खेत खलिहान-1
(Khet Khalihan Me Desi Chhori Ka Yauvan Ka Khel- Part 1)
बारहवीं की परीक्षा हो चुकी थी और उन्नीस साल की संजना अब कॉलेज जाने के लिए उत्सुक थी। गाँव के स्कूल से निकल कर शहर में कॉलेज जाएगी। उसने कॉलेज के खुले माहौल के बारे में सुन रखा था। रिजल्ट निकलने में दो महीने की देर थी और संजना अपनी सहेलियों के साथ अभी से योजनाएँ बनाने लगी थी।
संजना के पिता किसान थे लेकिन अपनी बेटी की शिक्षा के लिए महत्वाकांक्षी थे, अभाव में भी वे उसकी पढ़ाई पर खर्च कर रहे थे। वे संजना को इंजीनियर बनाना चाहते थे। खेती-बाड़ी ज्यादा नहीं थी। वे संजना को कोचिंग के लिए दूसरे शहर नहीं भेज सकते थे, लेकिन अपने नजदीकी शहर में भेजना संभव था; शहर गाँव से पाँच किलोमीटर दूर था।
परीक्षाएँ अच्छी गई थीं और संजना को अब इंजीनियरिंग की परीक्षाओं की तैयारी शुरू करनी थी। शहर में इंजीनियरिंग की कोचिंग कक्षाएँ जून में शुरू हो रही थीं। पूरी उम्मीद थी कि उसे शहर के कॉलेज में दाखिला मिल जाएगा। उसने शहर जाकर अपनी पुरानी किताबें बेचकर कुछ पैसे जुटा लेने का फैसला किया।
***
वह साइकिल से लौट रही थी। वह सवेरे ही घर से निकली थी कि जल्दी लौट आएगी लेकिन देर हो गई थी। बारहवीं कक्षा की किताबें बेचने निकली थी लेकिन खरीदने वाला दुकानदार उसको किताबों के गट्ठर के साथ देखकर मजबूरी में सस्ते में खरीदना चाह रहा था। संयोग से वहाँ उसको अपनी एक सहेली भी मिल गई जो उसके पास के गाँव में रहती थी, वह भी किताबें बेचने आई थी। दोनों सखियों ने कुछ और दुकानों में मोल भाव करके एक के पास कुछ सही दाम में बेच दिया।
अब वे साथ ही लौट रही थीं; बारह बज गए थे; आसमान ऊपर से आग बरसा रहा था; दोनों पसीने-पसीने हो रही थीं। शहर से निकल कर जल्दी घर पहुँचने के लिए उन्होंने पक्की सड़क छोड़ कर एक शॉर्टकट कच्चा रास्ता पकड़ लिया था। हवा भी नहीं चल रही थी। वे जोर जोर पैडल मार रही थीं कि चाल बढ़ने से बदन में हवा लगे। लेकिन ऊबड़ खाबड़ कच्चे रास्ते में ज्यादा तेज चलना मुश्किल था। कभी थोड़ी हवा चल जाती तो धूल उड़ कर मुँह पर चिंगारी-सी लगती। वे थक गई थीं। थैले में बोतल का पानी इतना गरम हो गया था कि पिया नहीं जाता था।
चारों तरफ कटे खेत थे; सूने। दूर दूर तक कोई नहीं। सभी जैसे गरमी की मार से घरों में दुबके थे। वे साइकिल मोड़कर बगीचे की तरफ बढ़ चलीं। बगीचा रेणु की एक और सहेली पल्लवी का है। वहाँ कुआँ है। ठंडा पानी मिलेगा। थोड़ा रुककर पेड़ की छाया में सुस्ता कर फिर आगे बढ़ेंगी। अभी आधा रास्ता बाकी था।
लेकिन थकान के बावजूद दोनों सहेलियों के उत्साह में कमी नहीं थीं; वे एक दूसरे से हँसी-ठिठोली कर रही थीं। खासकर कॉलेज में कैसा खुला माहौल मिलेगा उसको लेकर अधिक। रेणु जरा खुली हुई थी और गाँव के छोरे छोरियों के तरह तरह के किस्से सुना रही थी। किसका किससे चक्कर चल रहा है। कौन कहाँ किससे फँसा या फँसी है। कौन गन्ने या अरहर के खेत में पकड़ा गया वगैरह। उसके गाँव के कई लड़के कॉलेज में पढ़ने शहर जाते थे; उनके कारनामों का भी वह रस लेकर बखान कर रही थी। उसने संजना से भी पूछा था- तुम्हारा किसी से कुछ हुआ कि नहीं?
