विदुषी की विनिमय-लीला-4

लीलाधर 2011-05-29 Comments

लेखक : लीलाधर

काफी देर हो चुकी थी-

“अब चलना चाहिए।”

अनय ताज्‍जुब से बोले,”क्‍या कह रही हो? अभी तो हमने शाम एंजाय करना शुरू ही किया है। आज रात ठहर जाओ, सुबह चले जाना।” शीला ने भी जोर दिया,”हाँ हाँ, आज नहीं जाना है। सुबह जाइयेगा।”

मैंने संदीप की ओर देखा।

उनकी जाने की कोई इच्‍छा नहीं थी। शीला ने उनको एक हाथ से घेर लिया।

“मैं… हम कपड़े नहीं लाए हैं।” मुझे अपना बहाना खुद कमजोर लगा।

“कपड़े? आज उसकी जरूरत है क्‍या?” अनय ने चुटकी ली, फिर बोले,”ठीक है, तुम शीला की नाइटी पहन लेना, संदीप मेरा पैंट ले लेंगे … अगर ऐतराज न हो…”

“नहीं, ऐतराज की क्‍या बात है, लेकिन…”

“ओह, कम ऑन…”

अब मैं क्‍या कह सकती थी।

शीला मुझे शयनकक्ष में ले गई। उसके पास नाइटवियर्स का अच्‍छा संग्रह था। पर वे या तो बहुत छोटी थीं, या पारदर्शी। उसने मेरे संकोच को देखते हुए मुझे पूरे बदन की नाइटी दी। पारदर्शी थी, मगर टू पीस की दो तहों से थोड़ी धुंधलाहट आ जाती थी। अंदर की पोशाक कंधे पर पतले स्‍ट्रैप और स्‍तनों के आधे से भी नीचे जाकर शुरू होने वाली। इतनी हल्‍की और मुलायम कपड़े की थी कि लगा बदन में कुछ पहना ही नहीं। गले पर काफी नीचे तक जाली का सुंदर काम था, उसके अंदर ब्रा से नीचे मेरा पेट साफ दिख रहा था, पैंटी भी।

मेरी शर्म यह झीनी नाइटी नहीं, ब्रा और पैंटी ही बचा रही थीं, नहीं तो चूचुक और योनि के होंठ तक पता चलते। मुझे बड़ी शर्म आ रही थी, पर शीला ने जिद की,”बहुत सुंदर लग रही हो, मत उतारो। अरे क्‍या है, रोज थोड़े ही करते हैं।”

सचमुच मैं सुंदर लग रही थी, लेकिन अपने खुले बदन को देखकर कैसा तो लग रहा था। इसका आनन्द दूसरा पुरुष उठाएगा यह सोचकर झुरझुरी आ रही थी।

मैं शीला से बेहतर थी।

शीला अपनी बारी आने पर भद्र कपड़े चुनने लगी।

मैंने उसे रोका- मुझे फँसाकर बचना चाहती हो?

मैंने उसके लिए टू पीस का एक रात्रि वस्‍त्र चुना। हॉल्‍टर (नाभि तक आने वाली) जैसी टॉप, नीचे घुटनों के ऊपर तक की पैंट। वह मुझसे अधिक खुली थी, पर अपनी झीनी नाइटी में उससे अधिक नंगी मैं ही महसूस कर रही थी। उसका खुला-सा बदन देखकर एक क्षण के लिए कैसा तो लगा। संदीप का खयाल आया, फिर अपने सौंदर्य पर गर्व भी हुआ। मैंने स्‍वयं को उत्‍तेजित महसूस किया।

अनय और संदीप पुराने दोस्‍तों की तरह साथ बैठे बात कर रहे थे। मुझे देखकर दोनों के चेहरे पर आश्‍चर्य उभरा, लेकिन असहज न हो जाऊँ इसके लिए प्रकटत: सामान्‍य भाव रखते हुए प्रशंसा करके मेरा उत्‍साह बढ़ाया।

