नौकरी मिलने की पार्टी-1
दोस्तो, मेरी कहानियों पर बहुत से अनजान मित्रों के मेल आते रहते हैं। यह कहानी उन्हीं में से एक मित्र की है जो उत्तर प्रदेश के रहने वाले हैं।
अब आगे की कहानी मनीष की जुबानी:
मैं मनीष कुमार 22 साल का सुन्दर, स्वस्थ लड़का हूँ। मेरे हैंडसम लुक पर कॉलेज के ज़माने में यूँ तो कई लड़कियाँ आकर्षित हुईं पर अपनी झिझक के कारण किसी के भी साथ सम्बन्ध आगे नहीं बढ़ पाए। ऐसा नहीं है कि मैं चाहता नहीं था पर कहीं न कहीं पारिवारिक संस्कार मुझ पर हावी थे। अपनी कॉलेज की पढ़ाई पूरी करके नौकरी की तलाश में था।
मेरी एक मौसेरी बहन है माया (काल्पनिक नाम)। वो मुझसे तीन साल बड़ी थी। वो एम.बी.ए. करके दिल्ली में एक मल्टी-नेशनल कंपनी में जॉब कर रही है। मेरी उससे करीब पाँच वर्षों के मुलाकात नहीं हुई थी पर फोन पर यदा-कदा बात होती रहती थी।
उसकी आवाज में एक अजीब सी खनक थी। हालाँकि उसके वर्तमान रंग-रूप से मैं अनभिज्ञ था।, पिछली बार जब मैंने उसे देखा था तो कोई खास नहीं दिखती थी, गोरी तो थी पर शायद शरीर में वो भराव नहीं आया था जिससे उसमें कोई आकर्षण आ पाता।
पर इन दिनों फोन पर उसकी आवाज सुनकर ना जाने मुझे क्या हो जाता था, मैं एकदम मदहोश हो जाता था। एकदम परियों जैसी आवाज थी उसकी।
एक दिन फोन पर बातचीत के दौरान ही वो बोली- यहीं दिल्ली आ जाओ, कोई जुगाड़ लगाती हूँ।
मैंने अपने पिताजी से मशवरा किया तो उनकी भी इजाजत मिल गई।
मैं अपना थोड़ा सा सामान लेकर दिल्ली रवाना हो गया। मैं पहली बार दिल्ली जा रहा था तो माया दीदी ने कहा था कि वो स्टेशन आ जायेंगी मुझे लेने।
मई का महीना था, मेरी ट्रेन का 5.30 बजे सुबह दिल्ली पहुँचने का समय था। ट्रेन से उतरकर जैसे ही मैंने माया दीदी को देखा तो देखता ही रह गया। 5.6 इंच का कद, गदराया जिस्म, गोरा रंग, बड़ी-बड़ी कजरारी आँखें, सुतवां नाक, गुलाब की पंखुरियों से पतले होंठ, ताजे सेब जैसे गाल, सुराहीदार गर्दन, यानि कुल मिला कर मस्त। उसके स्तनों का जायजा मैं नहीं ले सका क्यूंकि उसने जैकेट पहन रखी थी। बिल्कुल स्वर्गलोक की अप्सरा सी दिख रही थी वो।
माया दीदी अपनी स्कूटी लेकर आई थी मुझे लेने। स्टेशन से बाहर निकल कर उसने स्टैंड से स्कूटी निकाली और मुझे बिठाकर चल दी। मैंने अपने एयरबैग को पीठ पर लटका लिया था। उसके बदन से चिपक कर बैठने का एक खुशनुमा अनुभव हो रहा था मुझे। मेरी जांघें माया के चूतड़ों से इस कदर मिले हुए थे कि मेरे लिंग में उफान आने लगा और उसके कूल्हों से टकराने लगा था। शायद उसे भी इस बात का एहसास होने लगा। उसने भी अपनी कमर को थोड़ा पीछे खिसकाकर दबाव बनाया लेकिन इससे आगे मेरी हिम्मत नहीं हुई।
हम लोग घर पहुँचे।
दो कमरों का फ्लैट था उसका, मकान-मालिक नीचे रहते थे और दीदी ऊपर। उसके ऊपर एक खुली छत थी और एक कमरा था सिर्फ, जिसका इस्तेमाल मकान-मालिक के यहाँ कोई अतिथि के आने पर ही होता था। काफी अच्छे तरीके से सजाया था दीदी ने अपने घर को। एक कमरे में मेरा सामान रख कर बोली- मनीष यह है तुम्हारा कमरा।
बिस्तर लगा हुआ था, मैं फ्रेश होने लगा। तब तक दीदी ने चाय बना ली था, हमने चाय पी। फिर दीदी भी फ्रेश होने चली गई।
मैं दीदी के बारे में ही सोचने लगा। उसका कमर खिसकाना मुझे उलझन में डाल रहा था। क्या दीदी भी कुछ वैसा ही चाहती है जैसा मैं?
