पुष्पा का पुष्प-3

(Pushpa Ka Pushp-3)

लीलाधर 2009-10-10 Comments

This story is part of a series:

बाहर कल की तरह सन्नाटा था, रात अधिक हो रही थी, नींद आज भी नहीं आ रही थी। यद्यपि आज किसी का इंतजार नहीं था। खिड़की से आती हवा में हल्की ठण्ड का एहसास हुआ लेकिन गुलाबों की आती खुशबू अच्छी लग रही थी। घड़ी में देखा- ग्यारह बज रहे थे…

किवाड़ के कब्जों की बहुत धीमी चरमराहट से मैं चौंका।

“कौन है?” मन में प्रश्न उठा और मैं तुरंत आवेग में आकर उठने को हुआ।

मगर भीतर उठे किसी खयाल ने मुझे रोक दिया। कहीं वो तो नहीं !

मगर वो कैसे हो सकती है ? उठूँ या न उठूँ की दुविधा में वैसे ही पड़ा रहा।

अंधेरे में कुछ दिख नहीं रहा था।

परफ्यूम की हल्की सी महक पास आई। मेरे दिल की धड़कन बढ़ने लगी।

वही है ! मेरी लहकती कामनाओं की मूर्ति !

मगर इस हालत में किसलिए आई है?

“सो गए?” फुसफुसाहट की आवाज आई।

मैं वैसे ही स्थिर रहा। कुछ देर चुप्पी रही।

मेरे होठों पर कुछ ठंडा, धातु का टकराया। उसके कान का टॉप्स। वह कान नजदीक लाकर मेरी सांसें सुनने की कोशिश कर रही थी।
मैं खुद को रोके रहा।

“जानती हूँ, नाटक कर रहे हो।” वह बुदबुदाई।

अब रुक पाना मुश्किल था। मैंने हाथ बढ़ाकर उसे अपने ऊपर खींच लिया। वह फूलों से लदी डाली की तरह मेरे ऊपर गिर पड़ी।

मैंने उसे बाँहों में समेटते हुए चूम लिया। वह छूटने की कोशिश करने लगी। उसे छोड़ते हुए मेरे मन में सवाल कुलबुला रहा था आज तो मासिक में है, फिर कैसे आई? पूछना चाहा।

‘आज क्यों आई’ मगर मुँह से निकला,”कल क्यों नहीं आई?”

वह कुछ नहीं बोली।

एक लड़की से कल क्यों नहीं आई का कारण बताने की उम्मीद करना बेमानी था।

“मैंने तो समझा था कि तुम शायद…..”

“क्या?” उसकी बेहद सकुचाती फुसफुसाहट भी कमरे में रात की नीरवता में साफ सुनाई दी।

चलो बोली तो। डर रहा था कहीं चुप न रह जाए।

होंठों पर शब्द लाने में बेहद हिचक हो रही थी। फिर भी थोड़ा जी कड़ा करके कहा,”वो क्या कहते हैं पीरियड वगैरह….?”

अंधेरे में उसकी हल्की हँसी कानों में गूंजी।

हँसी क्यों? मुझे शंका हुई, कहीं मैं गलत तो नहीं था?

“तो क्या तुम…?”

“………….”

उसके चुप रहने से मैं और परेशान हो गया।

“बोलो ना पुष्पा…..?”

“मुझसे ज्यादा तेज बनने की कोशिश करोगे तो यही होगा।”

“तो तुम मुझे छका रही थी?” मेरे मुँह से बेसाख्ता निकला।

मुझे फिर उसकी हँसी सुनाई दी।

“तुमने मुझे बेवकूफ बनाया ! अब देखो मैं तुम्हारा क्या हाल करता हूँ।” मैंने उसे बिना कुछ सोचने का मौका दिए एक जोर का झटका दिया। वह बेसाख्ता मेरे ऊपर आ गिरी। न जाने कैसे अंधेरे में मेरे होंठ सीधे उसके होठों से जा लगे और मैं उसे जोर से चूमने लगा।

वह साँस की कमी से अकुलाने लगी।

मैंने उसके दोनों हाथों को उसकी पीठ के पीछे लाकर एक हाथ में कस लिया और एक क्षण के लिए साँस लेने का मौका देकर दूसरे हाथ से पीछे से उसका सिर अपने मुँह पर दबा लिया।

