शीला का शील-1

(Sheela Ka Sheel- Part 1)

This story is part of a series:

उसका नाम शीला था।
वही सांवली सी आम लड़की जिसका ज़िक्र मैंने
वो सात दिन कैसे बीते
में किया था।

गौसिया से अलग होने की तकलीफ मैंने उसमें दिलचस्पी लेकर ही कम की थी।

पहले आते जाते हाय हैलो होती थी और फिर एक दिन मोहल्ले से निकल कर फैज़ाबाद रोड पर बस पकड़ने के लिए खड़ी थी कि मैं आ टकराया था और उसका नम्बर ले लिया था जिससे थोड़ी बहुत बात फोन पर भी हो जाती थी।

उसने पूछा था मुझसे- क्यों दिलचस्पी है मुझमें?
और मैंने कहा था- क्योंकि तुम मेरे जैसी एक आम लड़की हो, एकदम आर्डिनरी… कोई खास चीज़ नहीं। न शक्ल सूरत, न फिगर और न ही वह उत्साह उमंगों से भरी उम्र। बस यही कारण है मेरे तुममें दिलचस्पी लेने का!

दो टूक सच किसे नहीं चुभता… उसके चेहरे पर भी नागवारी के भाव आकर चले गए थे।
पर वो कम उम्र की कोई नवयौवना नहीं थी बल्कि तीस पर की एक युवती थी जिसे अब तक सच का सामना करने की आदत पड़ चुकी होनी चाहिए थी।

उसने दो दिन बात नहीं की और तीसरे दिन शाम की छुट्टी के बाद मेरे साथ बजाय घर के कहीं चलने की इच्छा प्रकट की।

मैं पूरी शराफत से उसे उसी ओर के एक पार्क में ले आया जिधर उसका मोहल्ला था।
यहाँ उसके मोहल्ले का मैं कोई ज़िक्र नहीं करूँगा क्योंकि उसकी जो कहानी है वो उसकी आइडेंटिटी स्पष्ट कर देगी जो मुझे स्वीकार नहीं।
बस यूँ समझिये कि वह सिटी बस से निशातगंज आती जाती थी।

बहरहाल अकेले में पहुंचे तो उसने यही कहा- खुद को समझते क्या हो?
‘वही जो तुम हो… भीड़ में शामिल एक आम सा इंसान, जिसकी कोई खास पहचान नहीं। जो ऐसा हैंडसम नहीं कि उस पर लड़कियां मर मिटें और इतना सक्षम भी नहीं कि फिज़िकली हर लड़की या औरत को संतुष्ट कर सके।’

‘खुद से मेरी तुलना किस आधार पर की… सेहत में अच्छे हो, शक्ल में कोई हीरो जैसे न सही लेकिन बुरे भी नहीं और उम्र कुछ भी हो लगते तो तीस के नीचे ही हो।’
‘तो?’

‘तो मैं क्या हूँ… यह सांवला रंग, यह मोटी सी नाक और मोठे होंठ वाला बुरा सा चेहरा… ये पेट वाली बत्तीस इंच की कमर और ये चार फुट से थोड़ी ज्यादा लंबाई। मैं तुम्हारी तरह आम नहीं एक बुरी सी लड़की हूँ।’
‘तुम्हें लगता होगा पर शायद मेरी नज़र में तुम बुरी सी नहीं, आम सी ही लड़की हो।’

‘और कुंवारा आदमी चालीस का हो तो तीस का लगता है लेकिन मेरे जैसी कोई लड़की कुंवारी हो तो तीस की होने पर भी पैंतीस की लगती है।’
‘शायद ऐसा हो, पर कहना क्या चाहती हो?’
‘यही कि एक बुरी सी लड़की में जो शक्ल या जिस्म से अच्छी नहीं, जिसकी खेलने की उम्र निकल चुकी हो उसमें दिलचस्पी क्यों? इश्क़ तो होगा नहीं।’

‘नहीं… मैं उम्र के उस दौर को बहुत पीछे छोड़ चुका हूँ जहाँ इश्क़ हुआ करता है।’
‘फिर… सेक्स करना चाहते हो?’
‘नहीं… वैसे मैं ऑप्शन लेस बंदा नहीं कि इस वजह से तुमसे दोस्ती करूँ।’

‘फिर- आखिर मैं समझ नहीं पा रही कि दुनिया भर की खूबसूरत लड़कियां पड़ी हैं लखनऊ में लेकिन तुम्हें मुझमें ऐसा क्या नज़र आया जो मुझ पर अपना वक़्त खपा रहे हो। चलो मुझसे पूछो कि मेरी दिलचस्पी क्या है जो मैंने तुम्हें लिफ्ट दी।’
‘चलो बताओ- क्यों दी लिफ्ट?’