फिर दीदी तैयार होकर ऑफिस चली गई और मैं सारा दिन टीवी देखता रहा।
शाम में दीदी लौटी और कहा- मुझे आज ही पता चला कि सेल्स में एक जगह खाली है तो मैंने आज अपने बॉस से तुम्हारे बारे में बात की।
उन्होंने कहा- इंटरव्यू करवा दो।
पर वो चार दिनों के लिए मुंबई जा रहे हैं, वहाँ से लौटने के बाद ही कुछ हो सकेगा।
मैं खुश हो गया कि दीदी मेरे लिए कितना सोच रही हैं।
एक बात मैं नोट कर रहा था कि दीदी मेरे सामने कुछ ज्यादा ही बेतकल्लुफी से पेश आती थी। वैसे हम दोनों भाई-बहन थे तो तकल्लुफ की कोई जरुरत भी नहीं थी। पर फिर भी मैं एक लड़का था और वो एक लड़की। खाना परोसने के समय भी वो काफी नीचे झुक जाती थी जिससे उसकी जवानी नुमाया हो जाया करती थी, मैं सिटपिटा कर रह जाता था। कपड़े भी इतनी कसे पहनती थी कि उसके जिस्म का एक एक अवयव मुझ पर कहर बरपाने लगते थे। अक्सर वो घर में मेरे सामने ही कपड़े बदलने लगती थी, देखकर मैं ही अपने कमरे में चला जाता था।
एक दिन तो हद हो गई। नहाने के बाद सिर्फ तौलिया लपेटे वो बाथरूम से बाहर चली आई। मैं तो उसके हुस्न को देखता ही रह गया। मेरे सामने ही उसने पैंटी पहनी और फिर तौलिया को ऊपर कंधे पर रख लिया।
फिर दूसरी तरफ घूम कर ब्रा पहनने लगी। मैं उस दिन अपने कमरे में भी नहीं गया, वहीं जड़वत, मूर्तिवत खड़ा रहा।
उसने ब्रा के कप को अपने चूचियों पर सेट किया और मेरी तरफ पीठ करके बोली- मनीष, जरा हुक तो लगा दे यार।
मैं तो घबरा गया- मैं…मैं…??
दीदी ने मुस्कुराते हुए कहा- यह मैं मैं क्या कर रहा है तू? कभी किसी लड़की को देखा नहीं क्या तूने?
मैंने कोई जवाब नहीं दिया और हुक लगाने लगा। पर उसके चिकने बदन के स्पर्श से मैं रोमांचित हो गया। रोमांचित क्या हुआ, नर्वस होने लगा। बार-बार के प्रयास के बाद भी मैं हुक नहीं लगा पा रहा था।
मैं बोला- दीदी, यह तो बहुत टाईट है, हुक लग ही नहीं रहा है। यह कहानी आप अन्तर्वासना डॉट कॉम पर पढ़ रहे हैं।
दीदी ने अपने बदन को थोड़ा सा ढीला किया तब जाकर हुक लग सका, मैं तो पसीना-पसीना हो गया।
दीदी ने मेरे गाल पर हाथ रखते हुए कहा- तुम ऐसे क्यूँ घबरा रहे हो, जस्ट रिलैक्स यार !
फिर वो कपड़े पहन कर ऑफिस चली गई और मैंने बाथरूम जाकर दो बार दीदी के नाम की मुठ मारी तब जाकर कुछ चैन मिला।
टीवी दीदी के कमरे में ही था। रात को हम दोनों उसके बिस्तर पर ही बैठकर टीवी देखते थे। अक्सर वो मेरे पैरों में अपना पैर उलझा लेती थी और अपने अंगूठे से मेरे पैर को कुरेदती रहती थी। मेरी तो हालत खराब हो जाया करती थी। मेरे लंड में तूफ़ान आ जाता था। मैं तकिया लेकर ढक लिया करता था। पर दीदी के चेहरे से कभी ऐसा नहीं महसूस हुआ कि वो बेपरवाही में कर रही है या कोई शरारत है उसके मन में।
कहानी जारी रहेगी।
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