वह तीर लगी चिड़िया की तरह छटपटाने लगी, लेकिन उसके हाथ पीछे जकड़े हुए थे और वह बेबस थी।

मैं बेतहाशा उसके मुँह पर मुँह दबाए चूस रहा था। उसके कोमल होंठ मेरे होंठों के दबाव के नीचे पिसे जा रहे थे और मुझे डर लग रहा था कहीं छिल न जाएँ। हर ‘पुच’ की आवाज के साथ उसके मुँह का रस मेरे मुँह में चला आता और मैं उसकी सुगंधित मिठास में खो जाता। मैं अब सचमुच उसे पी ही रहा था और वह उम.. उम.. कर रही थी।

धीरे धीरे उसकी छटपटाहट शांत पड़ने लगी।

जब हमारे होंठ अलग हुए तो दोनों हाँफ रहे थे। मेरे सीने पर दबे उसके स्तन ऊपर नीचे हो रहे थे। चिकनी साटिन नाइटी के भीतर उसका बदन धड़क रहा था।

कहीं मैं सपना तो नहीं देख रहा ! उसकी पीठ के पीछे बंधे अपने एक हाथ में चिकोटी काटी। चुभन महसूस हुई।

नहीं, यह सपना नहीं है। होटों पर टंगी उसके चुम्बन की गरमाहट, साँसों में आती उसकी साँसों की सुगंध और मेरे चेहरे पर गिरते उसके बालों की रेशमी सरसराहट ने मुझे उन स्वर्गिक क्षणों के वास्तविक होने का यकीन दिला दिया।

मैंने धीरे धीरे उसे एक करवट की तरफ लिटा लिया। वह हाँफ रही थी।

किवाड़ बंद करते हुए एक ठंडी हवा का झोंका जैसे कोई होश दिला गया। चारों तरफ चुप सूना संसार। गहरी रात। नीचे उसके माँ बाप गहरी नींद में सो रहे होंगे। यहाँ बिस्तर पर उनकी बेटी। यौवन की उमड़ती धारा, उत्तेजित, गर्म सांसें छोड़ती, कुछ कर चुकने को आतुर। चुप्पी को बढ़ाती पेड़ों की सरसराहट, गुलाबों की खुशबू और हवा का मध्धम झोंका।

खिड़की खुली थी। कोई बात नहीं। गहरी रात के सुरक्षित अंधेरे में दुमंजिले पर कमरे में किसी के देखने का डर नहीं था।

बिस्तर पर वह मुश्किल से छाया-सी नजर आ रही थी। पास आकर मैंने टटोला। वह सिमट गई।

“पुष्पा …ऽ…ऽ….!” मैंने प्यार से बुलाया।

उसकी तेज साँसें गूंज रही थीं। मैं उसके बगल में लेट गया। स्त्री के शरीर का मुलायम गुदगुदा एहसास। उसे अपने में कसते हुए मैं घमंड से भर गया। वह मेरी थी। मेरी बाँहों के घेरे में, मेरी कैद में। उसकी गर्म सांसें मेरे कंधे पर, छाती पर जल रही थी। मैं खोजते हुए ही उसे चूम रहा था- गालों को, होंठों को, उनके गीले किनारों को, अधर के नीचे… ठुड्डी, जबड़े की लकीर, गले की बगल, जूडें के भीतर की मुलायम सोंधी त्वचा।

मैंने बालों की सोंधी जड़ों में नथुने घुसाकर साँस भरी। वह मेरे कंधे पर कुछ चूम कुछ मुँह रगड़ रही थी।

उसकी पीठ पर घूमते मेरे हाथ नाइटी के नीचे ब्रा के फीते से टकराए। उसे मैंने उंगलियों से कुरेदा। नितम्बों पर तिरछे काटती पैंटी के किनारों की लाइन थी। कॉलेज में टाइट जींस में आती थी तो उन पर नीचे से अंग्रेजी के वी की तरह निकलती पैंटीलाइन उभरती थी। मुझे अंधेरे का अफसोस हुआ। अभी उन्हें असल में देखता।

मैंने उन नितम्बों को हथेलियों में भरकर सहलाया और फिर उसके बदन को अपने में भींच लिया। वह कसमसा उठी। एक हुंकार सी उसके मुँह से निकल गई।