‘क्योंकि मैं कुंठित हूँ… फ्रस्टेट हूँ… मैं शक्ल सूरत से अच्छी नहीं कि कोई मुझसे प्यार करे और न रूपये पैसे से मज़बूत कि कोई मुझे ब्याहे और न कम उम्र की कोई जवान और सेक्सी लड़की कि मुझसे सेक्स करने के इच्छुक लोगों की लाइन लगी हो।’
मैं सरापा सवाल बना उसे देखता रहा।

‘पर मेरे शरीर में भी इच्छाएं पैदा होती हैं। मुझे भी रातों को नींद नहीं आती और बिस्तर पर सुलगते हुए रात गुज़रती है। मेरे पास क्या विकल्प है?’
‘तुम्हारे हिसाब से वो विकल्प तुम्हें मुझमें दिखा?’
कुछ बोलने के बजाय वह ख़ामोशी से मुझे देखती रही।

‘नहीं… मैं ज़िन्दगी का दर्शन तुमसे कहीं बेहतर समझता हूँ। तुम एक ऐसी ज़िंदगी गुज़ार रही हो जो तुम्हें मंज़ूर नहीं लेकिन विकल्पहीनता की वजह से इसे अपनाये हुए हो।
तुम्हारी उम्र हो गई और तुम एक स्वीकार्य सेक्स पार्टनर न पा सकी, यह तुम्हारे अंदर कुंठा की मुख्य वजह है। ज़ाहिर है कि अगर कोई समाज को स्वीकार्य सेक्स पार्टनर तुम्हारे पास होता तो तुम ऐसी न होती। पर इसके लिए तुमने मुझे लिफ्ट नहीं दी।’

‘फिर?’
‘क्योंकि जो ज़िन्दगी तुम गुज़र रही हो वो तुम्हारी पसंद नहीं मज़बूरी है। तुम्हारे अंदर भी सारी तकलीफें सारी परेशानियां किसी से कह देने की ख्वाहिश होती है पर शायद कोई है नहीं और मैं शायद तुम्हें इस रूप में फिट दिखा होऊँ।’

‘ओके, चलो मैं स्वीकार करती हूँ कि वाकई ऐसा है और मैं अपना पहला सच स्वीकार करती हूँ कि मैं एक रंडी हूँ।’ कहते वक़्त उसकी आँखें मुझ पर ऐसे टिकी थीं जैसे मेरे रिएक्शन को गौर से पढ़ना चाहती हो।

मैं हंस पड़ा- ऐसा होता तो तुम इतने गौर से मेरे एक्सप्रेशन को पढ़ने की कोशिश न करती कि तुम्हारी बात ने मुझ पर क्या असर डाला बल्कि कहते वक़्त आवाज़ में अपराधबोध की भावना होती।

इस बार वह मुस्कराई और मैंने साफ़ महसूस किया कि उसकी आँखें भीग गई थीं।
मैं बस चुपचाप उसे देखता रहा, उन निगाहों से जैसे कह रहा होऊँ कि तुम मुझ पर भरोसा कर सकती हो।

इस बार वह बड़ी देर बाद बोली- शायद बहुत तजुर्बेकार हो, मैंने जो खुद में छुपाया हुआ है उसे मेरी आँखों और हावभाव से पढ़ लेते हो। मेरे साथ सोना चाहते हो?’

‘शायद ही किसी पल मुझमें ये ख्वाहिश पैदा हुई हो। मेरी नज़र में सेक्स लिंग और योनि के घर्षण से इतर भी कोई चीज़ है। मैं वह मज़ा चूमकर, छूकर, सहलाते हुए और यहाँ तक बात करते हुए भी महसूस कर सकता हूँ।
तुम मेरी इच्छा की फ़िक्र मत करो… मैं तुम्हारे अंदर की उस लड़की को बाहर निकालना चाहता हूँ जो अंदर ही अंदर घुट रही है।
शायद इससे मुझे कुछ न हासिल हो मगर तुम अपने को बेहद हल्का महसूस करोगी।’

‘तुम्हें लगता है कि मैं तुम पर इस हद तक भरोसा कर पाऊँगी?’
‘कोशिश करो… अच्छा चलो अपने बचपन के बारे में कुछ बताओ।’