संजना इस किस्म की लड़की नहीं थी। लेकिन इस तरह की चर्चा में उसे मजा जरूर आता था। वह भी सपने देखती एक सुंदर लड़के के साथ सुंदर सेक्स के। लेकिन शादी के बाद। और अभी शादी की तो कोई बात ही नहीं थी। लेकिन उसे डर था कॉलेज में दो तीन साल पढ़ते पढ़ते उसकी शादी कर दी जाएगी। उसने एक बार छिपकर माँ को पिताजी को बोलते भी सुना था।
आम के चार पेड़ों का छोटा सा बगीचा। दोनों सहेलियाँ आकर ठहर गईं। उमस के बावजूद यहाँ छाया में राहत मिली। साथ लगे खलिहान में फूस की झोपड़ी। खलिहान के एक कोने पर कुआँ। आमों की निगरानी के लिए बगीचे में एक खाट बिछी थी लेकिन वह खाली थी। रखवाला शायद झोपड़ी के अंदर था। रेणु झोपड़ी के अंदर जाने से हिचक रही थी। पता नहीं अंदर कौन हो। कहीं सुरेश निकला तो…
लेकिन आवाज सुनकर रखवाला झोपड़ी के अंदर से खुद निकल आया। रेणु का डर सही निकला। सुरेश ही था। सुरेश उसकी सहेली पल्लवी का बड़ा भाई था। यह बगीचा और खलिहान उन्हीं लोगों का था। सुरेश उस पर बहुत डोरे डाल रहा था। कुछ दिनों से रेणु ने भी उत्तर देना शुरू कर दिया था।
उसे देखकर रेणु की धड़कन बढ़ गई; वह संजना के साथ उसके सामने नहीं पड़ना चाहती थी।
“अरे, तुम? तुम लोग?” संजना को देखकर उसने तुरंत ‘तुम’ से ‘तुम लोग’ का सुधार किया। वह संजना को जानता था। संजना भी उसे जानती थी। ज्यादातर रेणु के ही माध्यम से। लेकिन दोनों में कभी परिचय नहीं हुआ था। रेणु ने उससे अपनी ‘गिटपिट’ की बात संजना को नहीं बताई थी।
‘हाय!’ उसने संजना को देखकर कहा। नीचे जींस पैंट पहने था, ऊपर खुला बदन। कॉलेज में पढ़ते उसे हाय-हुय की आदत लग गई थी। संजना ने भी उसे हाय कह दिया। गरीब परिवार की होने के कारण वह पिछड़ी नहीं दिखना चाहती थी।
सुरेश उन्हें अंदर झोपड़ी में ले गया। अंदर रेडियो बज रहा था। भीतर आकर उसने बदन पर गमछा डाल लिया। रेडियो का वाल्यूम कम कर दिया। संजना को यह शिष्टता अच्छी लगी। लेकिन रेणु उसके गठीले बदन पर फिदा हो रही था। संजना की बाँह दबाकर वह एक बार सुरेश को इंगित करके फुसफुसाई थी- मस्त है!
“बड़ी गरमी है। तुम लोग परेशान दिख रही हो। इस गरमी में कहाँ निकली थीं?”