अपनी नंगी-सी अवस्‍था को लेकर मैं बहुत आत्म चैतन्य हो रही थी। इस स्‍थिति में शिष्‍टाचार के शब्‍द भी मुझ पर नई तीव्रता के साथ असर कर रहे थे। अनय के शब्‍द ‘नाइस’, ‘ब्‍यूटीफुल’, के बाद ‘वेरी वेरी सेक्‍सी’ सीधे छेदते हुए मुझमें घुस गए।

फिर भी मैंने हिम्‍मत की़, उनकी तारीफ के लिए उन्‍हें ‘थैंक्‍यू’ कहा।

शीला ने कॉफी टेबल पर दो सुगंधित कैण्‍डल जलाकर बल्‍ब बुझा दिए। कमरा एक धीमी मादक रोशनी से भर गया।

अनय ने एक अंग्रेजी फिल्‍म लगा दी। मंद रोशनी में उसका संगीत खुशबू की तरह फैलने लगा।

मन में खीझ हुई, क्‍या हिन्‍दी में कुछ नहीं है! इस काम के लिए भी क्‍या अंग्रेजी की ही जरूरत है?

शीला संदीप के पास जाकर बैठ गई थी। कम रोशनी ने उन्‍हें और नजदीक होने की सुविधा दे दी थी। दोनों की आँखें टीवी के पर्दे पर लेकिन हाथ एक-दूसरे के हाथों में उलझे खेल रहे थे। संदीप ने शीला को अपने से सटा लिया था।

‘करने दो उन्‍हें…!’ मैंने उन दोनों की ओर से ध्‍यान हटा लिया। मैं धड़कते दिल से इंतजार कर रही थी, अगले कदम का। अनय मेरे पास बैठे थे।

कोई हल्‍की यौनोत्‍तेजक फिल्‍म थी। एकदम से ब्‍लू फिल्‍म नहीं जिसमें सीधा यांत्रिक संभोग ही चालू हो जाता है। नायक-नायिका के प्‍यार के दृश्‍य, समुद्रतट पर, पार्क में, कॉलेज हॉस्‍टल में, कमरे में…। किसी बात पर दोनों में झगड़ा हुआ और नायिका की तीखी चिल्लाहट का जवाब देने के क्रम में अचानक नायक का मूड बदला और उसने उसके चेहरे को दबोचकर उसे चूमना शुरू कर दिया।

अनय का बायाँ हाथ मेरी कमर के पीछे रेंग गया। मैं सिमटी, थोड़ा दूसरी तरफ झुक गई। ना नहीं जताना चाहती थी, पर मुझसे वैसा ही हो गया।

उनका हाथ वैसे ही रहा। मैं भी वैसे ही दूसरी ओर झुकी। सोच रही थी सही किया या गलत।

नायक भावावेश में चूम रहा था। नायिका ने पहले तो विरोध किया, मगर धीरे-धीरे जवाब देने लगी।

अनय ने अपना दाहिना हाथ मेरी हथेली पकड़ने के लिए बढ़ाया। इसमें उनका हाथ मेरे दाएँ उभार से टकरा गया। मैंने महसूस किया, वह हाथ थोड़ा धीमा पड़ा और उसे हल्‍के से रगड़ता निकल गया…

“यू हैव नाइस ब्रेस्‍ट्स…”

उस आधे अँधेरे में मैं शर्म से लाल हो गई। मैंने उनके हाथ से हाथ छुड़ाना चाहा। उनका बायाँ हाथ मेरी कमर में कस गया…

शर्म से मेरी कान की लवें गरम होने लगी। पूरी रोशनी में उनसे बात करना और बात थी। अब मंद रोशनी में एकदम से… ! मैं पर्दे की ओर देख रही थी, और वे मेरे चेहरे, मेरे कंधों को… मेरे कानों में सीटी-सी बजने लगी।

टीवी पर्दे पर लड़का-लड़की आलिंगन में बंध गए थे, दोनों का विह्वल चुम्बन जारी था। लड़की की पीठ से टॉप उठ गया था और लड़का उसकी नंगी पीठ पर ब्रा के फीते से खेल रहा था।

मैं ‘क्‍या करूँ !’ की जड़ता में थी। दिल धड़क रहा था।

इंतजार कर रही थी… क्‍या यहीं पर? उन दोनों के सामने?

