स्वीटी-2

लीलाधर 2007-05-06 Comments

स्वीटी-1

और तब मुझे पता चला कि मेरी जांघों पर कोई मोटी चीज गड़ रही है। जांघों के बीच इधर उधर फिसलती हुई कुछ खोज रही है। फिर वह मेरे कटाव में उतरी और वहँ के चिकने रस में फिसलकर दबाव में एकदम नीचे उतरकर गुदा के छेद पर दस्तक दे गई।

मेरे भीतर चेतावनी दौड़ गई। अब आगे बढ़ने में खतरा है। अब वह असली काम पर आ गया था। वह घटना जिसका हर लड़की अपने यौवन में विवाह तक इंतजार करती है और जिसे सिर्फ अपने पति के लिए बचाकर रखना चाहती है। अब तक जो हुआ था वह एक एडवेंचर के रूप में लिया जा सकता था। मगर अब इसके बाद जो होगा उसका अधिकार सिर्फ मेरे तन मन के स्वामी को ही था। जिसे मैं सपनों के राजकुमार को अर्पित करना चाहती थी।

मगर रोकना कैसे हो। अब तक जो हुआ है उसके बाद उसे किस तरह रोकूं। मैं सम्पूर्ण निर्वस्त्र थी। उसने न केवल केवल मेरे बदन को छुआ था बल्कि उसके रहस्य की अंतिम सीमा तक गया था और मेरे सबसे गुप्त अंग में मुँह घुसाकर मेरे पहली बार फूटे कुंआरे रस को भी पिया था, जिसका स्वाद इसके पहले मैंने भी नहीं जाना था।

वह मुझ पर छाया हुआ था। मैं उसके नीचे दबी थी। कुदरत अब मुझसे अपना हिस्सा मांग रही थी जिसके लिए उसने मुझे जन्म के बाद से ही तैयार किया था। उसका शिश्न ढूंढ रहा था। मेरी योनि भी उससे मिलने को बेकरार थी, मुझे आगे बढ़ने के लिए ठेल रही थी।

मैंने अंधेरे को ओट देने के लिए धन्यवाद दिया। वही मेरी मदद कर रहा था। मैंने संयम की लगाम छोड़ दी। नियति का घोड़ा जिधर ले जाए।

वह थोड़ा ऊपर उठा और मुझ पर से नीचे उतरा। उसने मेरे पाँव घुटनों से मोड़ दिये और घुटनों को किताब के पन्नों की तरह फैला दिया। गंतव्य को टटोला। लिंग को हाथ से पकड़कर छेद के मुँह पर लाया। वहाँ उसने ऊपर नीचे रगड़कर रस में अच्छी तरह भिगोया।

मैं दम साधे प्रतीक्षारत थी- क्या करता है !

मेरे पैरों के पंजे मेरे नितम्बों के पास नमस्कार की मुद्रा में जुड़े थे। वह लिंग के मुंह को मेरे छेद पर लाकर टिकाया और हल्के से ठेला।

तब मुझे उसके थूथन के मोटेपन का पता चला और मैं डर गई। इतना मोटा मेरे छोटे छेद के अंदर कैसे जाएगा? मेरे छेद का मुँह फैला और उस पर आकर उसका शिश्न टिक गया। अब उसके इधर उधर फिसल जाने का डर नहीं था।

शिश्न को वहीं टिकाए उसने हाथ हटाया और मेरे ऊपर झुक गया। मेरे बगलों के नीचे हाथ घुसाकर उसने मेरे कंघों को ऊपर से जकड़ लिया। उसके वजन से ही शिश्न अंदर धँसने लगा।

अब मैं जा रही थी। लुट रही थी। चोर मेरा सबसे अनमोल मेरे हाथों से ही धीरे धीरे छीन रहा था। मेरे राजीनामे के साथ ! और मैं कुछ नहीं कर पा रही थी। विरोध नहीं करके उसे छीनने में मदद कर रही थी। अंधेरा मुझे लुट जाने के लिए प्रेरित कर रहा था।

किसे पता चलेगा? फिर परेशानी क्या है? रुकना किस लिए? अंधेरा मेरी इच्छा के विरुध्द मेरी मदद कर मुझे छल रहा था।