“अभी तो पानी पिलाओ, बड़ी प्यास लगी है।”
“अभी धूप से बहुत गरमाई हुई हो। थोड़ा सा ठहर कर पानी पीना।”
वह बाल्टी लेकर कुएँ से पानी लाने निकल गया।
संजना रेणु को देखकर और रेणु संजना को देखकर मुस्कुराई। दोनों के मन में जैसे सुरेश के लिए कोई एक ही तार बज गया। मिट्टी की झोपड़ी अंदर से ठंडी थी। एक तरफ सुराही। एक टिफिन कैरियर। जमीन पर फैला हुआ एक बिस्तर। बिस्तर पर कुछ किताबें, कॉपियाँ और कलम। एक किताब बीच से खुली उलटकर रखी हुई थी। कोई साइंस की किताब, अंग्रेजी में। रेडियो में हल्की आवाज में प्रचार आ रहा था।
रेणु जमीन पर लगे बिस्तर पर बिखरे किताबों को एक एक तरफ ठेलती लेट गई- आह क्या ठंडक है भीतर!
संजना ने भी हामी भरी- हाँ… मेरा मन करता है यहीं सो जाऊँ।
“सुरेश के साथ…”
“हट छुछुंदर। क्या बात करती है। सुन लेगा तो?” संजना ने उसको मुक्के से कोंचा।
सुरेश पानी भरी बाल्टी लेकर अंदर आ गया- लो, तुम लोग हाथ-मुँह धो लो।
रेणु ने उठने में थोड़ी देर लगाई; तब तक सुरेश ने उसे सोई मुद्रा में नजर भर कर देख लिया।
दोनों हाथ-मुँह धोकर लौटीं तो पौंछने के लिए सुरेश ने अपना गमछा बढ़ा दिया। दोनों लड़कियों ने दो छोरों से मुँह पोछते हुए छिपा कर उसके गठीले बदन को करीब से देखा।
सुरेश ने पूछा- ये कौन है, तुम्हारी सहेली?
“अच्छा हाँ।” रेणु ने परिचय कराया- ये संजना है, मेरी सहेली; अभी मेरे ही साथ बारहवीं की परीक्षा दी है, रामपुर में रहती है।
इसके बाद उसने सुरेश का परिचय कराया। उसने बताया सुरेश उसके पड़ोस की सहेली पल्लवी का बड़ा भाई है। सुरेश ने देखा था संजना को। रेणु के साथ आते-जाते, जब वह रेणु के चक्कर लगाया करता था। उसे संजना भी पसंद थी। लेकिन पास में होने के कारण उसको रेणु ही सुलभ दिखी।
“बड़ी सुंदर सहेली है तुम्हारी।” सुरेश ने हिम्मत करके कह दिया। लगा, कहीं दूसरी लड़की की तारीफ से रेणु नाराज न हो जाए। संजना शरमा गई। उसके मन में सुरेश की लालची नजरें घूम गईं जब वह रेणु के चक्कर लगाता था। सुरेश कॉलेज में पढ़ता था, गाँव के धनी परिवार का लड़का था। वह संजना की झुकी नजर और शर्माने से लाल हुए गालों पर लटटू हो गया।
रेडियों पर प्रचार खत्म होकर गाना शुरू हो गया था – ‘रेशमी शलवार कुर्ता जाली का’….गोल्डेन क्लासिक्स, सुनहरी यादें।
“तुम लोग बैठो।”
दोनों लड़कियाँ बैठ गईं। संजना ने जूते खोले; वह स्कूल ड्रेस में थी। सफेद शर्ट, नीली स्कर्ट, सफेद मोजे। रेणु शलवार कुरते में थी। सुरेश ने एक लोटे में गुड़ की शरबत बनाई। लड़कियों ने मदद की पेशकश की, लेकिन सुरेश ने उन्हें आराम करने को कहा। संजना सुरेश से थोड़ा खिंचती थी, मगर अभी उसे उसका व्यवहार, इस तरह खुद काम करके उनको आराम देने की कोशिश अच्छी लग रही थी।
ठंडा शरबत पीकर दोनों को बहुत राहत मिली। संजना ने भी शुक्रिया शुक्रिया कहकर अपनी अलग से फीलिंग का एहसास कराया।
“कहाँ गई थी इतनी भारी गरमी में तुम लोग?”
क्या कहे रेणु और संजना? कि किताबें बेचने गई थी?
