माँ की अन्तर्वासना ने अनाथ बेटे को सनाथ बनाया-2

(Maa Ki Antarvasna Ne Anath Bete Ko Sanath Banaya- Part 2)

टी पी एल 2017-11-12 Comments

माँ की अन्तर्वासना ने अनाथ बेटे को सनाथ बनाया-1
इससे पहले कि मैं अपने लिए गए निर्णय पर पुनर्विचार करने की चेष्टा भी करती मुझे बेटे के रोने की आवाज़ सुनाई दी. मैं तुरंत बेटे को उठा कर कमरे में ले गयी तथा उसे बिस्तर पर लेट कर उसे दूध पिलाने के दौरान मुझे भी नींद आ गयी.

दोपहर के दो बजे का समय था जब तरुण वापिस आया और मुझे बिस्तर पर अर्ध नग्न हालत में देख कर मेरे वक्ष के ऊपर अपना तौलिया डाल कर मुझे आवाज़ लगा कर कहा- सरिता, उठो और अपने कपड़े ठीक कर लो.
फिर एक बड़े थैले को मेरे पास और दूसरे छोटे थैले को मेज़ पर रख कर कमरे से बाहर जाते हुए कहा- इसमें बच्चे एवं तुम्हारे लिए कुछ कपड़े लाया हूँ. तुम अपने और बच्चे के कपड़े बदल कर तरोताजा हो लो.

मैंने उसकी बात सुन सिर्फ ‘अच्छा’ कहते हुए पहले अपने स्तनों को ब्लाउज के अन्दर किया और उसके तौलिये को रस्सी पर फैला दिया.
मेरी ‘अच्छा’ को सुन कर वह बोला- कपड़े बदल कर आवाज़ लगा देना क्योंकि मेज़ पर रखे थैले में हम सब के लिए खाना भी लाया हूँ.
मैंने उत्तर में कहा- कपड़े बदलने से पहले मैं स्नान करना चाहूंगी. क्या तुम कुछ देर के लिए बच्चे का ध्यान रखोगे, तब तक मैं नलकूप पर जा कर नहा लेती हूँ?

उसके हाँ कहने पर जब मैंने बड़े थैले में से सभी कपड़े निकाल कर देखे तब उसमें मुझे अपने लिए दो जोड़ी बहुत ही सुन्दर घाघरा-चोली मिली तथा बेटे के लिए चार जोड़ी रंग-बिरंगे कपड़े थे.
मैंने अपने लिए एक घाघरा-चोली और बदन पौंछने के लिए तरुण का तौलिया उठा कर कंधे पर रख कर नलकूप पर चली गयी.

नलकूप के पास थोड़ी आड़ में मैंने अपनी धोती, ब्लाउज, ब्रा और पैंटी उतार कर पेटीकोट को अपने उरोजों के ऊपर बांध लिया और नलकूप से निकल रहे पानी के पास बैठ कर मैले कपड़े धोने लगी.
तभी मुझे पीछे से कुछ आहट सुनाई दी और मैंने पलट कर देखा तो वहां तरुण मेरे रोते हुए बेटे को ले कर खड़ा हुआ था.

मैंने तुरंत बेटे को तरुण से ले कर चुप कराने की कोशिश करी लेकिन असफल रही तब मैंने तरुण की ओर पीठ कर के पेटीकोट के नाड़े को ढीला करके अपने एक स्तन को बाहर निकल कर उसे दूध पिलाने लगी.
जब बेटा चुप हो गया तब मैंने उसे तरुण को थमाते हुए कहा- अब तुम इसे ले कर यहाँ से जाओ और मुझे कपड़े धोने और नहाने दो.

मेरी बात सुन कर तरुण वहाँ से चला गया और मैं जल्दी अपना पेटीकोट भी उतार कर सभी कपड़े के साथ ही धो दिया और खुद भी नहा ली.

उसके बाद तौलिये से अपना पूर्ण नग्न शरीर पोंछ कर जब कपड़े पहनने के लिए खड़ी हुई तब मैंने देखा कि तरुण बरामदे में खड़ा था. उस समय तरुण मेरे नग्न शरीर को घूर कर देख रहा इसलिए मैं तुरंत झाड़ियों की ओट में होते हुए जल्दी से कपड़े पहनने लगी.
क्योंकि तरुण ब्रा और पैंटी तो लाया नहीं था इसलिए मैंने सिर्फ घाघरा और चोली को पहन लिया लेकिन चोली पहनते समय उसकी डोरी जो पीछे की ओर थी उलझ गई तथा मैं उसे बाँध नहीं सकी.

