आकर्षण- 7

वृंदा 2009-07-12 Comments

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बीच बीच में वो मुझे प्रेम भरे चुम्बन देता… धीरे धीरे उसके धक्के तेज़ होने लगे … चूत में मुझे खिंचाव महसूस होने लगा… खुद ब खुद मैं उसके धक्कों से ताल से ताल मिला कर… उसका ज्यादा से ज्यादा लण्ड अपने भीतर लेने की कोशिश करने लगी… मेरी कोमल काया, उसके पसीने से भरे बलिष्ठ शरीर के नीचे दबी हुई कसमसा रही थी.. आनन्द अब अपनी चरम सीमा तक पहुँच रहा था..

एक झटके से जाने क्या हुआ मुझे अपनी दोनों जांघों के बीच कुछ गर्म-गर्म रिसता हुआ सा महसूस हुआ…

… मेरे मुँह से आनन्द भरी आहें निकलने लगी… बंद आँखें जब खुली तो वो मेरे ऊपर था और लम्बी लम्बी सांसें ले रहा था…

उसकी गर्म-गर्म सांसें मेरे पसीने से गीले बदन को ठंडक पहुँचा रहीं थी…

मैंने उसे उसकी गर्दन पर एक चुम्बन किया… और कुछ देर हम उसी तरह लेटे रहे…

कुछ देर बाद .. सामान्य अवस्था में आने पर वेदांत मुझ पर से हट कर मेरे साथ में लेट गया…

हम दोनों ने एक दूसरे को देखा और जोर जोर से हंसने लगे… यह सोचकर कि यह क्या हो गया.. एक चुम्बन ने क्या कर दिया… या फिर शायद यह यौवन ही था जिसने यह सब करा दिया…

मैं उसकी ओर थोड़ी टेढ़ी होकर लेट गई.. और उससे अपने प्यार का इजहार किया…

” वेदांत, एक बात कहूँ…?”

“फिर से करने का इरादा है क्या…?”

“नहीं वो… मतलब हाँ.. मेरा मतलब .. नहीं…” अचानक ही मुझे शब्दावली में शब्द कम होते महसूस हुए।

“क्या नहीं.. हाँ..”

मैंने आंखें बंद कर ली और कह डाला,”आई लव यू !”

और उसने बहुत ही सहजता से जवाब दिया,”मैं भी !”

और इस बार मैंने पहला कदम उठाया.. और उसे एक चुम्बन दिया.. मैं बहुत खुश थी.. कम से कम मैंने अपना सब उसे सौंपा, जिससे मैं प्रेम करती हूँ और जो मुझ से प्रेम करता है.. अब आगे कुछ भी हो.. मुझे किसी बात का डर नहीं था… मुझे किसी बात की परवाह नहीं थी.. उसे ही अपनी मंजिल मान चुकी थी मैं…

कुछ देर नग्न अवस्था में एक दूसरे की बाँहों में हमें वक़्त का पता ही नहीं चला.. सुबह के पांच बज गए थे.. मेरी माँ के उठने का समय हो गया था..

मैंने जल्द से जल्द उसे कपड़े पहन घर लौट जाने को कहा.. आखिर उसे और मुझे दोनों को ही इसी समाज में रहना था.. हमने भले ही सब कुछ प्रेम में किया हो… और भले ही यह सब हमारे निस्वार्थ प्रेम में गलत ना हो.. पर दुनिया इसको गलत ही मानती है.. शादी से पहले.. तो… हमारी मिसाल देकर कहीं लोग अपनी लड़कियों को पढ़ने भेजना बंद ना कर दें..

उसने भी फटाफट कपडे पहने और उसी तरह चप्पल हाथ में लिए वो चुपके से घर चला गया..

उसके जाने के बाद मुझे नींद ही नहीं आई… सोचते सोचते थकान के कारण कब आँख बंद हुई पता ही नहीं चला…

फिर सुबह आठ बजे का अलार्म बजा… आँख खुली तो सब कुछ ऐसा लगा जैसे कुछ हुआ ना हो.. जैसे एक सपना हो.. मैंने फोन उठा कर देखा.. उसमें कोई मैसेज नहीं था.. चादर भी सही सलामत थी.. खिड़की पर पर्दा डाला था…. जहाँ तक मुझे याद था रात को चादर पर काफी सिलवटें पड़ी थी.. थोड़ी गीली भी हुई थी… मेरे कपड़े भी वो नहीं थे जो मैंने रात को वेदांत के सामने पहने थे.. सब कुछ उल्टा पुल्टा था…रात में खिड़की खुली थी.. और अब पर्दा… सोच सोच के मेरा दिमाग फटने लगा था…

तभी माँ आई.. और तैयार होने के लिए मुझ पर चिल्लाने लगी..