अंधेरा उसे भी छल रहा था क्योंकि मैं उसकी स्वीटी नहीं थी, मगर उसकी मदद भी कर रहा था क्योंकि उसने मुझे निश्चिन्त करके मुझको उसे उपलब्ध करा दिया था।

कुंवारी लड़की की सबसे अनमोल चीज। कितनी बड़ी भेंट वह अनजाने में पा रहा था। जानते हुए में क्या मैं उसे हाथ भी लगाने देती ! हाथ लगाना तो दूर अपने से बात करने के लिए भी उसे तरसाती। मगर अनजाना होने पर मैं क्या कर रही थी। वह मेरा कौमार्य भंग कर रहा था। उसके मुँह पर दस्तक दे रहा था।

एक घक्का लगा और उसका शिश्न थोड़ा और भीतर धँस गया। छेद मानो खिंचकर फटने लगी।

मैं दर्द से बिलबिला उठी। जोर लगाकर उसे हटाना चाहा मगर उससे खुद को छुड़ा नहीं पाई। ऊपर वह मुझे कंधों से जकड़े हुए था और नीचे मेरे पैरों को मोड़कर सामने से अपने पैरों से चाँपे था। छूटती किस तरह! उसने और जोर से दबाया।

आह, मैं मर जाउंगी। शिश्न की मोटी गर्दन कील की तरह छेद में धँस गई। वह ठहर गया। शायद छेद को फैलने के लिए समय दे रहा था। मैंने उसे बगलों से पकड़कर ठेलकर छुड़ाने की कोशिश की। मगर सफलता नहीं मिली।

वह कसकर मुझे जकड़े था। कोई उपाय नहीं। कोई सहायता नहीं। बुरी तरह फँसी हुई थी। योनि के खिंचाव का दर्द कुछ कम होने लगा। हल्की सी राहत मिली। झेल पाने की हिम्मत बंधी।

मगर तभी एक जोरदार धक्का आया और धक्के के जोर से सारा बदन ऊपर ठेला गया। शिश्न मुझे लगभग फाड़ते हुए मेरे अंदर घुस गया।

मैं दर्द से चीख उठी मगर उसने मेरा मुँह बंद कर आवाज अंदर ही घोंट दी। वह बेरहम हो रहा था। लगा आज वह मुझे मार ही डालेगा। जिस तरह कुल्हाड़ी लकड़ी को फाड़ती है उसी तरह मैं फटी जा रही थी।

वह मुझे छटपटाने भी नहीं दे रहा था, हर तरफ से जकड़े था, मुँह पर हाथ दबाए था और नीचे दोनों पाँव जुड़े हुए उसके पैरों से मेरे नितम्बों पर दबे थे, ऊपर से कंधे जकडे था, हिलना भी मुश्किल था।

अब वह कोई दया दिखाने को तैयार नहीं था। छेद पर अपना दवाब बढ़ाता जा रहा था। कील धीरे धीरे मुझमें ठुकती जा रही थी। शिश्न मेरे काफी अंदर घुस चुका था। योनि के चिकने गीलेपन में वह भीतर सरकता ही जा रहा था।

मैं दर्द से व्याकुल हो रही थी। नश्तर की एक धार मुझे चीरती जा रही थी।

छोड़ दो ! छोड़ दो ! मगर मुँह बंधे जानवर की तरह उम… उम…. की आवाज भीतर ही घुट रही थी।

उस सुरंग में सरकते हुए उसका शिश्न मानो किसी रुकावट से टकराया। कोई चीज दीवार की तरह उसका रास्ता रोक रही थी। वह चीज उसके नोंक के दबाव में खिंचती हुई भी आगे बढ़ने नहीं दे रही थी। मेरे भीतर मानो फटा जा रहा था।

उसने बेरहमी से और जोर लगाया। भीतर का पर्दा मानो फटने लगा। दर्द की इन्तहा हो गई। मैंने जांघें भींच लीं। किस तरह छुड़ाऊँ। कई तरफ से जोर लगाया। मगर कुछ कर नहीं पाई। रस्सी से बंधे बकरे की तरह हलाल हो रही थी। विवशता में रो पड़ी। सिर्फ जांघों को भींचकर खुद को बचाने की कोशिश कर रही थी। मगर जांघें तो फैली थी। भींचने की कोशिश में छेद और सख्त हो रहा था, उससे और पीड़ा हो रही थी।