वह फिर काफी देर तक मुझे गौर से देखती समझने की कोशिश करती रही लेकिन अंततः उसे बोलना पड़ा।
अपने बचपन से जुडी कई बातें उसने बताईं और मैं बड़ी तवज्जो से उन्हें सुनता रहा। किसी मोड़ पर उसे ये अहसास नहीं होने दिया कि मेरी दिलचस्पी उसकी बातों में नहीं।

ऐसे ही एक घंटा गुज़र गया और वह वहाँ से चली गई।

फिर फोन पे ऐसे ही मैं उसे छेड़ कर कुरेदता रहा और वह कुछ न कुछ बताती रही… बीच में तीन बार शाम में छुट्टी के बाद वह मेरे साथ घंटे भर के लिए घूमी भी और मैं उसे बोलने पर मजबूर करता रहा।

मैं अपनी बातें बहुत कम ही कहता था मगर उसकी हर बात बड़ी गौर से सुनता था और रियेक्ट भी करता रहता था जिससे उसे लगे कि मैं उसकी बातों में वाकई इंटरेस्टेड हूँ।
और फिर उससे दोस्ती के एक महीने बाद उसने मेरे लिये छुट्टी की।

वह अपने अंदर का सारा उद्गार निकाल फेंकना चाहती थी इसलिए किसी ऐसी जगह जाना चाहती थी जहाँ हम सुबह से शाम तक रह सकें।

मैं उसे टीले वाली मस्जिद के साथ वाली रोड से होता कुड़िया घाट ले आया जहाँ हम जैसे एकाकी पसंद लोगों के लिए काफी स्पेस उपलब्ध था।

हम दिन भर यहीं रहे… दोपहर में भूख लगी तो वहाँ से निकल के खदरे पहुंचे और थोड़ा खा पीकर वापस वहीं पहुंच गए और शाम तक वहीं रहे।

इस बीच उसने अपनी हज़ारों बातें बताई।
कहीं कुछ छूटा नहीं… एक-एक छोटी बड़ी बात, बचपन से लेकर जवानी और जवानी से लेकर अब तक!

कभी किसी बात को बताते बच्चों की तरह खुश हो जाती, तो कभी आंखें भीग जातीं, कहीं एकदम गुस्से में आ कर मुट्ठियां भींचने लगती तो कहीं एकदम उत्तेजित हो जाती।
मैं उसकी हर बात उतनी ही गौर से सुनता रहा जितना वो अपेक्षा कर रही थी।

और अंत में उसके अंदर का सारा लावा निकल चुका तो मैं इस नतीजे पर पहुंचा कि उसकी आइडेंडिटी हाइड कर दी जाए तो उसकी कहानी ऐसी थी जो अन्तर्वासना के इस मंच पर आप लोगों से साझा की जा सकती है।

मैंने वही कोशिश की है… कहानी में रोमांच पैदा करने के लिए मैंने रचनात्मक छूट अवश्य ली है लेकिन कहानी के सार-सत्व से कोई छेड़छाड़ नहीं की।

मूलतः मैं उसके बचपन या जवानी में नहीं जाऊँगा बल्कि उसकी कहानी वहाँ से शुरू करूंगा जहाँ से उसका नैतिक पतन हुआ।

नैतिक पतन मेरे हिसाब से एक बेहूदा और अव्यवहारिक शब्द है जो किसी के चरित्र को डिफाइन नहीं करता, पर चूंकि सामाजिक परिपेक्ष्य में प्रचलन में है तो इसी शब्द का इस्तेमाल करना पड़ेगा।

वह इस वक़्त बत्तीस की वय की थी और ये नैतिक पतन अब से दो साल पहले हुआ था जब उसने सारे संस्कार, सामाजिक मूल्य और नैतिकता के ओढ़ने बिछौने उठा कर ताक पर रख दिए थे और अपनी शारीरिक इच्छाओं के आगे समर्पण कर दिया था।

वह लखनऊ के एक पुराने मोहल्ले में पुश्तों से आबाद थी जिसके कारण एक बड़ा सा घर विरासत में मिला हुआ था।
बाप अमीनाबाद की एक कपड़ों की दुकान पर मुनीम थे और जब तक जिन्दा थे, घर के हालात ठीक ही थे।

उसकी मां को गुज़रे पांच साल हो चुके थे… घर में उसके सिवा पिताजी, एक मानसिक विकलांग चाचा, उसकी छोटी बहनें रानो, आकृति और एक छोटा भाई बबलू था।

दो साल पहले बाबा एक हादसे का शिकार होकर चल बसे थे और अब वे भाई बहन ही एक दूसरे का सहारा थे।

पीढ़ियों से वहीं रहते आये थे इसलिए सबसे जान-पहचान भी थी और वक़्त ज़रूरत सभी साथ और सहारे के लिये उपलब्ध भी थे लेकिन कोई माँ बाप की जगह की पूर्ति कर सकता है क्या?

