शीला का शील-4
(Sheela Ka Sheel- Part 4)
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शीला का दरवाज़ा अभी भी बंद था… उसने शीला को पुकारते हुए दरवाज़ा खटखटाया। दो तीन बार खटखटाने के बाद दरवाज़ा खुला।
सामने शीला लाल आँखें लिए खड़ी थी… देख कर ही अंदाज़ा होता था कि रो रही थी।
रानो उसे अंदर करते खुद भी अंदर आ गई और दरवाज़ा बंद कर दिया, फिर उसे अपने सहारे चला कर बिस्तर पर लाकर बिठाया और उसके हाथ अपने हाथ में लेकर मलने लगी।
‘दीदी… मैंने तुम्हें पुकार नैतिकता का ज्ञान देने, सामाजिक मूल्यों की याद दिलाने या ताने-उलाहने देने के लिए नहीं लगाई थी।’
‘फिर?’
‘बाज़ रखने के लिए लगाई थी कि जो कर रही थी वह सम्भव नहीं था।’
शीला ने अपनी सूजी हुई आँखें उठा कर सवालिया निगाहों से उसे देखा।
‘दीदी, मैं कौन होती हूँ तुम्हें दुनिया के नियम कायदे बताने वाली… शरीर की जो ज़रूरतें तुम्हें जला रही हैं, क्या उन्हें मैंने नहीं झेला? शरीर में पैदा होने वाली इच्छाओं का बोझ मैंने भी तो उठाया है।’
‘तू… तू समझ सकती है मेरी तकलीफ?’
‘क्यों नहीं दी… क्या मेरी तकलीफ उससे अलग है।’
‘तू नीचे आई कैसे?’
‘पेशाब करने आई थी तो तुम्हारी सिसकारियां सुनी… समझ न सकी तो आके देखा। शर्मिंदा मत हो दी, मुझे देख कर बुरा नहीं लगा, बल्कि इस समाज पे क्रोध आया था जिसने हम जैसी लड़कियों-औरतों के लिए कोई स्पेस नहीं छोड़ा।’
शीला के सब्र का बांध टूट पड़ा और वह रानो के सीने से लग कर फफकने लगी, रानो उसकी पीठ थपथपाते हुए उसे सांत्वना देने लगी।
‘दी, ये मर्यादाएं, नियम, नैतिकता के दायरे, समाज की बेहतरी के लिए खींचे गए थे वरना हर इंसान जानवर ही बना रह जाता…
मानती हूं कि इनकी ज़रूरत है हमें और समाज इन्हीं की वजह से टिका है लेकिन शिकायत बस इतनी है कि इसमें हम जैसी बड़ी उम्र तक कुंवारी बैठे रहने वाली लड़कियों औरतों के लिए घुट-घुट के जीने के सिवा कोई गुंजाईश नहीं छोड़ी गई…’
हमें समाज में स्वीकार्य यौन-संसर्ग उपलब्ध नहीं तो क्या हममें इतनी सामर्थ्य है कि हम अपनी यौन-इच्छाओं को ख़त्म कर सकें…
ये समाज के बनाये नियम क्या शरीर को बांध पाते हैं, जो बस अपनी ज़रूरत देखता है और ज़रूरत के हिसाब से रियेक्ट करता है।
सही-गलत, अच्छा-बुरा, स्वीकार्य-अस्वीकार्य और नैतिक-अनैतिक के मापदंड हम जैसी अभिशप्त जीवन जीने पर मजबूर स्त्रियों के लिए भला क्या मायने रखते हैं?’
‘हम कुछ भी बदल नहीं सकते… क्या करें फिर रानो? ऐसे ही सुलग-सुलग कर ख़त्म हो जायें?’