बिना चोली को बांधे जब मैं कमरे पर पहुंची तब मुझे देख कर तरुण हँसते हुए बोला- मुझे लगता है की तुम्हे चोली की डोरी बाँधने का अभ्यास नहीं है. तुम जरा अपने बेटे को पकड़ लो और यह डोरी मैं बाँध देता हूँ.
तरुण से अपने बेटे को ले कर मैं उसकी ओर पीठ करके खड़ी हो गयी तब वह उलझी हुई डोरी सुलझा कर डोरी को बाँधने लगा.
जब तरुण ने डोरी बाँध दी तब मैंने चुनरी ओढ़ कर चुपचाप खाना खाया तथा उसके बाद झूठे बर्तनों को साफ़ करने के लिए नलकूप पर चली गयी.

मैं झूठे बर्तन साफ़ कर के कमरे पर आई तब देखा की तरुण कमरे के साथ ही बनी रसोई की सफाई कर रहा था. मेरे पूछने पर की वह उसे साफ़ क्यों कर रहा है तब उसने कहा- बच्चे का दूध आदि गर्म करने के लिए इसकी आवश्यकता पड़ेगी इसलिए साफ़ कर रहा हूँ.

तरुण के उत्तर से मैं निरुत्तर हो गयी और उसके काम में हाथ बटाने लगी तथा दोनों ने मिल कर आधे घंटे में ही उस रसोई को बिल्कुल साफ़ कर दिया.
रसोई की सफाई के बाद तरुण खेतों में काम करने चला गया और मैं कमरे एवं बरामदे की सफाई कर के फिर से बेटे के पास लेट गयी और सोचने लगी कि ‘क्या मेरा यहाँ रुकने का निर्णय ठीक था?’
तब मेरे मस्तिष्क ने कहा कि एक माँ को अपने बेटे के लिए जो करना चाहिए था, मैंने वही किया है.
और मन की आवाज़ ने भी मेरे उस फैसले को सही ठहराया.

मेरी इन दोनों आंतरिक आवाजों ने मेरे अंदर चल रहे द्वंद्वयुद्ध को शांत कर दिया और मैं बीते दिनों को भुला कर आने वाले समय के बारे सोचने लगी.

तीन घंटे बाद लगभग शाम के छह बजे ट्रेक्टर की आवाज़ सुन कर जैसे ही मैं बाहर निकली, तब तरुण ने कहा- चलो मैं तुम्हें गांव वाले घर में छोड़ दूँ.
मैंने बिना कुछ बोले सभी आधे सूखे कपड़े एक चादर में बाँध लिए और बेटे को गोद में ले कर ट्रेक्टर पर बैठ गयी.

लगभग दस मिनट के बाद तरुण ने गांव की एक बहुत बड़ी हवेली के मुख्य द्वार के सामने ट्रेक्टर को खड़ा कर दिया. मैं बहुत ही आश्चार्य से उस हवेली को देख रही थी तभी तरुण बोला- यह हमारी पुश्तैनी हवेली और मेरा घर है. मैं इसी घर में पैदा हुआ था और मेरी बहुत सी यादें भी इससे जुड़ी हैं.

मैं असमंजस से तरुण की ओर देख कर बोली- तुम तो कह रहे थे गाँव में घर है लेकिन यह तो बहुत बड़ी हवेली है. इतनी शानदार हवेली के होते हुए तुम खेत के उस झोंपड़ी में क्यों रहते हो?
वह बोला- मैंने कब कहा कि मैं यहाँ नहीं रहता हूँ. अकेला मस्त-मौला इंसान हूँ जहां रात हो जाती है वहीं सो जाता हूँ. कभी इस घर में और कभी उस झोंपड़ी में!
मेरे कुछ बोलने से पहले तरुण बोला- क्या यहीं बैठे रहने का इरादा है? लाओ वरुण को मुझे पकड़ा दो और अब नीचे उतरो और अंदर चलो.