मैं उत्साह से भर गया- हाँ ! यह बात है। उसकी पीठ पर नाइटी को हाथों में बटोरते हुए मैंने उसे चित्त कर दिया और सामने से नाइटी को ऊपर खींचा। उसने नितम्ब उठाकर नीचे से नाइटी निकालने में सहयोग किया। मैंने उसकी गर्दन के नीचे हाथ डालकर उसे बिठाया और नाइटी को सिर के ऊपर खींच लिया।

अब छिलकों की तरह सिर्फ ब्रा और पैंटी ही उसके बदन पर बच रही थी। मैंने अपनी बनियान उतार दी।

उस अंधेरे में भी वह मेरी निगाह से बचने के लिए मुझमें जकड़ गई और अपनी कोमल बाँहो में मुझे कस लिया।

शायद यह उसके लिए पहला मौका था। पता नहीं…..? मुझे याद आया मैंने पूछा नहीं था कि वह अछूती है या नहीं। हो सकता है शर्म के बावजूद अपने बोल्ड स्वभाव के कारण ही पहली बार में इतना सहयोग कर रही हो। ऋचा, मेरी पहली लड़की, जब मैंने उसके साथ संसर्ग किया था तो वह तो निष्क्रिय ही रही थी। उसे बहुत खून भी निकला था। वह रो रही थी। यह दूसरी ही लड़की है, सहयोग कर रही है। सचमुच की साथी। अपनी जिन्दगी भर की साथी हो जाए तो क्या बात है।

मेरे हाथ उसकी पीठ पर ब्रा के हुक से संघर्ष कर रहे थे, जो खुल नहीं रहा था। मुझे लगा वह मुझ पर हँसी है। वह अपने हाथ पीछे ले जाकर हुक खोलने को हुई मगर मैंने अधीर होकर दोनों तरफ फीते को पकड़कर झटक दिया। हुक टूट गया।

वह सिहर गई,”बड़े बेकरार हो रहे हो !”

मुझे खुशी हुई। अभी मर्द की ताकत को उसने देखा कहाँ है।उसने सिमट कर स्तनों को बाँहों के नीचे दबा लिया। उसकी साफ हो गई पीठ पर मैंने हाथ फिराए और कंधों पर से फीते को सरकाते हुए झुककर गर्दन को बगल से चूम लिया। वह बाँहों में स्तनों को छिपाए सिमटी हुई झुकी थी। मैंने एक तरफ से उसकी कुहनी उठाकर ब्रा के फंदे को कलाई तक खिसकाने की कोशिश की।

उसने हिचकते-हिचकते ही अपना वह हाथ स्तन पर से उठाया और मुझे ब्रा का फंदा बाहर निकालने दिया। उसे प्यार से सहलाते हुए मैंने ब्रा को धीरे धीरे खींचते हुए उसके दूसरे हाथ से भी बाहर निकाल दिया।

अब उसके स्तन आजाद थे। मैंने धीरे धीरे उसे लिटा दिया।

“जागते रहो…..” दूर से आई आवाज ने हम दोनों को चौंका दिया।

उसका हाथ मेरी पीठ पर ठहर गया। गाँव में पहरा पड़ रहा था। मैंने अंधेरे में ही एक बार आँखें खोलकर देखा। कोई डर की बात तो नहीं ! जागते रहो का आमंत्रण, किसके लिए? आज जागने का जश्न तो हम मना रहे थे। उसके माँ बाप को तो खबर भी नहीं। वे निश्चिंत सो रहे हैं। पहरे की आवाज से कहीं वे जाग गए, उन्हें पता चल गया तो? डर की एक लहर दौड़ गई। नीचे देखा, पुष्पा भी निश्चल थी। शायद वह भी यही सोच रही थी।

मैंने उसे अपने से सटाकर ढांढस देने की कोशिश की। डरो नहीं, कुछ नहीं होगा……. मैंने उसके गले के नीचे अपना गाल रख दिया, खुद भी आश्वस्ति की तलाश में। उभार के ऊपरी हिस्से के नीचे उसका दिल जोर जोर धड़क रहा था। मैंने मुँह उठाकर उसकी ठुड्डी को चूमा और दाएँ स्तन को हाथ से ढक लिया। चुचूक की नोक खड़ी थी। मैंने उसे हथेली में दबाकर स्तन को हौले हौले मसला। उसकी नोक गुदगुदी कर रही थी। मेरे कान के पास उसकी हल्की कराह गूंजी।