उनके होंठ कुछ फुसफुसाते हुए मेरे कान के ऊपर मँडरा रहे थे। बालों में उनकी गर्म साँस भर रही थी… मैं शर्म या बचाव में आगे झुकी जा रही थी।

अचानक अनय हँस पड़े। एक तनाव-सा जो बन गया था, जरा हल्‍का हुआ। वे उठ खड़े हुए और साथ आने का इशारा किया।

मैं ठिठकी। कमरे के एकांत में उसके साथ अकेले होने के ख्याल से डर लगा। मैंने सहारे के लिए पति की ओर देखा, वह दूसरी औरत में खोया था। क्‍या करूँ? लेकिन यहाँ आई भी हूँ तो इसीलिए। स्‍वयं मेरे अंदर उत्‍पन्‍न हुई गरमाहट मुझे तटस्‍थ की स्‍थिति से आगे बढ़ने के लिए ठेल रही थी।

अनय ने मेरा हाथ खींचा…

किनारे रहने की सुविधा खत्‍म हो गई थी, अब धारा में उतरना ही था।

पर्दे पर लड़का-लड़की बदहवास से एक-दूसरे को चूम, सहला, भींच रहे थे। लड़की के धड़ से टॉप जा चुका था। उसके बदन से ब्रा झटके में टूटकर हवा में उछली और लड़का उसके वक्षों पर झुक गया। लड़की अपना पेड़ू उसके पेड़ू में रगड़ने लगी। पार्श्‍व संगीत में उनकी सिसकारियाँ गूंजने लगीं।

हॉल का झुटपुटा अंधेरा, सामने सोफे पर बैठे प्यासे औरत-मर्द, एक यौनोत्‍तेजित पराए पुरुष के साथ स्‍वयं मैं… मुझे लगा इन सबके बीच यह फिल्‍म जैसे कोई सिलसिला शुरू कर रही है जिसकी अगली कड़ी मुझ पर आती है। इससे पहले कि उनका सिलसिला समाप्‍त हो, मुझे स्‍वयं अपनी कड़ी शुरू कर देनी चाहिए… रिले दौड़ की तरह, जिसमें पहले धावक के दौड़ समाप्‍त होने से पहले ही दूसरे धावक को उससे बैटन ले लेना होता है।

मैंने मन ही मन उन अभिनेताओं को विदा कहा। दिल कड़ा करके उठ खड़ी हुई।

संदीप शीला में मग्‍न था। उसे पता भी नहीं चल पाया होगा कि उसकी पत्‍नी वहाँ से जा चुकी है, हालाँकि चलते हुए मेरी पायल बज रही थी।

शयनकक्ष के दरवाजे पर फिर एक भय और सिहरन… पर कमर में लिपटी अनय की बाँह मुझे आग्रह से ठेलती अंदर ले आई। मेरी पायल की हर छनक मेरी चेतना पर तबले की तरह चोट कर रही थी।

पाँव के नीचे नर्म गलीचे के स्‍पर्श ने मुझे होश दिलाया कि मैं कहाँ और किसलिए थी। मैं पलंग के सामने थी। पैंताने की तरफ दीवार पर बड़ा-सा आइना कमरे को प्रतिबिम्‍बित कर रहा था। रोमांटिक वतावरण था। दीवारों पर की अर्द्धनगन स्‍त्री छवियाँ मानो मुझे अपने में मिलने के लिए बुला रही थीं।

मैंने अपने पैरों के बीच फुक-फुक सी महसूस की…

मैं पीछे घूमी। अनय के होंठ सीधे मेरे होंठों के आगे आ गए। बचने के लिए मैं पीछे झुकी लेकिन पीछे मेरे पैर पलंग से अड़ गए। उनके होंठ स्वभावत: मुझसे जुड़ गए।