‘इसीलिए तो कहा कि जब नियम बनाने वालों ने हमारे लिए कोई गुंजाईश नहीं छोड़ी तो हम क्यों उनकी परवाह करें… क्यों न हम उन्हें ठुकरा दें।
क्यों न हम उन बेड़ियों को तोड़ दें… जो तुम कर रही थी वो उन नियमों की नज़र में गलत था जो उन मर्दों ने बनाये हैं जिनकी शादियां न हों तो भी उन्हें भोगने के लिए औरतों की कमी नहीं होती।’
रानो की बातों से उसे तसल्ली मिली… कुछ देर के लिए वह खुद की ही नज़र में गिर गई थी और लगता था कि अपनी बहन से भी कभी आँखें न मिला पायेगी मगर अब खुद में आत्मविश्वास पा रही थी।
रानो खुद भी लेट गई और उसे भी लिटा लिया।
‘पर जो मैं कर रही थी वह संभव क्यों नहीं हो पा रहा था… यौन-संसर्ग का अर्थ लिंग द्वारा योनिभेदन ही तो होता है।’
‘हां दी, पर प्रकृति ने हर कांटिनेंट के हिसाब से शरीरों के जोड़े बनाये हैं और उसी हिसाब से उनके अंग विकसित किये हैं… जैसे सबसे बड़े लिंग नीग्रोज़ के होते हैं, उसके बाद अंग्रेज़, योरोपियन के और फिर एशिया के लोगों के और सबसे छोटे पूर्वी एशिया के।
और उसी हिसाब से उनकी सहचरियों की सीमा और क्षमता भी होती है. भारतीय पुरुषों के साइज़ चार इंच से लेकर सात इंच तक ही होते हैं।’
‘तो चाचा का इतना बड़ा क्यों है… हब्शियों जैसा।’
‘शायद भगवन ने चाचा को दिमाग की जगह लिंग दे दिया है। चाचा जन्मजात कई विकृतियों का शिकार है, दिमाग, उल्टा हाथ, रीढ़ और शायद यह भी किसी किस्म की विकृति ही है।’
‘तो क्या कोई बड़े लिंग वाला नीग्रो किसी चीनी लड़की से सेक्स नहीं कर सकता?’ उसे हैरानी हुई।
‘सेक्स तो कोई भी किसी से कर सकता है… लंबाई मैटर करती है तो योनि की गहराई के हिसाब से ही आदमी अंदर बाहर करेगा और मोटाई ऐसी किसी भी लड़की या औरत के लिए मायने नहीं रखती जिसकी योनि अच्छे से खुली हुई हो।’
‘मतलब?’
‘मतलब यह कि चाचा का लिंग किसी नीग्रो जैसा है और तुम्हारी योनि पूरी तरह बंद, अभी उसमे एक उंगली भी न गई होगी… चाचा का लिंग किसी भी ऐसी स्त्री की योनि में जा सकता है जो पहले अच्छे से सेक्स कर चुकी हो।
फिर चाहे वो इंग्लिश हो, भारतीय या चीनी, लंबाई वो अपनी गहराई के हिसाब से एडजस्ट कर लेगी लेकिन तुम्हारी योनि का रास्ता अभी नहीं खुला… चाचा का लिंग कैसे भी उसमे नहीं जायेगा।’
‘फिर?’
‘फिर यह कि पहले तुम्हें योनि ढीली करनी होगी, चाहे खुद से चाहे किसी और भारतीय साइज़ के लिंग से… जब रास्ता बनेगा तो तकलीफ होनी तय है, मगर ये तकलीफ किसी सात इंच वाले से भी मिले तो जैसे तैसे झेल लोगी लेकिन किसी नीग्रो या चाचा से मिले तो शायद बर्दाश्त भी नहीं कर पाओगी।’
‘तू आज बड़ी बड़ी बातें कर रही है…’
‘क्योंकि हमने एक कश्ती के सवार होते हुए भी आज तक इस ज़रूरी विषय पर कभी बात नही की लेकिन आज जो हालात हैं उनकी रूह में हमारा बात करना ज़रूरी है।’
‘तुझे इन चीज़ों के बारे में इतना कैसे पता?’
‘सोनू के स्मार्टफोन पे कई ऐसी पोर्न क्लिप्स देख के, ऐसा पोर्न कंटेंट पढ़ के और साइबर कैफ़े में भी कभी इन चीज़ों के बारे में जानकारी हासिल की है।’
‘सोनू के फोन पर? उसने तुझे क्यों दिया अपना फोन इस सब के लिए?’