“तुझे स्कूल नहीं जाना.. जा अब नहा भी ले.. पंडित बुलवाऊँ क्या..??”

मैं अपनी ही उधेड़बुन में खोई थी.. स्नानघर में जाकर जब कपड़े उतारे तो कोई दाग नहीं.. कोई निशाँ नहीं… सब कुछ रात से पहले जैसा ही था… बस कच्छी थोड़ी गीली थी.. तब समझ में आया..

कि रात को जो कुछ हुआ सिर्फ एक सपना था…

और उसी उत्तेजक स्वप्न के कारण ही मेरी कच्छी गीली थी…

नहाने के बाद खुद को शीशे में देख कर मैं अपने ही यौवन पर इतराने लगी.. कि शायद यह सपना कभी सच हो जाये… गीले बालों को अपने गीले बदन पर झटक कर कामोत्तेजना में अकारण ही मैं अपनी गोलाइयाँ छूने लगी…

मेरी तन्द्रा तो तब टूटी जब दरवाजे पर माँ जल्दी बाहर आने के लिए ख़टखटाने लगी..

“सो गई क्या अन्दर ही…? हे भगवान् क्या होगा इस आलस की मारी का..” बडबडाते हुए माँ चली गयीं तो में तौलिया लपेट कर बाहर आई.. और आज मैंने सोच लिया था कि आज में बाल खोल कर स्कूल जाऊँगी…

कपडे पहन तैयार होने के बाद जब खुद को मैं आईने में देखने लगी तो कुछ कमी लग रही थी.. आज मैंने पहली बार काजल लगाया .. फिर स्कर्ट को थोड़ा और ऊपर खींचा.. ताकि टांगें थोड़ी और दिखें और वेदांत का ध्यान मुझ पर जाये..!!! मोज़े पैर के टखनों तक गिरा दिए.. शर्ट के ऊपर के दो बटन खोल टी थोड़ी ढीली कर ली.. और बस तैयार स्कूल जाने को.. बस्ता उठाया.. माँ से लंच लिया.. और स्टैंड पर जा पहुँची..

वेदांत तब तक नहीं आया था.. मैं बस से ज्यादा वेदांत का इंतज़ार कर रही थी…

वो आया.. पर उसने मुझ पर कोई ध्यान ही नहीं दिया… उसने मुझे जन्मदिन की बधाई दी .. और देर से बधाई देने के लिए माफ़ी मांगी.. हम स्कूल पहुँच गए.. मेरा तीसरा पीरियड खाली था.. मैं उसकी क्लास में जा पहुंची और उसकी अध्यापिका के पास जाकर बोली- वेदांत को मिस मोनिका बुला रहीं हैं…!!!

वो मेरे साथ बाहर आया.. मैं उसका हाथ पकड़ हॉल की तरफ ले गई..!!!

“अरे कहाँ जा रही है…. मोनिका मैम ने बुलाया है ना..”

“किसी ने नहीं बुलाया .. तू चल तो..”

वहाँ पहुँचने के बाद उसने झटके से हाथ छुड़ा कर खीजते हुए कहा..” क्या चाहती है..?”

मैंने उदास सा चेहरा बना के कहा,”मैं तो बस तुमसे कुछ पूछना चाहती हूँ..”

“दूसरी तरफ मुख फेर के उसने कहा,”बोलो !”

” आज तुम्हें कुछ अलग नहीं लगा मुझमें..??, मुझे कल तुमने बधाई भी नहीं दी.. भूल गए क्या अपनी बचपन की दोस्त को..??”

“ये फालतू सवाल पूछने तुम मुझे यहाँ लाई हो…?.. और किस बचपन की दोस्ती का छलावा दे रही हो.. तुम तो वो वृंदा हो ही नहीं जो मेरी दोस्त थी..!!! और यह सब क्या तरीका है वृंदा..?”

“बताओ न आज तुम्हें मुझमें कुछ अलग नहीं लगा क्या..??”

” क्या नया..?? हाँ, यह तुम्हारे शर्ट से झांकती तुम्हारी छाती… तुम्हारी घुटने से ऊपर हुई स्कर्ट में दिखती तुम्हारी जांघें … या फिर तुम्हारे मौज़े .. क्या देखूँ..?”