तरुण ने वरुण को अपनी गोद में ले लिया और फिर हवेली का मुख्य द्वार खोल कर मुझे बड़ी बैठक, छोटी बैठक और भोजनकक्ष दिखाया.
फिर घर के बीच में बने आँगन में मेरे हाथ से गीले कपड़ों का गट्ठर ले कर वहीं रखते हुए मुझे घर के तीन शयनकक्ष, एक रसोई, दो गुसलखाने तथा दो शौचालय दिखाने के बाद चौथे शयनकक्ष में ले गया.
वह शयनकक्ष अन्य तीन शयनकक्ष से कुछ छोटा था और उसमें एक पलंग रखा हुआ था तथा उसके ही साथ एक पालना भी रखा था.
तरुण ने उस पालने में वरुण को लिटाते हुए कहा- आज से यह शयनकक्ष तुम्हारा और वरुण का है, तुम आराम से इसमें रहो.

मेरे पूछने पर कि उसका शयनकक्ष कौन सा है तो उसने कमरे से बाहर जाते हुए बिल्कुल साथ वाले बड़े शयनकक्ष की ओर इशारा कर दिया.
मैंने जब कक्ष में रखे पलंग को ध्यान से देखा तब पाया की वह इतना बड़ा था कि उस पर दो इंसान बहुत ही सुविधापूर्वक सो सकते थे.

उस पलंग पर काफी नर्म गद्दों वाला बिस्तर लगा हुआ था तथा साथ रखे पालने में तो बहुत ही नर्म बिस्तर बिछा था और वरुण उस पर बहुत ही आराम से सोया हुआ था.
पलंग के सामने एक मेज तथा उसके पास दो कुर्सियाँ रखी थी और कक्ष की एक दीवार के साथ लगी हुई बहुत बड़ी अलमारी रखी थी.

मैंने कौतूहल वश जब उस अलमारी को खोल कर देखा तो पाया कि उसमें तीन भाग थे जिसमें से एक भाग में किसी छोटे बच्चे के लिए बहुत ही सुन्दर कपड़े रखे थे और दूसरे भाग में किसी स्त्री के कपड़े रखे थे.
जब अलमारी का तीसरा भाग खोला और उसे बिल्कुल खाली पाया तब मैं सोचने को विवश हो गयी कि शायद वह भाग किसी पुरुष के लिए आरक्षित तो नहीं है.

उसी वक्त मैंने कक्ष की दीवार पर लगी घड़ी में शाम के सात बजने का समय देखा तो तुरंत कक्ष से बाहर निकल कर तरुण को खोजने लगी.
तभी मुझे रसोई में से किसी बर्तन के गिरने की आवाज़ सुनी तो मेरे कदम उस ओर बढ़ गए. मैंने जब रसोई में झाँक कर देखा की तरुण चूल्हे पर कुछ पका रहा था तब मैं तेज़ी से अंदर गयी और उसे वहां से अलग करती हुई खुद मोर्चा सम्भाल लिया.

उसके विरोध करने पर मैंने उसे कह दिया कि घर की रसोई एक स्त्री का सबसे पवित्र कर्मस्थल होता है और वह उसमें किसी भी पुरुष का हस्तक्षेप सहन नहीं कर सकती है. मेरी बात सुन कर वह अवाक सा एक ओर खड़े हो कर जब मुझे तेज़ी से काम करते देखने लगा तब मैंने उससे पूछा लिया कि कक्ष में अलमारी के अंदर किसके कपड़े रखे हुए हैं?

तब तरुण ने बताया- वह कपड़े मेरी माँ ने मेरी होने वाली पत्नी और बच्चे के लिए बनाये थे लेकिन मैं उसके जीवन में तो उसकी यह इच्छा पूरी नहीं कर सका. यह कपड़ों के ऐसे ही पड़े रहने से खराब होने के डर से मैंने उन्हें हवा लगा कर अलमारी में रख दिए थे.
थोड़ी देर चुप रहने के बाद वह बोला- मुझे आशा है की कम से कम उनमें से कुछ कपड़े तो अब तुम्हारे और वरुण के पहनने के काम आ ही जाएँगें.
उसकी बात को सुन कर मैंने कुछ बोलना सही नहीं समझा और चुप चाप खाना बनाती रही.

खाना बनने के बाद तरुण एवं मैंने एक साथ बैठ कर खाना खाया और उसके बाद वह खेतों में चक्कर लगाने के लिए चला गया.