‘दी, प्लीज अब तुम नैतिक-अनैतिक की ठेकेदारी लेके न बैठ जाना…’
‘नहीं… पर बता तो सही कि बात क्या है?’
‘तुमने अपनी शारीरिक ज़रूरतों के आगे बहुत देर में हार स्वीकार की लेकिन मैंने बहुत पहले कर ली… शायद तुम पुराने ज़माने की थी।
इसलिए अनदेखे भगवन पर यकीन किये, कुछ अच्छा होने के इंतज़ार में बैठी रही लेकिन मैं नई सोच की हूं… जो अपने आप मिलने की उम्मीद दूर-दूर तक न दिखे उसे आगे बढ़ के हासिल कर लेना ही ठीक।’
‘मतलब… तू सेक्स कर चुकी है?’ वह आश्चर्य से उठ कर बैठ गई।
‘कई बार…. बल्कि शायद पचास बार से ज्यादा।’
रानो ने उसकी आँखों में देखते हुए इत्मीनान से जवाब दिया था और वह उसे घूरने लगी थी… उसे रानो का ये नैतिक पतन बुरा लगा था।
क्यों लगा, जब खुद भी उसी राह चल चुकी थी तो…
शायद प्रतियोगिता का अनदेखा अहसास, शायद पांच साल छोटी बहन से हार जाने की चोट।
जो सबक वह तीस साल की उम्र में सीख पाई वह उसने पच्चीस साल में कैसे सीख लिया?
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रानो ने उसकी बांह पे दबाव बनाते हुए उसे फिर लिटा लिया और उसका चेहरा अपनी तरफ कर लिया… उसकी आँखों में फिर आंसू आ गए थे।
‘क्यों बुरा लगा दी? कि मैंने तुम्हें नहीं बताया… एक सीख मुझे रंजना ने दी थी वही आज छोटी होने के बावजूद तुम्हें दे रही हूँ।
अपना नंगा तन तब तक छुपाओ जब तक सामने वाला नंगा न हो जाये, जब वह भी नंगा हो जायेगा तो छुपावे की ज़रूरत ही न रह जाएगी।’
‘कौन है वह?’ पूछते हुए उसने महसूस किया कि बचपन के संस्कारों ने ज़ोर मारा था और उसने अच्छे-बुरे के ठेकेदारों के अंदाज़ में पूछा था।
‘सोनू।’
‘क्या? रानो तू पागल हो गई है क्या…’ वह चौंक कर फिर उठने को हुई लेकिन रानों ने न उठने दिया, ‘सात साल छोटा है तुझसे, गोद खिलाया है तूने… दीदी कहता है तुझे!’
‘अब मुझे गोद में खिलाता है… चाचा भी उम्र में दस साल बड़ा है न तुमसे और सगा चाचा है, क्या फर्क रोक पाया तुम्हें?’
‘वह समझदार नहीं जो इन बातों को समझे… फिर मर्द बड़ा हो तो चलता है मगर…’
‘वह समझदार नहीं तुम तो समझदार थी, ताना नहीं दे रही, समझाने की कोशिश कर रही हूं कि हमें शादी नहीं करनी और जब मकसद सिर्फ तन की ज़रूरतों को पूरा करना हो तो उम्र क्या मायने रखती है?’
वह सोच में पड़ गई… रानो और सोनू के बीच का जो रिश्ता एकदम उसे हज़म न हुआ और वह ऐतराज़ और हैरानी जाता बैठी… उसे उसने अपने और चाचा के रिश्ते से कंपेयर किया।
क्या गलत था… पर सोनू के घर वाले, उसकी बहन रंजना… वह सब क्या सोचेंगे?
‘क्या सोचने लगी… बाकियों के बारे में… उन्हें क्या करना। लड़का जवान है, कहीं न कहीं तो मुंह मरेगा ही, घर में ही जुगाड़ हो रहा है तो क्या बुराई है?