वह रंग में सांवली थी, शरीर में भी कम लंबाई और थोड़े भरे शरीर की थी, पढ़ाई भी सिर्फ बारहवीं तक की थी… ऐसे ही उससे पांच साल छोटी रानो भी साधारण शक्ल-सूरत, और हल्की रंगत की बेहद दुबली पतली लड़की थी।

लाख कोशिश करके भी पहले उसके माँ-बाप और बाद में उसके बाबा उन दोनों बहनों की शादी न करा पाए थे तो मोहल्ले वाले इस सिलसिले में भला क्या कर पाते।

पर जिसकी शादी नहीं होती, उसमें क्या उमंगें नहीं होतीं, जवानी के तूफ़ान उन्हें बिना छुए गुज़र जाते हैं, उनके शरीर में वह ऊर्जा नहीं पैदा होती जो एक सम्भोग की डिमांड करती है… और ऐसे में सिवा घुटने के, कुढ़ने के उनके पास विकल्प ही क्या होते हैं।

मर्यादा, सामाजिक मूल्य, संस्कार और परिवार का सम्मान… ये वो वेदियां हैं जिनपे किसी ऐसी विकल्पहीन स्त्री की शारीरिक इच्छाओं की बलि ली जाती है।
यह बलि वह भी देती आ रही थी।

शरीर में सहवास से शांत हो सकने वाली ऊर्जा तो सोलहवें सावन से ही शुरू हो गई थी लेकिन इन्हीं मूल्यों को ढोते-ढोते वह चौदह और साल गुज़ार लाई थी और अब तो उसमें इन मर्यादाओं के विरुद्ध लड़ जाने की इच्छा भी बलवती होने लगी थी।

रानो से तीन साल छोटा बबलू और उससे दो साल छोटी आकृति उन दोनों बहनों से अलग गोरे चिट्टे और खूबसूरत थे।

उसने बहुत पहले कई बार माँ-बाबा को किसी ऐसी बात पे कलह करते देखा था जिससे उसने अंदाज़ा लगाया था कि दोनों शायद उसकी माँ के बच्चे तो थे लेकिन उनका पिता कोई और था।

सच्चाई कुछ भी हो पर उनके लिये तो वह माँ-जाया भाई बहन ही थे।

रानो भले उससे पांच साल छोटी थी लेकिन वही उसकी सबसे करीबी सहेली थी।
आखिर दोनों एक ही कश्ती की सवार थी।
दोनों की पीड़ा साझा थी… तो ऐसी हालात में उनका एकदूसरे के दुखदर्द का साथी बन जाना कौन सा बड़ी बात थी।

बबलू बीबीए के अंतिम सेमेस्टर में था और आकृति बीटेक कर रही थी।

उन दोनों की शादी के लिए जो धन संचित करके रखा गया था, अब ऐसी कोई उम्मीद न देख दोनों बड़ी बहनों ने वह धन दोनों छोटे भाई बहन की पढाई के लिए लगाने का फैसला किया था।

हालांकि रोज़ की गुज़र बसर के लिए बाबा के मरने के बाद से ही शीला ने एक दुकान पर नौकरी कर ली थी, रानो रंजना के घर बाकायदा ट्यूशन क्लास चलाती थी जहाँ कई छोटे बच्चे रानो और रंजना से पढ़ते थे।

रंजना उन चौधरी साहब की एक पैर से विकलांग बेटी थी जिनके घर से उन लोगों के पारिवारिक सम्बन्ध थे और बाबा के गुजरने के बाद अब कभी ऐसी गार्जियन की ज़रूरत होती थी तो यह भूमिका वही चाचा-चाची निभाते थे।

उनके परिवार में रानो की हमउम्र विकलांग बेटी के सिवा उससे सात साल छोटा बेटा सोनू था जो बीए की पढ़ाई कर रहा था।
रंजना भी उसी कश्ती की सवार थी जिस पे रानो और शीला थीं।

