मुझे एक आखिरी मौका चाहिए…
(Mujhe Ek Aakhiri Mauka Chahiye)
मेरी मदद कीजिए…
मैं नावेद अख्तर मेरठ का रहने वाला हूँ, वहाँ बेगम पुल बाजार में मेरा कारोबार है। मेरा जीवन अच्छा भला-चन्गा अपनी रफ्तार से चल रहा था, अपनी जिन्दगी और अपने आस पास के वातावरण से खुश था।
अपनी शऱीके-हय़ात (बीवी) से बहुत महोब्बत थी मुझे।
वह थी भी सबसे अलैहदा, सबसे अलग, सबसे खुशमिजाज़ थी वो…
हम एक दूसरे को निकाह से पहले से ही जानते थे, मेरी ही पसन्द थी वो… दोस्त तो थी ही, मेरा प्यार भी थी।
मैं खुशनसीब था कि वो मेरी बीवी बन कर मेरी जिन्दगी में आई…
उसको और उसकी आदतों को काफ़ी नजदीकी से जानता था मैं, वाकिफ़ था। निकाह के बाद जब सब मियां बीवियों को एक दूसरे को समझने की जिस दिक्कत का सामना करना पड़ता है, उसका सामना हम दोनों को नहीं करना पड़ा था।
अब जब मैं पीछे मुड़ कर अपने जीवन में झांकता हूँ तो लगता है कि तमाम ग़लतियाँ मेरी थी, मैंने ही सब बर्बाद कर दिया।
वो तो वैसी ही रही थी जैसी वो हमेशा से थी, बदल तो मैं गया था।
निकाह से पहले उसके जिस दोस्ताना मिज़ाज़ का मैं कायल था, वही मिजाज़ अब मुझे अख़रने लगा था।
पहले जहाँ उसके बेतकल्लुफ़ होने में उसकी ईमानदारी दिखती थी, तो अब वही मुझे बेहयाई दिखने लगी थी।
पहले उसकी जिस सोच और समझ पर मैं फ़िदा था, अब वही सोच मुझे घटिया लगने लगी थी।
पहले तो मैं बाहर ही बाहर सब कुछ ठीक होने का दिखावा करता रहा पर दिखावा आख़िर कब तक करता?
उस पर बिना किसी वजह से चिल्लाना, खीझना, गुस्सा करना मेरी आदतों में शुमार हो गया।
जब भी मैं उसे उसके किसी पुराने दोस्त से बातें करते देखता तो ना जाने मुझे एक अजीब सी चिढ़ होती उससे, मैं उसे बेइज्जत करता।
पहले पहल तो सिर्फ़ एकान्त में उसको बेइज्जत करता, फिर उसके चुप रहने से जैसे मुझे बढ़ावा मिलने लगा और मैं सबके सामने खुले आम उसकी बेइज्जती करने में कोई कमी नहीं रखता था।
मुझे लगता था कि एक दिन मैं जीत जाऊँगा और वो मेरी मर्जी के मुताबिक ढल जाएगी।
हालांकि मैं उसमें क्यों बदलाव लाना चाहता था और उसे किस तरह से बदलना चाहता था, यह मुझे भी सही से पता नहीं है।
मुझे पता ही नहीं चला कि मैं अपने ही हाथों से अपनी खुशहाल ज़िन्दगी में आग लगा रहा हूँ।
उसकी चुप्पी के पीछे छिपी निराशा को मैं देख ही नहीं पाया, मुझे समझ ही नहीं आ सका कि हर बीते हुए दिन के साथ वह मुझ से दूर, बहुत दूर होने लगी है और दूर ही चली जा रही है।
आज की तारीख में मैं तलाक़शुदा हूँ। निकाह की तीसरी सालग़िरह में सिर्फ़ तीन महीने दूर है और हमारा तलाक़ हो चुका है।
शायद मुझे खुश होना चाहिये था कि उससे मेरा पीछा छूटा लेकिन ऐसा बिलकुल नहीं हुआ, हर वक़्त मेरे दिलो-दिमाग में बस वो ही घूमती रहती है, हर वक़्त सिर्फ़ उसके बारे में ही सोचता हूँ, स्वयं को ही कोसता रहता हूँ कि मैं कैसे भूल गया कि उसकी जो आदतें मैं बदलना चाह रहा था, वो ही तो उसकी असली पहचान थीं।
मुझे उससे मुहब्बत भी तो उसकी उन आदतों, बेतकल्लुफ़ी, खुश मिजाज़ होने की वजह से ही थी।
लेकिन शायद अब बहुत देर हो गई है, मैंने सुना है कि उसके घर वाले उसका दूसरा निकाह कर रहे हैं, एक बार वे बेटी को उसकी मर्ज़ी से निकाह करने की इजाज़त देने का नतीजा देख चुके हैं इस लिये इस बार उनकी पसन्द के लड़के से उसका निकाह हो रहा है।
मैं उसे बहुत मुहब्बत करता हूँ, क्या अब कुछ हो सकता है, क्या कोई तरीका है ऐसा कि मैं उसे अपनी बात समझा कर अपनी गलती कबूल कर सकूँ और वो मुझे माफ़ कर दे?
क्या मुझे अपनी खता सुधारने का मौका मिल सकता है?
इस बात का अहसास मुझे उससे अलैहदा होने के बाद जितना हो रहा है उतना तो कभी उसके साथ रह कर भी नहीं हुआ।
मुझे एक आखिरी मौका चाहिए, बस एक मौका…
What did you think of this story??
Comments