और रह गई रंजना… तो वह भी उसी आग की झुलसी है जिसमे हम थे, वही तो थी जिसने मुझे रास्ता सुझाया था, जिसने मुझे अपना सुख खुद पा लेने का तरीका सिखाया था।’
‘कैसे… कैसे हुआ यह सब?’
‘पूरा सुनेगी… इंटरेस्टिंग कहानी है मेरी भी, इस बहाने मैं भी याद कर लूं कि कभी मैं भी कुंवारी थी और कैसे मेरा कौमार्य लुटा था।
वह भी अपने से सात साल छोटे उस लड़के के हाथों जो मुझे दीदी कहता था, जिसे मैंने गोद खिलाया था और छोटा भाई ही समझती थी।’
‘सुनाओ…’ अंततः उसने एक लंबी सांस खींचते हुए आँख बन्द कर ली जैसे रानो के शब्दों को अपनी कल्पना में जी लेना चाहती हो…
और रानो भी छत देखती जैसे सब कुछ वैसे ही याद करने लग गई जैसे गुज़रा था।
‘सोनू सात साल छोटा है मुझसे, कभी ध्यान ही नहीं दिया कि जिसे मैं बच्चा समझती हूँ, वो कभी तो बड़ा होगा। कब वह बड़ा हो गया एहसास ही नहीं हुआ।
और अहसास हुआ तो तब जब एक दिन उसके हाथों की छुअन में मर्दानी गर्माहट महसूस की… तब उसकी कई पिछली ऐसी बातें याद आईं जिन्हें मैंने इत्तेफ़ाक़ समझ कर इग्नोर कर दिया था।
ऐसा नहीं था कि उसका मेरे प्रति आकर्षण एकदम से हुआ था बल्कि शायद तब से ही उसमे इस तरह की भावनाएं पैदा होने लगी थीं जब वह आठवीं में था और जब बारहवीं तक पहुंचा तो मेरे प्रति उसकी भावनाएं पूरी तरह बदल चुकी थीं।
कभी जो लड़की उसके लिए ‘दीदी’ होती थी, कब ‘माल’ में बदल गई, उसके बताये ही मुझे मालूम है कि उसे इस बदलाव का अहसास भी नहीं हो सका था और वह कैसे धीरे-धीरे मुझे याद करते हस्तमैथुन करने लगा था।
उसने अपनी भावनाएं जताने के लिए कई बार मुझे इधर-उधर छुआ था, अपने हाथ लगाए थे लेकिन चूंकि मैंने उसे हमेशा अपने से सात साल छोटे ‘भाई जैसे’ की नज़र से ही देखा था इसलिए महसूस ही न कर सकी थी।
पर उस दिन मुझे कॉलेज से अपने कागज़ लेने जाना था, और रंजना ने ही उसे मेरे साथ भेज दिया था कि न सिर्फ मेरी मदद करेगा बल्कि खुद भी उसे वहां काम था कुछ।
हम बस से गये थे… जो बुरी तरह भरी हुई थी और सोनू भीड़ में मुझसे सट के ही खड़ा था। मैंने महसूस किया कि किसी का हाथ मेरे नितंबों पर फिर रहा है…
बचपन के संस्कार थे… महसूस करते ही तन-बदन सुलग उठा और मुड़ के देखा तो एकदम समझ में नहीं आया कि कौन हो सकता था क्योंकि पीछे तो सोनू ही था।
मुझे मुड़ते देख उसने हाथ भी फ़ौरन हटा लिया था इसलिए और न समझ सकी… पर थोड़ी देर बाद उस हाथ को जब फिर अपने नितम्बों पे महसूस किया तो इस बार उसी हाथ की ओर एकदम से गर्दन घुमाई।
उसने तेज़ी से हाथ हटाया था लेकिन फिर भी मैंने देख लिया था कि वह सोनू का हाथ था और मैं सन्न रह गई थी।
मुझे समझ में ही नहीं आया कि मैं कैसे रियेक्ट करूँ।
मेरी उलझन और ख़ामोशी देख कर उसे यही लगा कि शायद मैं उसे रोकने में सक्षम नहीं और उसने भीड़ का फायदा उठाते हुए फिर अपना हाथ वही रख दिया और इस बार जानते हुए रखा कि मैं उसके मन की भावना या दुर्भावना समझ चुकी हूं।