दोनों चुप रहीं।
“करूंगी तेरा पीछा चाहे लग जाए हथकड़ियाँ…” थोड़ी नाक से निकलती शमशाद बेगम की बोल्ड चुनौतीपूर्ण आवाज। सुरेश को चुहल सूझ गई। बोला ये लाइन तो मेरे गाने का है।
रेणु कम नहीं थी ‘चुहल की बादशाह’ बोली, “हथकड़ी भी लगवा लोगे?”
“हाँ!” सुरेश ने इतने सीधेपन से कह दिया कि बेवकूफ सा लगा।
रेणु को हँसी आ गई।
सुरेश को उसकी हँसी अपनी बेइज्जती सी लगी, उसने कहा- देखना चाहती हो?
संजना के मुँह से तुरंत निकल पड़ा- ना बाबा ना!
इस बार रेणु के साथ सुरेश भी हँस पड़ा। संजना सिटपिटा गई। पता नहीं कैसे वह सुरेश की बात को खुद के लिए ही समझ गई थी। सुरेश ने उसी को लक्ष्य करके तो नहीं कहा था।
रेणु की बोल्ड चुहल ने सुरेश को मौका दे दिया था, बोला- आज तो मेरी झोपड़ी धन्य धन्य हो गई, एक साथ दो दो सुंदरियाँ…
रेणु ने नहले पर दहला दिया- दो दो सुंदरियों को एक साथ सम्हाल सकोगे?
संजना ने हैरान होकर रेणु को देखा। क्या बोल रही है!! लेकिन रेणु ढीठ बनी मुस्कुरा रही थी। सुरेश अंदर से सकुचा रहा था लेकिन देखा कि लड़की खुद ही लिफ्ट दे रही है तो मुझे क्या दिक्कत। बोला- ट्राय करके देख लो।
बाप रे, कितने मुँहफट हैं दोनों! संजना हैरान रह गई।
सुरेश ने संजना के चेहरे पर घबराहट देखकर बात को सामन्य दिशा में मोड़ा- देख ही रही हो, कैसे अच्छे से सम्हाल रहा हूँ। मेरे पास यहाँ अच्छा नहीं लग रहा क्या?
संजना को राहत सी मिली; चलो इसने बात सम्हाली, वरना ये रेणु तो दीवानी हुई जा रही थी।
और रेणु! वह तो इस एकांत में सुरेश के गठीले शरीर को देखती सचमुच दीवानी हुई जा रही थी। उसका मन हो रहा था मजाक को और खोल कर पूछे कि क्या दोनों को एक साथ चूमोगे, छातियाँ दबाओगे? पर संजना का गंभीर चेहरा देखकर उसने अपने को रोका।
संजना कहना चाह रही थी कि अब चलना चाहिए। लेकिन बाहर बहुत गर्मी थी और सुरेश ने जिस तरह शर्बत पिलाकर शिष्टाचार निभाया था उसकी अवहेलना करके तुरंत जाने की बात कहना अनुचित लगा।
रेडियो में उद्घोषिका प्यार के बारे में कुछ कह रही थी- प्यार दिल वालों की चीज है। प्यार में डूबा दिल दुनिया की परवाह नहीं करता। इश्क को हुस्न चाहिए और हुस्न को इश्क। दोनों अगर साथ मिल जाएँ तो जिंदगी जन्नत है!