उम्र हो गई थी लेकिन विकलांग और खूबसूरत न होने की वजह से उसका भी रिश्ता नहीं हो पा रहा था और वह भी उन दोनों बहनों की ही तरह अपनी ही आग में झुलस रही थी।

रानो की ही तरह बबलू भी अपनी ज़िम्मेदारी समझते हुए मोहल्ले की एक कोचिंग में पढ़ाने जाता था।
दो बजे कॉलेज से आकर चार बजे जाता था और रात को आठ बजे आता था।

उनकी सबसे छोटी बहन आकृति ऐसा कोई कमाई वाला काम नहीं करती थी, बल्कि वह तो कॉलेज से आकर कोचिंग पढ़ने जाती थी और बारी बारी से कोई न कोई घर में रहता था।

घर में मानसिक रूप से अपंग चाचा एक ऐसी ज़िम्मेदारी था जो उन्हें उसके मरने तक उठानी थी।
वह उनके पिता से काफी छोटा था और शीला से आठ साल बड़ा था। दिमाग सिर्फ खाने, उलटे सीधे ढंग से कपड़े पहन लेने, हग-मूत लेने तक ही सीमित था।

दिमाग के साथ ही उसकी रीढ़ की हड्डी में भी ऐसी समस्या थी कि बहुत ज्यादा देर न खड़ा रह सकता था न चल फिर सकता था। बस कमरे तक ही सीमित रहता था।
एक तरह से जिन्दा लाश ही था, जिसके लिए वह लोग मनाते थे कि मर ही जाए तो उसे मुक्ति मिले और उन्हें भी…
लेकिन किसी के चाहने से कोई मरता है क्या।

सेक्स असल में शरीर में पैदा होने वाली अतिरिक्त ऊर्जा है जिसे वक़्त-वक़्त पर निकालना ज़रूरी होता है, न निकालें तो यह आपको ही खाने लगती है।

इस यौनकुंठा के शिकार सिर्फ वही दोनों बहनें नहीं थीं उस घर में, बल्कि वह चाचा भी था जिसका दिमाग भले कुछ सोचने समझने लायक न हो लेकिन उसके पास एक यौनांग था और उसके शरीर में भी वह ऊर्जा वैसे ही पैदा होती थी जैसे किसी सामान्य इंसान के शरीर में।

बल्कि शायद दिमाग की लिमिटेशन के कारण किसी सामान्य इंसान से ज्यादा ही पैदा होती थी।
कभी किसी वक़्त में प्राकृतिक रूप से या किसी इत्तेफ़ाक़ से उसे हाथ के घर्षण के वीर्यपात करने के तरीके का पता चल गया होगा और अब वह रोज़ वही करता था।

उसे न समझ थी न ज्ञान… कई बार तो वह भतीजियों की मौजूदगी में ही हस्तमैथुन करने लगता था और उन्हीं लोगों को हटना पड़ता था।
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हमेशा से ऐसे हर हस्तमैथुन के बाद उसने बाबा को ही उसकी सफाई धुलाई करते देखा था और जब से बाबा गुज़रे थे, यह ज़िम्मेदारी उस पर आन पड़ी थी।

लड़की होकर यह सब करना उसे वितृष्णापूर्ण और अजीब लगता था लेकिन विकल्पहीनता के कारण करना उसे ही था। वही घर की बड़ी थी और किसी बड़े की सारी ज़िम्मेदारियां उसे ही निभानी थी।

न उनके घर में कोई स्मार्टफोन था, न कंप्यूटर, लैपटॉप और न ही ऐसी किसी जगह से उसका कोई लेना देना था जो वह कभी पोर्न देखती या सेक्स ज्ञान हासिल करती और न ही उसकी कोई ऐसी सखी सहेली थी जो उसे यह ज्ञान देती।

सेक्स की ज़रूरत भर जानकारी तो कुदरत खुद आपको दे देती है लेकिन व्यावहारिक ज्ञान तो आपको खुद दुनिया से हासिल करना होता है जिसमें वह नाकाम थी।

उसे पहला और अब तक का अकेला परिपक्व लिंग देखने का मौका तो काफी पहले ही मिल गया था, जब एक दिन चाचा ने उसकी मौजूदगी में ही उसे निकाल कर हाथ से रगड़ना शुरू कर दिया था।
तब वह घबरा कर भागी थी।

लेकिन अब भाग नहीं सकती थी।
अब तो उसे जब तब देखना पड़ता था और जब भी चाचा हस्तमैथुन करता था तो घर पे वह होती थी तो वह साफ़ करती थी या रानो हुई तो वह साफ करती थी।