जब उनके होंठ अलग हुए तो मैंने देखा दरवाजा खुला था और संदीप-शालू के पाँव नजर आ रहे थे। शायद वे दोनों भी एक-दूसरे को चूम रहे थे। क्‍या संदीप भी चुंबन में डूब गए होंगे? क्‍या शालू मेरी तरह अनय के बारे में सोच रही होगी? पता नहीं। मैंने उनकी तरफ से ख्याल हटा लिया।

अनय पुन: चुंबन के लिए झुके। इस बार मन से संकोच को परे ठेलते हुए मैंने उसे स्‍वीकार कर लिया। एक लम्‍बा और भावपूर्ण चुंबन। मैंने खुद को उसमें डूबने दिया। उनके होंठ मेरे होंठों और अगल बगल को रगड़ रहे थे। उनकी जीभ मेरे मुँह के अंदर उतरी- मैंने अपनी जीभ से उसे टटोलकर उत्तर दिया। मेरी साँसें तेज हो गईं।

पतले कपड़े के ऊपर उनके हाथों का स्‍पर्श बहुत साफ महसूस हो रहा था। जब वे स्‍तनों पर उतरे तो मैं सब कुछ भूल जाने को विवश हो गई। मैंने अपनी बाँहों से रोकना चाहा लेकिन हो रहा अनुभव इतना सुखद था कि बाँहें शीघ्र शिथिल हो गईं। ब्रा के अंदर चूचुक मुड़ मुड़कर रगड़ खा रहे थे। मेरे स्‍तन हमेशा से संवेदनशील रहे हैं और उनको थोड़ा सा भी छेडना मुझे उत्‍तेजित कर देता है। मेरे स्‍तन शीला से बड़े थे और अनय के बड़े हाथों में निश्‍चय ही वह अधिक मांसलता से समा रहा होगा। मुझे अपने बेहतर होने की खुशी हुई। मुझे भी उनकी संदीप से बड़ी हथेलियाँ बढ़ कर आनन्दित कर रही थीं। उनमें रुखाई नहीं थी- कोमलता के साथ एक आग्रह, मीठी-सी नहीं हटने की जिद।

मुझे लगा रातभर रुकने का निर्णय शायद गलत नहीं था। मन में ‘यह सब अच्‍छा नहीं है’ की जो कुछ भी चुभन थी वह कमजोर पड़ती जा रही था। मुझे याद आया कि हम चारों एक साथ बस एक दोस्‍ताना मुलाकात करने वाले थे। लेकिन मामला कुछ ज्‍यादा ही आगे बढ़ गया था। अब वापसी भला क्‍या होनी थी। मैंने चिंता छोड़ दी, जब इसमें हूँ तो एंजॉय करूँ।

अनय धीरे-धीरे पलंग पर मेरे साथ लंबे हो गए थे। वे मेरे होंठों को चूसते-चूसते उतरकर गले, गर्दन कंधे पर चले आते लेकिन अंत में फिर जाकर होंठों पर जम जाते।

उनका भावावेग देखकर मन गर्व और आनंद से भर रहा था। लग रहा था सही व्‍यक्‍ति के हाथ पड़ी हूँ।

लेकिन औरत की जन्‍मजात लज्‍जा छूटती नहीं थी। जब वे मेरे स्‍तनों को छोड़कर नीचे की ओर बढ़े तो मन सहम ही गया।

वे हौले-हौले मेरे पैरों को सहला रहे थे। तलवों को, टखनों को, पिंडलियों को… विशेषकर घुटनों के अंदर की संवेदनशील जगह को। धीरे-धीरे नाइटी के अंदर भी हाथ ले जा रहे थे। देख रहे थे मैं विरोध करती हूँ कि नहीं।

मैं लज्‍जा-प्रदर्शन की खातिर मामूली-सा प्रतिरोध कर रही थी। जब घूमते-घूमते उनकी उंगलियाँ अंदर पैंटी से टकराईं तो पुन: मेरी जाँघें कस गईं। मुझे लगा जरूर उन्‍होंने अंदर का गीलापन पकड़ लिया होगा। हाय, लाज से मैं मर गई।

पढ़ते रहिएगा !

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