मुँह उठाकर मैंने उसके गर्म साँस निकालते होठों पर सीधी मुहर लगाई और चूमते हुए नीचे उतरने लगा। कोमल मांस के नीचे कठोर ठुड्डी, ठुड्डी से नीचे उतरकर त्वचा का कोमल पर्दा, कंठ पर मेरे होठों के नीचे उसके गटकने की मीठी हरकत।

आऽह… आऽह की धीमी कराहटें… गला, कॉलर बोन। नीचे… और थोड़ा नीचे…. उभारों की मांसलता की शुरुआत….गुदगुदे मांस पर धँसते होंठ… पसली के नीचे दिल की फक फक …. उसकी तेज होती साँसों की गूंज… होंटों के किनारे पर रबर-सी लचीली स्तन की कली की छुअन…. उत्कण्ठा में उसकी अटक गई सांस … अब … अब …

और मैं उसे छकाता हुआ चूचुक के बगल से गुजरकर नीचे की सतह पर आ गया। उसकी ठहरी साँस निकली मगर कुंठित होकर उसने मेरी पीठ पर नाखून गड़ा दिए। टीस में मैंने उसके हाथ के नीचे दबे स्तनाग्र को चुटकी में पकड़कर दबा दिया।

ओह … उसके मुँह से निकला। छटपटाकर उसने मेरे हाथ को वहाँ से खींच दिया। मैंने उसे संभलने का मौका दिए बिना दूसरे स्तन में दांत गड़ा दिए। सी…ऽऽऽऽ… वह सिसकारी भर उठी।

इस खेल में अब वह गर्म हो रही थी। उसने मेरा सिर खींचकर चूची के ऊपर मुँह लगाने की कोशिश की और मैंने कृपा करते हुए उसकी इच्छा का पालन किया।

“हाँ…” उसके मुँह से निकला। चैन के एहसास के साथ उसने मेरा सिर अपने स्तन पर दबा लिया और मेरे सिर पर हाथ फिराने लगी।

मैं उसे बच्चे की तरह चूसने लगा। एक गर्माहट और सांत्वना का अजब एहसास मुझमें जागने लगा। स्तनों की तृप्तिदायी गंध में घिरकर मुझे अपने भीतर कुछ हल्का महसूस होने लगा। इतनी देर से मानो किसी घमंड, किसी बदले की भावना, कुछ दिखाने के भाव से संचालित था, अब उसका स्थान किसी निस्वार्थ अपनेपन, किसी कृतज्ञता ने ले लिया।

वह मेरे सिर पर हाथ फेर रही थी और मैं किसी अनजानी क्षुधा को चूचुक को खींच खींचकर चूसकर शांत कर रहा था।

कुछ पलों में उसने मेरा मुँह वहाँ से हँटा दिया और मैं स्वचालित दूसरे स्तन पर लग गया। कभी अग्र भाग को होठों से दबा देता और कभी उसे मुँह के भीतर लिए लिए उसकी नोक पर जीभ की खुरदरी नोक से गुदगुदी करता।

उसके मुँह से निकलती सिसकारियाँ, आनंद में डूबी हँसी… सिर पर घूमता हाथ मुझे उत्साहित कर रहे थे और बता रहे थे कि मैं ठीक जा रहा था। मुझे अपने पुरुष होने पर गर्व हुआ। मैं उसे संचालित कर रहा था। वह चाहे लाख अकड़ वाली लड़की हो, इस वक्त वह नन्नावस्था में मुझसे अपने स्तन चुसवा रही थी, मेरी हरकतों पर कठपुतली-सी नाच रही थी। मैं उसे चलाए गंतव्य की ओर बढ़ा जा रहा था।

गंतव्य?….. मुझे याद आया… ‘पुष्पा का पुष्प’।

मैंने दाएँ स्तन पर से हाथ हटाकर नीचे टटोला। उसकी पैंटी गीली हो रही थी। उंगलियों पर उसकी गर्म चिपचिपाहट महसूस हुई।

उत्सुकतावश ही उंगली को नाक के पास लाया। एक अजीब सी गंध… न अच्छी … न बुरी … बस एक बुलावे से भरी, कोई पुरानी याद दिलाती-सी…।

मैं उसकी ओर किसी जानवर सा खिंचने लगा। पेट पर चुंबन अंकित करता, पेड़ू की ओर बढ़ता..