वैसे ज्यादातर चाचा को रात में सोने से पहले ही हस्तमैथुन की इच्छा होती थी और इस वजह से ये ज़िम्मेदारी दस में से नौ बार उसे ही उठानी पड़ती थी।

चाचा को जब भी खाने पीने या किसी भी किस्म की हाजत होती थी तो वह बड़ी होने के नाते उसे ही बुलाता था। उसका नाम भी ठीक से नहीं ले पाता था तो ‘ईया’ कहता था।

जब वह हस्तमैथुन करके अपने कपडे ख़राब कर चुकता था तो ‘ईया’ की पुकार लगाता था और उसे पहुंच कर चाचे को साफ़ करना होता था।

पहले उसने कभी चाचा का लिंग देखा था तो इतना ध्यान नहीं दिया था पर अब देती थी। उसका सिकुड़ा रूप, उसका उत्तेजित रूप… सब वह बड़े गौर से देखती थी।

और ये देखना उसके अवचेतन में इस कदर घुस गया था कि सोने से पहले उसके मानस पटल पर नाचा करता था और सो जाती थी तो सपने में भी पीछा नहीं छोड़ता था।

उसे साफ़ करते वक़्त जब छूती थी, पकड़ती थी तो उसकी धड़कनें तेज़ हो जाया करती थीं, सांसों में बेतरतीबी आ जाती थी और एक अजीब से सनसनाहट उसके पूरे शरीर में दौड़ जाती थी।

उसने कोई और परिपक्व लिंग नहीं देखा था और जो देख रही थी उसकी नज़र में शायद सबके जैसा ही था।

वह जब मुरझाया हुआ होता था तब भी सात इंच तक होता था और जब उत्तेजित होता था तो दस इंच से भी कुछ ज्यादा ही होता था और मोटाई ढाई इंच तक हो जाती थी।

उसकी रंगत ऊपर शिश्नमुंड की तरफ ढाई-तीन इंच तक साफ़ थी और नीचे जड़ तक गेहुंआ था, जिसपे मोटी-मोटी नसें चमका करती थीं।

तब उसे भारतीय पुरुषों के आकार का कोई अंदाज़ा नहीं था और वो इकलौता देखा लिंग उसे सामान्य लिंग लगता था, उसे लगता था सबके ऐसे ही होते होंगे।

सेक्स के बारे में उसे बहुत ज्यादा जानकारी नहीं थी। बस इतना पता था कि यह भूख शरीर में खुद से पैदा होती है और इस पर कोई नियंत्रण नहीं किया जा सकता।
एक तरह की एनर्जी होती है जिसे शरीर से निकालना ज़रूरी होता है और इसे निकालने के तीन तरीके होते हैं। पहला सम्भोग, दूसरा हस्तमैथुन और तीसरा स्वप्नदोष।

पहले दो तरीकों से आपको खुद ये ऊर्जा बाहर निकालनी है और खुद से नहीं निकाली तो स्वप्नदोष के ज़रिये आपका शरीर खुद ये ऊर्जा बाहर निकाल देगा।

उसके लिये तीसरा तरीका ही जाना पहचाना था। सम्भोग का कोई जुगाड़ नहीं था, हस्तमैथुन के तरीकों से अनजान भी थी और डरती भी थी। बस स्वप्नदोष के सहारे ही जो सुख मिल पता था, उसे ही जानती थी।

इन सपनों ने उसे अट्ठारह से अट्ठाइस तक बहुत परेशान किया था जब अक्सर बिना चेहरे वाले लोग (जिनके चेहरे याद नहीं रहते थे) उसके साथ सहवास करते थे और वह स्खलित हो जाती थी।

चूंकि उसने एक साइज़ का ही लिंग देखा था जो उसके अवचेतन में सुरक्षित हो गया था और उसी लिंग को वो योनिभेदन करते देखती थी… समझना मुश्किल था कि कैसे इतनी छोटी जगह में इतनी मोटी और बड़ी चीज़ घुस पाती थी।

लेकिन सपने में तो घुसती थी और उसे दर्द भी नहीं होता था बल्कि अकूत आनन्द की प्राप्ति होती थी।

पर सपनों पर किसका वश चला है… वह रोज़ ऐसे रंगीन सपने देखना चाहती थी पर वह दो तीन महीने में आते थे और बाकी रातें वैसे ही तड़पते, सुलगते गुज़रती थीं।

हो सके तो कहानी के बारे में अपने विचारों से मुझे ज़रूर अवगत करायें
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