युवा दिलों के लिए ये बातें रसीली थीं; सुरेश को मजा आ रहा था। रेणु पर ऐसा असर हो रहा था कि अगर संजना नहीं होती तो यहीं सुरेश से लिपटकर हुस्न-ओ-इश्क का संगम करा लेती। संजना को परेशान देखकर रेणु को और रोमांच हुआ- इस दूध की धुली शर्मीली सती-सावित्री का ही ‘संगम’ हो जाए तो कैसा रहे। उसने सुरेश को देखा। छरहरा मजबूत बदन, चेहरे पर हल्की सी लजीली, लेकिन साथ ही आत्मविश्वस्त मुस्कुराहट भी।
संजना फँसी हुई सी थी; कब बाहर निकले; लेकिन बाहर आग बरस रही थी।
रेणु बार-बार अपने चेहरे पर गिरती लटों को सम्हाल रही थी। संजना कभी उसे देखती, कभी सुरेश को, कभी सिर झुका लेती। उसे दोनों के खुलेपन को देखकर डर भी लग रहा था। रेडियो की आवाज ही माहौल को संभालने का सहारा थी।
संजना ने फिर भी एक जोर लगाया- अब चलना चाहिए। घर में लोग चिंता कर रहे होंगे।
सुरेश ने उल्टे उसे बैठने का इशारा करते हुए कहा- कहाँ जाओगी इस भयानक गरमी में।
उसने रेडियो बीच में रखा और स्वयं मिट्टी के फर्श पर एक चादर बिछा कर बैठता हुआ बोला- तुम लोग ठीक से बैठ जाओ ना।
रेणु ने जाने का कुछ उत्साह नहीं दिखाया। वह सुरेश के थोड़ा और पास खिसकते हुए आराम से बैठ गई। संजना स्कर्ट को यथासंभव आगे खींचती हुई दोनों घुटने एक तरफ मोड़कर बैठी थी।
“तुम भी ठीक से बैठ जाओ।” सुरेश ने संजना को कहा।
“मैं ठीक हूँ।” वह पालथी नहीं मार सकती थी। जमीन पर बैठने के लिए स्कर्ट बुरी चीज है।
रेडियो पर उद्घोषिका की आवाज गूंज रही थीं… “प्यार जिंदगी है, प्यार नहीं तो कुछ भी नहीं। जिंदगी का स्वाद उसने जाना है जिसने प्यार किया है। जीता तो हर कोई है लेकिन एक खूबसूरत मुखड़ा, एक खूबसूरत मुहब्बत-भरा दिल पा लिया उसने समझो जीते-जी स्वर्ग का आनंद ले लिया।”
रेणु और सुरेश के तरुण हृदय धड़क रहे थे। प्यार-मुहब्बत की बातें, मन में किसी सुंदर साथी के साथ एकमएक होने की आकांक्षा… उद्घोषिका का सुंदर परिष्कृत उच्चारण स्वर… सुरेश और रेणु की नजरें मिलतीं और किसी मादक भाव से भरकर झुक जाती। संजना का ध्यान न चाहते हुए भी पानी पिलाने समय देखी सुरेश की बाँहों की मछलियों, उसके कंधों और गठीली छाती पर चला जा रहा था हालाँकि उसने बदन पर गमछा डाल रखा था। उसे रेणु से हल्की सी ईर्ष्या भी हुई। लेकिन इस बात से उसे खुद पर गुस्सा भी आया।
“आइये सुनते हैं प्यार भरे दिल का यह नटखट तराना। संगीत दिया है शंकर-जयकिशन ने और सुरों में ढाला है मुकेश, सुमन कल्याणपुर और शारदा ने… फिल्म पहचान…”
“तुम लोग ठीक से बैठ जाओ ना।” सुरेश ने फिर कहा।
संजना कुछ तनी हुई बैठी थी, उसने खुद को कुछ ढीला छोड़ते हुए आराम से बैठ गई।
“वो परी कहाँ से लाऊँ तेरी दुल्हन जिसे बनाऊँ…
कि गोरी कहीं पसंद न आए तुझको…
कि छोरी कोई पसंद न आए तुझको…”
सुरेश हँस पड़ा, “क्या गाना है!” गाने के बोल सुनकर संजना भी मुस्कुराए बिना नहीं रह सकी।
रेणु ने सुरेश और संजना की हँसी को नोटिस किया। संजना के लिए एक मुस्कान उसके होटों पर खेल गई। नादान कली…
“ये जो मेरी है सहेली, दिलवाली अलबेली
जैसे मोतिया चमेली, जैसे प्यार की हवेली…
सुरेश की नजर रेणु पर, रेणु की सुरेश पर और फिर दोनों की नजर संजना पर गई। संजना के गालों पर लाली दौड़ गई।
“अठरह साल की उमर, कोकाकोला सी कमर
रत्ती भर भी कसर, कहीं आए ना नजर
कुछ हुआ है असर?”