“भड़क क्यों रहे हो..?”

“तुम दिखाना क्या चाहती हो मुझे.. अपना गोरा जिस्म..अपने स्तन .. या अपनी टांगें.. कपड़े खोलने इज्ज़त आती नहीं, जाती है…वृंदा !”

मेरा सर शर्म से झुक गया.. पर उसका बोलना जारी रहा..

“नहीं नहीं ! ऐसा करो.. पूरी शर्ट खोल लो.. और यह स्कर्ट पहनने की भी क्या जरूरत है उतार दो इसे भी…”

बस अब आँखों में आँसू आ चुके थे…पर वो बिना साँस लिए मुझ पर चिल्लाये जा रहा था…

“और क्या सोचती हो.. मैं तुम्हारी इन हरकतों को सराहूँ .. वो न कमीने चूतिये लोग होते हैं जो उतरती इज्जत पर खुश होते हैं.. तुझसे ऐसी उम्मीद नहीं रखता हूँ.. स्कूल में कितनी लडकियाँ है.. सब ऐसा करती है पर.. मुझे किसी और की कोई परवाह नहीं, तू मेरी दोस्त है.. तेरे से बचपन का प्रेम है.. इसीलिए तुझे कह रहा हूँ.. और आज के बाद मुझे यह सब दिखा तो मुझसे बात करने हिम्मत करने से पहले सौ बार सोच लियो… जिस दिन फिर कुछ ऐसा हुआ मेरी दोस्ती हमेशा के लिए खो देगी तू… और मुझे भी…”

मैं उसी समय कहना चाहती थी कि मैं तुमसे प्यार करती हूँ.. पर शायद वो समय सही नहीं था…

“अब रो क्यों रही है.. टोयलेट जा और ठीक कर खुद को..” उसने मुझे प्यार से गले लगाया सर पर हाथ फिराया.. “चल बस अब चुप हो जा.. समझा कर यार ! अब तू बड़ी हो गई है और मैं भी.. तुझे पता है वो रश्मि ने क्या किया एक दिन.. गेम्स के पीरियड में मुझे क्लास में ले जाकर अपनी शर्ट मेरे सामने उतार कर बोली कि मैं तुमसे प्यार करती हूँ….!!!

मुझे तो समझ नहीं आता.. युवाओं का कैसा प्यार है यह… यूँ तो प्यार नजरों से शुरू हो दिल में उतरता है.. पर आजकल तो प्यार को सिर्फ जिस्मानी मिलन का रूप दे दिया है…

उसकी रश्मि वाली बात सुन कर मुझे उसकी कोई बात सुनाई नहीं दे रही थी … मन ही मन मैं रश्मि को कोस रही थी.. उसके कारण आज मेरा इज़हार फिर अधूरा रह गया… उसकी वासना की वजह से मेरे निस्वार्थ प्रेम की बलि चढ़ रही थी… और मैं कुछ नहीं कर पा रही थी… पर मन ही मन रश्मि को सबक सिखाने का फैसला ले चुकी थी.. पर फिलहाल के लिए उसका उफनता गुस्सा देख मैं बाथरूम जाकर खुद को ठीक कर आई… तब तक वो भी अपनी क्लास में जा बैठा …

पर अब मन में सोच लिया था कि.. दोस्ती को दोस्ती तक रखूँ तो ही अच्छा.. ऐसा न हो कि प्रेम की राहों में मैं अपने सबसे प्यारे दोस्त को भी न खो दूँ… साथ ही साथ मेरे मन में एक और बात थी जिसका जवाब मुझे ढूंढे नहीं मिल रहा था… वो था उसका उसकी उम्र में इतनी बड़ी सोच रखना.. और किसी भी लड़की से आकर्षित न होना… एक लड़की जो उसके सामने अपने कपड़े तक उतारने को तैयार थी.. उसने उसे क्या कहा होगा.. या फिर क्या कुछ किया होगा..?? मैं अजीब से प्रश्नों में फंसती चली जा रही थी.. पर उत्तर नहीं मिल रहे थे …क्या वो जैसा मुझे दिख रहा था वैसा ही था… या फिर वो सर्फ मेरे साथ ही ऐसा था.. ?? जिस तरह मुझे उम्र के इस पड़ाव पर उससे आकर्षण हुआ .. क्या उसे नहीं हुआ होगा.. भले मुझसे नहीं किसी और से सही… जब रश्मि ने उसके सामने अपना वक्ष- प्रदर्शन किया क्या उसका मन नहीं किया उन्हें छूने का .. पकड़ने का, दबाने का.. या चाटने का काटने का.. ??

