मेरा फ़र्ज़, उसका फ़र्ज़
(Mera Farz Uska Farz)
बेंगलौर स्थित महात्मा गांधी रोड हर किसी की जुबां पर रहता है। किसी खास कारणवश, यह तो पता नहीं। पर आज एक अजीब घटना घटी। मैं महात्मा गांधी रोड स्थित ब्रिगेड रोड के कोने पर खड़ा था, कुछ देर के लिए, शायद, निर्माणाधीन हमारा मेट्रो या मेट्रो रेल देखने के लिए।
पर उसी समय उधर कहीं से इशारा हुआ, होगी कोई तकरीबन 25 वर्षीया यौवना, उसमें ना कोई शर्म ना कोई हया!
उस सांवली सी बाला की चाल में नजाकत थी, नफासत थी, कातिलाना नयन, काले नयनों पर लटकतीं जुल्फें, बोली मिशरी के माफिक थी, उसके दाएं गाल पर होंठों से कुछ दूर काला तिल था, नाक में साधारण सी बाली पहने थी।
मैं समझ नहीं पाया कि आखिर माजरा क्या है?
पर वो ना मानी, फिर इशारा किया।
इस बार मुझे लगा कि यह इशारा किसी दूसरे की ओर किया गया है तो थोड़ा आराम महसूस हुआ।
मेरी नजर फिर मेट्रो कॉरीडोर पर जा टिकी।
इतनी देर में मेरे पास कोई आकर खड़ा हो गया पर मैंने उसे नजरअंदाज कर दिया।
फिर एक आवाज आई- बाबूजी!
मैं घबरा गया, वो खूबसूरत बाला मेरे बिल्कुल पास खड़ी थी।
तो मैं वहाँ से आगे चलने लगा, उसने मेरा हाथ पकड़ लिया।
मरता क्या ना करता, एक झटका देकर अपना हाथ छुड़ा लिया।
पर वो कहती- बाबूजी, आप कोई रोज-रोज थोड़ी ना आते हो।
इतने में मैं समझ गया कि मैं भूलवश किसी अघोषित रेड लाइट एरिया में खड़ा हूँ।
कहती- बाबूजी, बताओ कहाँ चलना है, वहीं चल चलूंगी। पर कितना देंगे? 500 से एक रुपए कम ना लूँगी।
एक ख्याल आया।
क्यों ना इसे कहीं ले जाया जाए, इससे कुछ बातचीत की जाए।
आखिर बतौर पत्रकार किसी से भी बात की जा सकती है। इसमें किसी का डर थोड़े ही है।
उससे बतियाने की बात कहता तो शायद वो ना मानती।
पर मैंने उसे कहा- पैदल चलना है या ऑटो में?
“बाबूजी जैसा आप चाहें, पर मेरी खोटी मत करो, जो करना है जल्द करो।”
पर मुझे पैदल जाना अधिक सुखद लग रहा था इसलिए उससे कहा- चलो, ऐसे ही चलते हैं।
कुछ दूर निकले ही थे, तभी सामने एक कॉफी हाउस आया, मैंने उससे पूछा- कॉफी पीनी है?
उसने कहा- क्यों नहीं।
कॉफी का ऑर्डर दिया, उससे बातचीत करने लगा, उससे पूछा- मुझसे डर तो नहीं लग रहा?
उसने कहा- डर काहे का? फिर आप तो कोई भलेमानुष लगते हो जो हमें यहां कॉफी पिलाने ले आए।
मेरे दिल में उसे जानने की जिज्ञासा बढ़ती जा रही थी, कई सवाल जहन में कौंध रहे थे.
इतने में ही उसने पूछ लिया- क्यों बाबूजी, आप हमसे कुछ पूछना चाहते हो?
पर मैंने सिर हिलाकर मना कर दिया।
इतने में कॉफी आ गई।
धीरे से मैंने एक सवाल दागा- तुम ऐसा काम क्यों करती हो?
पर उधर से कोई जवाब ना आया, लगा उसने मेरी बात पर गौर नहीं किया।
कॉफी खत्म हुई, मैंने बिल चुकाया और वहाँ से निकल गए।
पर जिज्ञासा कम ना हुई थी मेरी, भीतर का एक लेखक भी शांत होने वाला कहां था? वो जाना चाहती थी, कहा, अच्छा चलती हूँ।
‘इतनी जल्दी?’ मैंने कहा।
‘क्या करूँ बाबूजी, वक्त नहीं है मेरे पास! धंधा जो करना है, कोई ग्राहक आया होगा। ढूंढ़ रहा होगा।’
लगा रहा था कि वह इस धंधे में नई है।
‘मुझे अभी इस गलियारे में आए हुए यही कोई आठ महीने हुए हैं।’
‘पर तुम्हारे हावभाव से तो लगता है, जैसे तुम्हारी पैदाइश यहीं हुई है?’
