तुम्हें?
मैं- नहीं कुछ भी तो नहीं।
निशा- जब झूट कहना ना आता हो तो सच ही कहने की आदत डाल लो! बताओ ना क्या हुआ?
मैं- घर की याद आ गई, मैं मम्मी, पापा और मेरी बहन इसी गाने पे डांस किया करते थे।
निशा- यह भी तो सोच सकते हो कि तुम्हें तुम्हारा परिवार वापस मिल गया और सब मेरे गाल खींचने लग गईं।
तृष्णा- अब रोना-धोना बहुत हुआ। तुम्हारी आँखों से निकले आंसू की हर बूँद से तृषा कितनी बेचैन होती होगी। उसकी खातिर अब मुस्कुराना सीख लो।
मैं अपनी शक्ल ठीक करते हुए बोला- ठीक है… अब कभी नहीं रोऊँगा बस!
ज्योति- बस नहीं, अब तो तुम्हें डांस करना ही होगा..
वो मेरा हाथ पकड़ वॉल-डांस वाले स्टेप्स करने लग गई।
इस तरह फिर लगभग रात हो चुकी थी और हम सब की मंजिल अब आने ही वाली थी।
फिर ज्योति ने हम सबको एक-दूसरे का हाथ थामने को कहा।
ज्योति- अब सब अपनी आँखें बंद करो और एक विश मांगो। जो कुछ भी तुम्हें इस शहर में हासिल करना है।
बाकियों का तो पता नहीं पर मैंने एक विश माँगी।
‘हे परमेश्वर अगर मैंने आज तक कुछ भी अच्छा किया हो तो मेरी दुआ कुबूल करना और तृषा की आत्मा को शांति देना। मैं अपने लिए कुछ भी नहीं चाहता हूँ, क्यूंकि मुझे पता है आप हमेशा मेरे साथ रहोगे। मैं जब भी जिन्दगी से इस जंग में हारने लगूंगा.. तब आप हमेशा मेरा थाम मुझे बचा लोगे और हाँ.. मेरे और तृषा के परिवार को इस सैलाब को झेलने की शक्ति देना।’
मैंने अपनी आँखें खोलीं.. सब मेरी तरफ ही देखे जा रही थीं।
तृष्णा- हो गया या और भी कुछ माँगना है?
मैंने ‘ना’ में सर हिलाया और फिर सब अपना-अपना सामान बाँधने लग गईं।
थोड़ी देर बाद हमारी मंजिल आ गई थी।
मुंबई..
लोग इसे सपनों का शहर कहते हैं। कहते हैं.. यहाँ हर रोज़ किसी ना किसी के सपने पूरे होते ही हैं। शायद कभी यहाँ हमारा नंबर भी आ जाए।
अब मैं उन सब का पीए था.. तो सामान उठाना पड़ा। मेरा खुद का तो सामान था नहीं.. सो उनके सामान को बोगी से बाहर निकाला।
दो कुली आ गए और वो हमारा सामान टैक्सी तक ले जाने लगे।
बाकी सब कुली के साथ-साथ चलने लगी और मैं आस-पास की भीड़ में जैसे खो सा गया।
आज मेरा दिल बड़े जोर से धड़क रहा था.. घर से पहली बार इतनी दूर जो आ गया था।
आँखें रुआंसी हुई जा रही थीं.. आदत थी अब तक हर मुश्किलों में अपनी माँ के हाथ थामने की..
आज तो मैं अकेला सा पड़ गया था, पता नहीं क्या करूँगा.. इतने बड़े शहर में..?
कैसी होगी मेरी माँ..? अब तक पापा ने मुझे ढूंढने को एफआईआर भी करवा ही दिया होगा।
ऐसे ही कितने ही सवाल मुझे घेरने लग गए थे।
तभी मैंने निशा की आवाज़ सुनी- ओये जल्दी आ। यहीं रुकने का इरादा है क्या?
मैं फिर भागता हुआ टैक्सी तक पहुँचा और फिर हम चल दिए अपने फ्लैट की तरफ।
मुंबई शहर…
जैसा सुना था और जैसा फिल्मों में देखा था.. लगभग वैसा ही था ये शहर..