यह कैसा यौवन है उसका.. ??? कहीं ऐसा तो नहीं कि शायद उसे लड़कियाँ पसंद ही ना हों..!!!

खैर सवाल चाहे जो भी थे… पर मैं उससे कभी अपने मन की बात नहीं कह सकी.. बाद में उसे साइकिल मिल गई और मैं तब भी बस से ही स्कूल जाती थी.. धीरे धीरे हम दोनों के बीच की नजदीकियाँ दूरियों में बदल गई.. शाम को मिलने का समय… ट्यूशन में बदल गया.. पर एक बात अच्छी हुई.. उसने भी स्नातिकी दे लिए विज्ञान शाखा ली और मैंने भी..

हम दोनों साथ में एक ही कक्षा में पढ़ते जरूर थे.. पर कभी भी ऐसा नहीं हुआ कि उसकी तरफ से मुझे लगा हो कि यह दोस्ती से कुछ बढ़कर है… जो भी था केवल एक तरफा था.. पर मुझे इस बात का कभी दुःख नहीं था न ही है कि ..उसने कभी मुझे प्रेम नहीं किया.. भगवान् ने मुझे उसकी दोस्ती से नवाज़ा … मैं इतने में ही खुश थी… सुखी थी…

बाद में उसे एक लड़की पसंद भी आई थी.. उसने मुझसे उसकी बात भी की.. और पहली बार तब मुझे लगा कि उसके अंतर्मन में भी भावनाएँ हैं जिन्हें प्रेम कहते हैं…

हालाँकि उसकी पसंद कुछ ख़ास तो नहीं थी.. पर जरूर उसमें कोई बात तो थी.. जो वेदांत ने उसे पसंद किया था.. मैंने जी जान से कोशिश की, कि वेदांत के मन की बात उस लड़की को कह सकूँ.. पर शायद भगवान् को यही मंज़ूर था.. जिस तरह पहले उसने मेरा दिल तोड़ा था उसका भी टूटा… उस लड़की ने उसे साफ़ साफ़ कह दिया कि इस उम्र में भले ही एक आकर्षण मात्र.. प्यार सी अनुभूति देता है.. पर प्यार नहीं होता.. प्रेम एक दैविक शक्ति है… और इस शक्ति से ही इस जीवन ओर सरे विश्व का निर्माण हुआ है…

उसकी जलेबी सी बातें सुनकर एक बार तो मेरा भी सर घूम गया था…एक बार तो मुझे भी लगा कि कोई साध्वी टकर गई..

पर कुछ भी हो प्रेम नाम का शब्द उसकी शब्दावली में नहीं था.. ऐसे में वेदांत का दिल टूट गया.. पर आखिरकार वेदांत के पास एक कन्धा तो था जिस पर सर रख वो अपने दुःख बाँट सकता था … वो थी मैं.. पर मेरे समय में तो मेरे पास कोई नहीं था… जिससे मैं अपने मन की बात कह सकूँ.. दिल का हाल बाँट सकूँ..

फ़िर वो अमरीका चला गया और मैं यहीं रह गई.. हम दोनों आज भी संपर्क में हैं.. पर दोस्तों की तरह..

मैंने वेदांत के लिए अपने प्रेम को मन के सौ तालों के भीतर बंद कर दिया है.. हम आज भी सुख दुःख बाँटते हैं.. कंप्यूटर पर आमने सामने बैठ बातें करते हैं.. वो अब वहाँ पीने लगा है…शायद दो चार अन्ग्रेज़नों के साथ हमबिस्तर भी हो चुका है पर मैं आज भी उसे चाहती हूँ.. पर उसकी चाहत की इच्छा रखना गलत होगा… उसके बाहर जाने से पहले हमारे बीच कुछ हुआ जरूर था पर वो इतना नहीं था कि जिसे प्रेम का नाम दिया जाये.. वो कहानी फिर कभी…

पहले मेरे स्वप्न केवल वेदान्त तक ही सीमित थे.. पर धीरे धीरे ये बदलते बदलते कल्पनाओं से परे हो गए.. आपको आगे भी अपने सपनों से अवगत कराती रहूँगी..

आपकी प्रतिक्रियाओं का इंतज़ार रहेगा..

वृंदा

[email protected]

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