शायद उसे मुझ पर तरस आया। उसने मेरे बहते आँसुओं पर अपने होंट रख दिए। मुझे उस दर्द में भी उस पर दया आई। यह आदमी फिर भी क्रूर नहीं है। मेरा दर्द समझ रहा है। उसने सारे आँसू चूस लिये। मेरी बंद पलकों पर जीभ फिराकर उन्हें भी सुखा दिया। कैसा विरोधाभास था ! नीचे से लिंग की कठोर, जान निकाल देनेवाली क्रूरता, उपर से उसकी जीभ का कोमल सहानुभूति भरा सांत्वनादायी प्यार।

उसने मेरे चिड़िया की तरह अधखुले मुँह पर बार बार चुम्बन की मुहर लगाई। फिर ठुड्डी को, गले को, कॉलर की हड्डी को चूमता हुआ नीचे उतरा और प्रतीक्षा में फुरफुराती मेरी बाईं चूची को होंठों में अंदर गर्म घेरे में ले लिया।

फिर मेरे दाएं कंधे के नीचे से हाथ निकालकर वह मेरी प्रतीक्षारत दूसरी चूची को चुटकी में पकड़कर मसलने लगा। नीचे तड़तड़ाहट के दर्द के बावजूद आनंद की लहरें मुझमें दौड़ने लगीं।

एक तरफ दर्द और दूसरे तरफ आनंद की लहर। किधर जाऊँ! एक तड़पा रही थी दूसरी ललचा रही थी। कुछ क्षण आनंद के हिचकोले मुझे झुलाते रहे और उन हिचकोलों में चुभन की पीड़ा भी कुछ मध्दिम होती सी प्रतीत हुई। हालांकि वह मुझमें उतना ही घुसा हुआ था।

“स्वीटी आई लव यू… आई लव यू ….” वह नीचे चूचियों को चूसते हुए वहीं से बुदबुदाया।

‘स्वीटी !’ हाँ, मैं जूली नहीं स्वीटी थी। उसके लिए स्वीटी। संवेदनों की तेज सनसनाहट में मैं भूल गई थी कि मैं स्वीटी नहीं जूली थी।

वह इतना प्यार मुझ पर बरसा रहा था कोई और समझकर। मुझे पछतावा हुआ। इच्छा हुई उसे बता दूँ। मगर आनंद और दर्द की लहरों में यह खयाल मुझे निरर्थक लगा। जो कुछ मैं भोग रही थी, जो आनंद, जो दर्द मुझे मिल रहा था उसमें इससे क्या फर्क पड़ता था मैं कौन हूँ। वह भोगना ही था। वह स्त्री देह की अनिवार्य नियति थी। कोई और राह नहीं थी। नीचे उस अनजान अतिथि को मेरी योनि अपनी पहचान के रस में डुबोकर भीतर बुला ही चुकी थी। अब क्या बाकी रहा था?

और तभी आँखों के आगे चिनगारियाँ सी छूटीं और मैं बेसम्हाल उठी दर्द की लहर में बेहोश सी हो गई।

‘धचाक’..! उसने शिश्न को थोड़ा बाहर खींचा था।

मैंने सोचा वह हमदर्दी में ऐसा कर रहा है, इसलिए ढीली पड़ी थी। मगर तभी एक बेहद जोर का धक्का लगा और मेरी आँखों के आगे तारे नाच गए। वह मुझे फाड़ते हुए मुझमें दाखिल हो गया। मैं खुद को भींच भी नहीं पाई थी कि उसे रोक सकूँ।

मेरी साँस रुक गई। मैं बिलबिला उठी। आ ऽऽऽ ह ….. आ ऽऽऽ ह ….. छोड़ो मुझे, छोड़ो मुझे … वह जैसे ठहर कर मेरी छटपटाहट का आनंद ले रहा था। कोई दया नहीं। शिकारी जैसे अपने शिकार को तड़पते देख रहा था। मगर उसने मुझे दर्द की लहर से उबरने का मौका नहीं दिया।