वह मेरा सिर रोकने लगी… ना… नहीं….. उधर नहीं…..

मगर मैं सुन कहाँ रहा था…! पेड़ू का उभार, खुरदरे बालों की शुरुआत, पैंटी की इलास्टिक, पतले कपड़े के नीचे शिकार खोजते-से नथुने। मैं मानने वाला नहीं। होंठों पर झीने कपड़े के नीचे बालों की रेशमी सरसराहट महसूस होती है…. नशीली गंध का सैलाब ……। इत्र की खुशबू मिली, शायद पैंटी पर स्प्रे की थी, चुम्बनों का प्रहार।

रुको… रुको… वह रोक रही है, हाथ घुसाकर वस्तिस्थल को ढकने की कोशिश करती है मगर मैं उसके हाथों को दोनों तरफ खींचकर पकड़ लेता हूँ।

पुष्पा का पुष्प। पैंटी के नीचे ढका हुआ …. सुरक्षित, कोमल, सुगंधित, रसभरा … नथुने फुलाकर उसे जोर से सूंघता हूँ…. फिर बस धीरे से होठों से छूता हूँ।

दो हिस्सों में फटी मांसल स्पंज, जिसके बीच की फाँक को मैं कंधों से उसकी जांघों को फैलाकर चौड़ा करता हूँ, दोनों फूले होंठ, होठों के बीच झिल्ली-सा तना कपड़ा, जिस पर मैं मुँह गड़ा देता हूँ। भीतर से छनकर उसका रस आता है… स्वादहीन सा… तीखा… जीभ नहीं, किसी और इंद्रिय पर बरसता… भीतर सोए जानवर की प्यास बढ़ाता।

उफ्फ… उफ्फ… क्या कर रहे हो….!

उसकी लगभग डाँटती-सी आवाज की अनसुनी करते हुए मैं अपना हमला जारी रखता हूँ। उसका विरोध व्यर्थ है। लगातार उठती आनंद की लहरों के आगे वह कुछ नहीं कर पाएगी। वह वहाँ से मुझे हटाना चाहकर भी नहीं हटा रही है। उसके हाथ हालाँकि मैंने अभी भी पकड़ रखे हैं मगर अब उनमें छुड़ाने की कोशिश नहीं है। मैं साँस लेने के लिए ऊपर आता हूँ। भीगे मुँह पर पर ठंडी हवा महसूस होती है। उसका मधु, मेरे मुँह पर पुता हुआ। एक कुआँरी, कोमल, अछूती, बेहद सुंदर, सलीकेदार कन्या का इससे बढ़कर उपहार क्या हो सकता है !

एक खुशी की लहर मेरे अंदर उठती है। पुन: गोता लगाता हूँ। वह नहीं रोकती। अब मैं उसके हाथ छोड़कर स्तनों पर जाता हूँ। चूचियाँ उसी तरह खड़ी हैं। हथेलियों से उन्हें धीरे धीरे मसलते हुए योनि के तिकोन के आजू बाजू नंगी जांघों को चूमता हूँ।

उसकी सांसें गूंज रही हैं। उसके हाथ मेरे सिर पर आकर स्थिर हो जाते हैं, शायद अभी भी रोकने की दुविधा में हैं। मगर चूचुकों और चूत से लगातार आ रहा करेंट उन्हें ज्यादा देर स्थिर नहीं रहने देते। वे धीरे धीरे मेरे सिर पर घूमने लगते है, एक भरोसे में। आओ, तुम मेरे अपने हो, बेहद अपने और अंतरंग, भीतरी से भीतरी रहस्य के राजदार।

वह हल्के हल्के कमर उचकाकर इसकी स्वीकृति दे रही है। जांघें फैलाकर मुझे पहुँच दे रही है।

कुछ क्षणों पहले हाथ भी नहीं लगाने दे रही थी। अभी मस्ती में सराबोर है। मैं और उत्साहित होकर थूथन घुसा घुसाकर उसके गड्ढे को कुरेदता हूँ। उसके मुँह से कुछ अटपटी ऍं ऑं की सी आवाजें आ रही है। साथी अगर स्वरयुक्त हो तो क्या बात है ! उसकी कमर की हरकत बढ़ती जा रही है।

अब अगला कदम ! मैं अपने हाथों को स्तनों पर से हटाकर कमर के दोनों तरफ लाता हूँ और…

कहानी जारी रहेगी।
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