उसका हाथ मेरे नितंबों के बीच की दरार में फिरते हुए मुझमे अजीब सी फीलिंग पैदा करने लगा जिसमे क्रोध, झुंझलाहट, आश्चर्य, एक किस्म के वर्जित सेक्स जैसी रोमांच भरी अनुभूति और वितृष्णा सभी कुछ था।
पर यह भी सच था कि मैं उसे रोक नहीं पा रही थी… शायद मन में कहीं ये भावना भी थी कि मेरी ऐसी कोई प्रतिक्रिया उसका तमाशा बना देगी।
मैंने उन पलों में वो वाकये याद करने शुरू किये जो पहले उसके साथ होने पे हुए थे और मैंने इत्तेफ़ाक़ समझ कर जिन्हें इग्नोर कर गई थी।
उस दिन मेरी समझ में उसकी बदली हुई नियत आ पाई।
जब तक भीड़ रही उसके हाथों की सहलाहट मेरे नितंबों पर बनी रही और जब कॉलेज आने वाला हुआ तो उसने हाथ समेट लिया।
मेरे अंदर ढेरों विचार पैदा हो गये थे, आक्रोश से भरी कई बातें हो गई थीं जो मैं उससे कहना चाहती थी लेकिन जगह अनुकूल नहीं थी और वह कोई गैर तो था नहीं कि बीच सड़क पे ही ज़लील करुं।
हमने चुपचाप अपने काम निपटाये और वापसी की राह ली।
वापसी में भी भीड़ थी और इस बार भीड़ का फायदा उठाते हुए सोनू ने न सिर्फ हाथों से मेरे नितम्ब सहलाये बल्कि पीठ से चिपक कर इस तरह खड़ा हुआ कि उसके फूले तने लिंग की सख्ती और गर्माहट भी मुझे महसूस हुई।
उसकी जुर्रत पर मुझे जितना दुःख था उससे कहीं ज्यादा हैरानी थी… आज वह खुद को पूरी तरह ही ज़ाहिर कर देना चाहता था।
उसने नितंबों की दरार के बीच ही लिंग को रखा था और भीड़ के बहाने खुद को मुझ पर ऐसे दबा रहा था कि मैं ठीक से उसके लिंग को महसूस कर सकूं।
घर पहुंचने तक हममे कोई बात नहीं हुई और घर में घुसते ही वह सीधा ऊपर अपने कमरे की तरफ भाग गया ताकि मैं कुछ कह न पाऊं।
उनके यहां का तुम्हें तो पता ही है कि चाचा जी नौ बजे तक आ पाते हैं और चाची को बतियाने और दोस्ती निभाने की इतनी परवाह रहती है कि घर में पांव ही नहीं टिकते।
घर में रंजना ही अक्सर अकेली होती है या कभी कभी सोनू भी।
बच्चों की छुट्टी करके जल्दी घर भेज दिया और तब मैंने रंजना को सारी बात बताई। रंजना को कोई हैरानी नहीं हुई बल्कि उसे सोनू की बदली हुई मानसिकता का पहले ही पता था।
अब वह उम्र के जिस दौर में था वहां शरीर में वीर्य का इतना उत्पादन होता है कि किसी युवा का इस तरह चेंज हो जाना कोई खास महत्त्व नहीं रखता।
कई युवाओं का अपने वीर्य को निकालने का ‘जुगाड़’ हो जाता है तो कई सोनू जैसे साधारण शक्ल-सूरत वाले युवा भी होते हैं जिनका कोई इंतज़ाम नहीं हो पाता, तो वे हस्तमैथुन का सहारा लेते हैं और ऐसे ही हर सामने पड़ने वाली लड़की से आकर्षित हो जाते हैं…
चाहे वह उनकी सगी बहन ही क्यों न हो।
उन्हें इन बातों की कोई परवाह नहीं होती कि क्या जायज़ है और क्या नाजायज़, क्या नैतिक क्या अनैतिक… उनके लिए सब बराबर।
कई बार वह खुद सोनू को उसी की ब्रा या पैंटी हाथ में लिए हस्तमैथुन करते देख चुकी थी, पकड़ चुकी थी लेकिन कभी उसने सोनू के चेहरे पर शर्मिंदगी नहीं देखी थी।
फिर उसने मुझसे पूछा कि क्या मैं अपने वर्तमान से खुश हूँ? क्या मेरे शरीर में सहवास की प्राकृतिक रूप से पैदा होने वाली इच्छाएं नहीं पनपती? क्या मुझे उम्मीद है कि किसी जायज़ तरीके से वे पूरी हो जाएंगी?