अभी ठीक से साँस लेने भी नहीं पाई थी कि दूसरा वार हुआ। एक और जोर का धक्का आया और वह एक गर्म सलाख की तरह मुझमें जड़ तक धँस गया। मेरा कलेजा मुँह को आ गया। उसका छोर मानो मेरे कलेजे तक घुस गया था।

कील पूरी तरह ठुक चुकी थी और उसमें भिदकर मेरा कौमार्य एक तितली की भांति तड़प तड़पकर दम तोड़ चुका था, खत्म हो चुका था। अब वह कभी वापस नहीं लौट सकता था। इस जीवन में अब कभी नहीं।

मैं ग्लानि से भर उठी। जो इतना अनमोल, इतना सहेजकर रखा था उसे यूँ ही सस्ते में बिना मोल के ही खो दिया था। उसे कभी वापस नहीं पा सकूंगी। मुझे बहुत कसकर अपनी बेहद कीमती चीज के खो जाने का एहसास हुआ। मैं फफक पड़ी।

“डार्लिंग, हो गया, बस… बस, इतना ही।” वह मुझे सांत्वना देने की कोशिश कर रहा था।

‘इतना ही?’ यह क्या कम है?

अब और कुछ नहीं होगा। बस इतना ही सहना था ! वह मुझे सहलाने लगा था- कंधों को, बगलों को, नर्म छातियों को।

“पहली बार थोड़ा सहना पड़ता है। इसके बाद कभी दर्द नहीं होगा।” आश्वासन का मरहम लगाकर उस दर्द को शांत करने की कोशिश कर रहा था जो मेरी जांघों के जोड़ से बहुत भीतर मर्म तक दहकती आग जैसी जलन से उत्पन्न हो रहा था।

उसका हाथ बहुत हौले हौले घूम रहा था, मसलने से दुख रही नाजुक चूचियों पर, तेज सांस में ऊपर नीचे होते नर्म पेट पर, उसके नीचे धड़कते फूले मांसल पेड़ू पर।

वह सांत्वना दे रहा था- जांघों पर, घुटनों पर, पैरों पर, कोमल तलवों पर वहाँ से उतर कर संकरी कमर पर, उपर क्रमशः चौड़े होते धड़ पर। हर जगह घूमता हुआ वह मानो मेरा दर्द खींच रहा था।

सांत्वना की सहलाहटें, स्पर्श, आश्वासन बरसाते चुम्बन धीरे धीरे असर कर रहे थे। उस आग की जलन कुछ कुछ घट रही थी। हालाँकि दर्द अब भी बहुत था। मगर उसके प्यार का बल पाकर सहने की ताकत आ रही थी। बिल्कुल औरत की तरह जो मर्द के प्यार के बल पर बड़े बड़े दर्द सह जाती है।

मैं अब औरत बन गई थी। मगर क्या वह मेरा मर्द था?

एक दिया सा जल रहा था। मैं जल रही थी। जलन मेरे जांघों के बीच हो रही थी जहाँ उसकी विजय पताका पूरे जोश से फहरा रही थी जिसका खंभा मेरे गर्भ तक बेधता हुआ गड़ा हुआ था। मैं उसकी आरती में दिए सी असहाय जल रही थी। हारी हुई, विवश जलन। जलन मेरे भीतर रही थी। हालाँकि योनि की जलन अब घट रही थी। इसमें उसका दोष नहीं था, मैंने खुद इसे चुना था, स्वीटी बनकर।

उसका शिश्न मेरे भीतर हिला। इस बार दर्द नहीं हुआ। वह थोड़ा बाहर निकला और फिर बिना किसी खास बाधा के घुस गया। गर्भ के मुंह पर दस्तक पड़ी। डरकर फिर मैंने साँस रोक ली। मगर कुछ खास दर्द नहीं हुआ।

वह कुछ ठहरकर फिर थोड़ा बाहर सरका। पहले से ज्यादा। उसके साथ उसके लिंग पर कसी मेरी योनि की दीवारें बाहर की ओर खिंच गई। मेरी भीतरी कोमल नितम्बों पर दबाव पड़ा और वह मोटा शिश्न मेरे अंदर रगड़ता हुआ फिर भीतर पैठ गया।