हर तरफ बस भागते हुए लोग। इस भागती भीड़ को देख ऐसा लगता था कि मानो अगर कोई एक इंसान रुक गया.. तो बाकी या तो उसके साथ ही गिर जायेंगे या फिर उसे रौंदते हुए आगे निकल जायेंगे।
जिंदगी में भी तो ऐसा ही होता है। हर इंसान किसी न किसी रेस का हिस्सा होता है और इस रेस में जीतने का बस एक ही मंत्र है.. अपनी आँखें मंजिल में टिकाओ और उसकी ओर भागते चले जाओ। फिर चाहे रास्ते में कोई भी आए रुको मत..
हाँ.. एक बात मुझे अच्छी लगी, यहाँ की रातें भी जीवन के रंगों से भरी होती हैं। मैं मुंबई के नजारों में ही खो सा गया था.. हल्की झपकी आ गई मुझे.. आँख खुली तो हम अपने अपार्टमेंट के बाहर थे। सोसाइटी थी.. चार धाम सोसाइटी.. और इलाका था बांद्रा पश्चिम, 7 फ्लोर का अपार्टमेंट था और हमारा फ्लैट 6 वें फ्लोर पर था।
आस-पास के घरों में पार्क की गई मंहगी गाड़ियों को देख कर मैं अंदाजा लगा सकता था कि यहाँ की मिट्टी की कीमत सोने से ज्यादा कैसे है।
मैंने कुछ सामान उठाया और बाकी ट्राली बैग को सब अपने हाथों में ले फ्लैट पर आ गए।
वहाँ लगभग सारी सुख-सुविधाएँ पहले से ही थीं। सब अपना-अपना सामान रखने लग गईं। दो बेडरूम का फ्लैट था, एक कमरे में निशा और दूसरे में ज्योति और तृष्णा ने अपना सामान रख दिया। जब घर का काम पूरा हुआ तो सब हॉल में लगे सोफे पर बैठ गए।
ज्योति ने मेरी ओर देखते हुए कहा- तुम यहीं सोफे पर सोओगे?
मैं- हाँ.. आज मैं यहीं सो जाऊँगा। कल मैं हॉल में गद्दे के लिए जगह बना लूँगा..
निशा- ह्म्म्म.. यही ठीक रहेगा। मैं पहले कुछ खाने का आर्डर दे देती हूँ.. फिर हम नक्श के लिए ऑनलाइन शॉपिंग कर लेंगे और हाँ.. घर के कुछ नियम कायदे भी बनाने होंगे।
सब ने उसकी ‘हाँ’ में ‘हाँ’ मिलाई.. और फिर खाने का आर्डर और मेरे लिए शॉपिंग कर ली गई। खाना खाते हुए हमने कुछ नियम बनाए.. जिसमें सुबह के ब्रेकफास्ट बनाने की ज़िम्मेदारी मुझे दे दी गई।
रात में तृष्णा और ज्योति सोने चली गईं और निशा अपने लैपटॉप पर अपना काम निबटाने लगी। मुझे भी अब नींद आ रही थी.. पर एक तो सोफे पर सोना और जगह भी नई.. सो किसी तरह रात काटी मैंने।
सुबह नाश्ते के बाद निशा ने मुझे एक लिस्ट दी.. इस लिस्ट में कुछ नाम और पते लिखे थे।
निशा- इस लिस्ट में जो नाम दिए गए हैं.. तुम्हें उनसे मिलना है और ये हैं फाइलों की कॉपी.. जिस नाम के सामने हम तीनों में से जिसका भी नाम लिखा है.. उसे ही देना वो फाइल..
फिर उसने मुझे कुछ पैसे दे दिए।
मैं अब सोसाइटी से बाहर आ चुका था। आज तक मैंने शायद ही कभी घर पर कोई काम किया था। सो थोड़ा अजीब सा लग रहा था.. पर इतना पता था कि इंसान अपने अनुभवों से ही सीखता है… सो मैं भी सीख ही जाऊँगा।
लिस्ट में कुल मिला कर बाईस लोगों के नाम थे और लगभग पता यहीं आस-पास का ही था।
तृष्णा ने अपना एक फ़ोन मुझे दिया था.. जिसमें मैं गूगल मैप पर रास्ते ढूंढ सकता था।
पहला पता था ‘यशराज फिल्म्स’ का। अँधेरी पश्चिम का पता था और वहाँ मुझे तीनों की फाइल देनी थीं, मैंने टैक्सी ली और वहाँ चला गया।
कहानी पर आप सभी के विचार आमंत्रित हैं।
कहानी जारी है।
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