रेणु ने भी अंतिम पंक्ति दुहराई- बोलो, कुछ हुआ है असर?
सुरेश ने खेल को स्वीकार करते हुए इठलाते हुए सिर हिलाया, “ऊँहूँ!”
रेडियो में नायक ने जवाब दिया…
“गोल जूड़े में ये वेणी, और वेणी में ये टहनी
कैसे जूड़े से पेड़ उगाए
ये गंगाराम की समझ में न आए…”
रेणु ने संजना के ‘पोनी टेल’ में बंधे बालों को हाथ फेरकर हिला दिया। शरारत बड़ी स्पष्ट थी मगर संजना ने इसे जाने दिया।
गाने का कोरस चालू हो गया था
“वो परी कहाँ से लाऊँ…”
रेणु ने अपनी आवाज ऊँची करते हुए कहा- क्या जी गंगाराम, तुम तो कह रहे थे कि दोनों को एक साथ सम्हालूँगा, यहाँ तो तुम्हें लड़की पसंद ही नहीं है।
संजना टोकने लगी- ऐ, ये क्या कह रही हो?
मगर रेणु और सुरेश कहकहे लगा रहे थे। संजना की आवाज कहकहों और रेडियो के शोर में खो गई।
“इसने अगर जूड़ा बाँध लिया ना, तो उसमें ऐसे बंधोगे कि हिल नहीं पाओगे।” रेणु आज बेलगाम थी।
सुरेश को लग रहा था आज झोपड़ी में दो परियाँ उतर आई हैं।
गाने के अगले अंतरे में दूसरे नमूने की लड़की की पेशकश थी-
“आँखें जिसकी है बिल्ली, नाम उसका है लिल्ली
ऐसी कजरे की धार, जैसे तीखी तलवार!”
रेणु कुछ बोल न बैठे इसलिए संजना ने पहले ही उस पर आखें तरेरी।
देख होंठों का ये रंग, इसके चलने का ढंग
कटे अंगरेजी बाल, बाँधा रेशम का रूमाल
बोलो क्या है ख्याल?”
रेणु ने भी सवाल दुहरा दिया- बोलो, क्या है खयाल? क्या तुम्हें ऐसी लड़की चहिए?
सुरेश ने झूमते हुए कहा- नहीं, ये भी नहीं चलेगी।
गाने में नायक नापसंदगी का कारण बता रहा था-
“इसे जब लिया तक, मेरा दिल हुआ फक
छोरी हो के ये हजामत कराए
ये गंगाराम की समझ न आए…”
फिर गाने का कोरस-
वो परी कहाँ से लाऊँ, तेरी दुल्हन जिसे बनाऊँ,
कि गोरी कोई पसंद न आए तुझको, कि छोरी कोई पसंद न आए तुझको…
संजना को इच्छा हुई वह भी इस मजाकिये गाने में एक मजाक बना ले, इससे माहौल हल्का हो जाएगा, नहीं तो ये रेणु की बच्ची ले डूबेगी, बोली- गंगाराम को कोई लड़की पसंद नहीं। हमें चलना चाहिए?
सुरेश- ऐसी बात नहीं। मुझे दोनों लड़कियाँ पसंद हैं। मैं दोनों को…
“क्या! दोनों को?” रेणु और संजना के मुँह से एक साथ निकला; दोनों हँसने लगीं; रेणु ने और जोड़ दिया, “इतना दम है?”
सुरेश ने भी चाहा था मजाक करना, लेकिन अब यह अंतिम बात उसकी मर्दानगी पर चोट कर गई; उसने सीधी चुनौती दी- हाँ, मैं दोनों को एक साथ सम्हाल सकता हूँ; देखोगी?
हिंदी देहाती सेक्स कहानी जारी रहेगी.
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देसी कहानी का अगला भाग: खेत खलिहान में देसी छोरियों का यौवन का खेल-2
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