अब मेरी योनि फैल रही थी। वह धीरे धीरे धक्के देने लगा। इस बार दर्द थोड़ा कम हुआ। मेरा भय घटा। अब सह सकूंगी। धीरे धीरे धक्कों का जोर बढ़ने लगा। उसका शिश्न मेरी सुरंग में जोर जोर रगड़ता फिसलने लगा। वह बाहर भीतर हो रहा था और योनि के संकुचन की रही सही सलवटें मिटा रहा था।

मैं सह रही थी। पहली बार फैली बुर की तड़तड़ाहट बरकरार थी। फिर भी उसके धीरज और कोमलता से पेश आने पर मुझे दया आई। सहानुभूति में ही मैंने उसके धक्के से मिलने के लिए अपने नितम्ब उचकाए। वह उत्साह से भर गया, और जोर जोर धक्के लगाने लगा। मेरी योनि में दर्द के बीच भी आनंद की हल्की तरंगें उठने लगी। वह और जोर जोर से धक्के मारने लगा।

उसका शिश्न मेरे छेद के मुँह तक आता और फिर सरसराकर भीतर घुस जाता। जब बाहर निकलता तो राहत मिलती और भीतर जाता तो दर्द होता, हालाँकि पहली बार की तरह असह्य नहीं।

वह हाँफ रहा था। उसके बदन पर घूमते मेरे हाथ उसके पसीने से गीले हो रहे थे। वह जोर जोर से धक्के मार रहा था। मैं भी हाँफ रही थी।

दर्द को भुलाने के लिए कभी उसकी पीठ पर हाथ पटकती, कभी नितम्ब उचकाती। इसे वह मेरा मजा आना समझ रहा था।

वह और सक्रिय हुआ, और जल्दी जल्दी करने लगा। उसके मुंह से एक घुटी सी कराह निकली … आ ..ऽ … ह … और उसने मुझे जोर से भींच लिया।

कसाव में मेरी हड्डियाँ चटखने लगीं। मुझे अपने भीतर उसके शिश्न के झटके से फैलने सिकुड़ने का एहसास हुआ। हर झटके में मेरे भीतर एक गर्म लावा सा भरने लगा।

आ ऽऽऽ ह … ओ ऽऽ ह… वह झड़ रहा था और मेरे भीतर उसकी गर्म धार भरती जा रही थी। वह मुझमें बार बार झड़ रहा था। बाढ़ की तरह मुझे भर दिया दिया। उस गर्म धार में मेरी बुर, मेरा फूला पेडू भीग गए। आसपास के बाल उसमें भीगकर चमड़ी में चिपक गए। मुझे भी झड़ने की जरूरत महसूस हो रही थी। मगर दर्द भी हो रहा था। पहली बार होने का दर्द।

मैंने उसे सहलाया और फिर उसके मुँह को चूम लिया। पता नहीं क्यों मुझे एक कृतज्ञता सी महसूस हुई, हालाँकि उसने चोर की तरह छुपकर मुझे विवश करके मेरा शील भंग किया था। मगर फिर भी मैंने उसकी धार में पहला स्नान किया था।

वह उठा। लबालब भरे बुर से बहते लिसलिसे द्रव को छेद पर से, कटाव में से, नीचे गुदा के छेद पर से ऊपर चूत पर से पोंछा और मुझपर से उतर गया। मैंने भी अपनी पैंटी, अपनी शलवार खींची और ब्रा, फ्रॉक को टटोलकर उठाया और बाथरूम में चली गई। अब सब कुछ समाप्त हो गया था।

बाथरूम की रोशनी में मुझे सलवार पर और फ्राक पर खून के धब्बे नजर आए।

धो पोंछकर जब निकली तो मैंने अंधेरे में ही बिस्तर पर उसकी आहट लेने की कोशिश की। गहरी साँसों के आने जाने की आवाज आ रही थी। वह सो रहा था। अच्छा है। जब स्वीटी सोने आएगी तो समझेगी। मैं दरवाजा खोलकर बाहर निकल गई।

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