‘बाबूजी, कौन यहाँ आना चाहता है! पर सबकी अपनी अपनी मजबूरियाँ हैं।’
‘तुम जैसे लोग यहाँ आने के बाद इसे मजबूरी का नाम दे ही देते हैं।’
फिर वो मुँह बनाने लगी, कहा- हम जरूर बैठते हैं, कोई चोरी डकैती नहीं करते। जिस्म बेचते हैं, तब कहीं जाकर पैसा मिलता है। यहाँ फोकट में कोई काम नहीं होता है। पर तुम मनहूस ना जाने कहाँ से टपक पड़े। सुबह से कोई बोणी भी नहीं हुई। ऊपर से तुमने मेरे वक्त की खोटी कर दी।
पर मैंने उसकी बात का तनिक भी बुरा नहीं माना, बस कुछ देर चुप रहा।
उसका गुस्सा शांत हो गया था।
फिर मैं बोला- घर में कौन-कौन है?
‘दो छोटी बहनें हैं, एक छोटा भाई है। दोनों बहनें कॉलेज जाती हैं, भाई स्कूल में है। घर में सबसे बड़ी होने का फर्ज निभा रही हूँ।’
‘पर यह फर्ज तो कोई और काम करके भी निभाया जा सकता है?’ मैंने कहा।
उसने निराश होकर जवाब दिया- हाँ निभाया जा सकता था। लेकिन ऐसा हो ना सका।
मुझे पढऩे का बहुत शौक था। मैं बारहवीं में थी, तभी बाबूजी परलोक सिधार गए। घर की सारी जिम्मेदारियाँ मुझ पर आ गई। पढ़ाई जाती रही।
मैंने सोचा घर खर्च के लिए कोई छोटी-मोटी नौकरी कर लूँ। नौकरी मिल भी गई थी एक ज्वैलरी शो-रूम में।
उसी दौरान मां की तबीयत खराब हो गईं। जांच कराई तो कैंसर बताया। बहुत खर्चा आना था। मुझे कोई रास्ता नहीं सूझ रहा था।
जहां नौकरी करती थी, वहाँ के सेठ ने हाँ तो कर ली पर हमबिस्तर होने को कहा। मैंने मना कर दिया और उसने मदद करने से इनकार कर दिया।
मां की हालत नाजुक थीं, जो मुझसे नहीं देखी जा रही था। इस अंधियारी दुनिया में मुझे कुछ नहीं सूझ रहा था। अब एक ही रास्ता मेरे पास बचा था कि मैं अपनी आबरू उस जालिम सेठ के हवाले कर दूँ।
संध्या हो चली थी, मैं सेठ के बंगले में गई। उसने मुझे अपने बेडरूम में बुला दिया। बेडरूम में जाने के बाद मैंने अपनी आंखें बंद करके सबकुछ उसके हवाले कर दिया। सेठ ने सुबह अस्पताल में इलाज की फीस भरने को कहा।
जब वहाँ से निकल रही थी, तभी सेठानी ने मुझे देख लिया था। कपड़े कुछ अस्त-व्यस्त थे। इसलिए उसे शायद भनक लग गई थीं।
सुबह इलाज का पैसा भरने का इंतजार कर रही थी। तभी एक झटका मेरे दिल को लगा। सेठजी सड़क हादसे में मारे गए।
एक छोटी सी आस थी वह भी चली गई। सेठानी के पास गई। पर उसने मुँह फेर लिया।
हो सकता है रात के परिदृश्य के बाद ही हादसे की परिकल्पना रची गई हो। या हो सकता है यह भी राम की लीला हो।
पर मां की तबीयत में सुधार होने का नाम नहीं था। महीनों हार-थकने के बाद भी कोई नतीजा नहीं निकला।
फिर एक चीत्कार निकली, माँ के मरने की। मेरे उन मासूम भाई बहन का क्या कसूर था, जो भगवान इतने निर्दयी हो चले। क्या बिगाड़ा था हमने किसी का जो मां का साया हमारे सिर से उठा लिया। मैं तो क्या इस संसार की कोई दुखयारिन उस पर भरोसा नहीं करेगी।
छोटे भाई-बहन का पालन-पोषण करना था। इसलिए इस धंधे में आई। एक बार सोचा कि कहीं नौकरी कर लूँ। पर फिर सोचा, कहीं फिर वैसा ही सेठ मिला तो…?
‘पर बाबूजी आप यह चाहते हैं कि अगर मैं यह धंधा छोड़ दूँ, तो छोड़ दूंगी। क्या मेरे अकेले के बदल जाने से यह समाज बदल जाएगा?’
मैं वहीं खड़ा रहा और वो इस भरी दोपहर में ओझल हो गई।
[email protected]
What did you think of this story??
Comments