उस दिन ऐसी ही बातों से, जैसी मैंने अभी तुमसे की… रंजना ने मेरे सोचने का तरीका बदल दिया। उसने तुम्हारा उदाहरण दिया कि कैसे तुम सभी सामाजिक मूल्यों का पालन करते, सभी नैतिकता के मापदंडों को पूरा करते इतने साल गुज़ार लाई।
लेकिन हासिल क्या हुआ और क्या हासिल होने की उम्मीद है। क्या जब सारा वक़्त निकल जायेगा और कुछ नहीं हासिल होगा और ये अहसास होगा कि जलते झुलसते बेकार में समाज के नियम निभाती रही।
तो क्या वापसी करके वहां पहुंच पाओगी जहाँ से जवानी का दौर शुरू हुआ था। क्या ज़िन्दगी में भी कोई रिवर्स सिस्टम होता है जो बाद में अपनी गलती का पता चलने पर वापस हो के उसे सुधारने का कोई मौका देता हो?
पहली बार मैंने भी उस दिन रंजना की नज़र से खुद को देखा। मैं वही कर रही थी जो हमारे जैसी घर पे कुँवारी बैठी सैकड़ों हज़ारों लड़कियाँ करती हैं… अपनी इच्छाओं का क़त्ल!
मुझे यह समझ में आ गया कि मैं चाहे इन सामाजिक नियमों को निभाते बूढ़ी भी हो जाऊं, अगर शादी न हो सकी, जिसकी कोई उम्मीद भी नहीं तो क्या यह समाज मेरे लिए भी कोई चोर रास्ता निकलेगा?
तो क्यों न मैं इन्हें ताक पर रख दूं।
रंजना ऐसा ही चाहती थी, वह खुद भी ठोकर मार चुकी थी इन नियमों को पर विकलांग थी, कहीं आना-जाना मुश्किल था और घर पे आने वाला मर्द सिर्फ एक था जो उसका सगा भाई था।
सगे भाई से सम्भोग के लिए वह खुद को तैयार नही कर पाती थी इसलिए कुढ़ने पर मजबूर थी लेकिन मैं क्यों मजबूर थी।
मैं तो आ-जा सकती थी।
मेरे लिये तो एक मर्द वहीं मौजूद था जो मेरा सगा भाई नहीं था।
उसके शब्दों का जादू था या मेरी दबी इच्छाओं का उफान कि दिमाग वैसा ही सोचता गया जैसा वह चाहती थी और उसके उकसाने पर मैं जैसे जादू के ज़ोर से बंधी ऊपर उसके कमरे तक पहुंच गई।
उसका दरवाज़ा बंद था… मैंने सोचा पुकारुं पर हिम्मत न हुई।
दरवाज़े के पास ही खिड़की थी जिसके पल्ले अधखुले थे… वहां से पूरा तो नही पर आधा-अधूरा तो देखा जा सकता था।
सोचा उसे देख के हिम्मत पैदा करुं।
देखा तो बदन में पैदा हुई आग और भड़क गई… पागल था, पूरा नंगा बिस्तर पर पड़ा था और अपने हाथ से अपने लिंग को सहला रहा था।
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