रसोई में साफ़ सफाई का काम समाप्त करके मैंने अलमारी खोल कर उसमें से रोजाना पहनने वाले सादे कपड़े निकाल कर अलमारी के नीचे वाले हिस्से में रख लिए और बाकी के सभी ऊपर के हिस्से में रख दिए.
उन कपड़ों में मुझे एक जोड़ी ब्रा एवं पैंटी तथा दो नाइटी भी मिली जिन्हें मैंने निकाल कर अलग किया और घाघरा-चोली उतार उन्हें पहन कर देखा. जब वह मुझे बिल्कुल फिट आये तब मैंने एक नाइटी को रात के लिए पहने रखा और बाकी सभी कपड़ों को अलमारी में रख दिए तथा बिस्तर पर सोने के लिए लेट गयी.

क्योंकि पिछले सात दिनों में घटित घटनाओं से परेशान मैं ठीक से सो भी नहीं पायी थी और बेटे को गोद में लिए दर दर भटकने के कारण बहुत थक भी चुकी थी इसलिए थकान से निढाल एवं उनींदे के कारण उस नर्म सेज पर लेटते ही मुझे नींद ने घेर लिया और रात भर एक ही करवट सोती रही.
रात को तरुण हवेली कब लौटा था, इसका मुझे पता ही नहीं चला था इसलिए दूसरे दिन सुबह पांच बजे उठ कर सब से पहले उसके कमरे में जा कर देखा तो उसे सोया पाया.

उसके बाद मैंने तबेले में बंधी गाय का दूध निकाला, तरुण को चाय-नाश्ता करा कर खेतों में भेजा और उसके बाद पूरी हवेली की सफाई करी, वरुण को नहलाया तथा खुद भी नहाई.
दोपहर को मैंने खाना बना कर डिब्बे में बंद करके थैले में डाला और वरुण को गोदी में उठा कर खेतों पर चली गयी.
खेतों में वरुण को एक पेड़ की छाया में सुला कर मैंने एक घंटा तरुण की सहायता करी और उसके बाद हम दोनों ने खाना खाया.

खाना खा कर नलकूप पर बर्तन साफ़ करे तथा झोंपड़ी की साफ़-सफाई करने के बाद बेटे को ले कर हवेली वापिस आ गयी.

शाम को हवेली वापिस पहुँचने पर गाय का दूध निकाला और फिर रात का खाना बनाया तथा तरुण को खिलाने के बाद खुद खाना खाया और फिर रसोई की साफ-सफाई करके ही सोयी.
इस प्रकार प्रतिदिन वरुण की देखभाल के साथ साथ मैं इसी गतिविधि के अनुसार हवेली और झोंपड़ी का कार्य करती रही और आठ माह कैसे बीत गए पता ही नहीं चला.

मार्च 2014 माह के मध्य में चार खेतों में लगाई गेहूं की फसल जब तैयार होने वाली थी तब उसकी रखवाली के लिए तरुण दिन रात खेतों पर ही रहने लगा.
मैं पहले कुछ दिनों तक दोपहर का खाना तरुण को खेत पर दे आती थी तथा रात को वह घर पर आ कर खाता और वापिस खेतों पर चला जाता.

एक दिन जब वह रात को खाना खाने आया तब उसके पीछे से एक खेत में कुछ जानवर घुस आये और उन्होंने एक खेत के कोने के थोड़े से हिस्से में खड़ी फसल खराब कर दी.
अगले दिन तरुण ने आते ही मुझसे कहा- मैं अब रात को खेत छोड़ कर खाना खाने घर नहीं आ सकता इसलिए तुम रसोई का और अपना कुछ ज़रूरी सामान ले कर झोंपड़ी में रहने के लिए आ जाओ. तीन-चार सप्ताह के बाद जब फसल कट जायेगी तब हम फिर वापिस हवेली में रहने आ जायेंगे.

तरुण के कहे अनुसार मैंने रसोई तथा तरुण, वरुण तथा मेरा ज़रूरी सामान बाँध कर रख दिया और दोपहर का खाना ले कर खेतों में चली गई.
खाना खा कर मैं खेतों की रखवाली करती रही और तरुण ट्रेक्टर से हवेली में बंधा समान के साथ कुछ और सामान भी ले आया.
ट्रेक्टर ट्राली में अतिरिक्त सामान देख कर मैंने तरुण से पूछा- मैं इतना सामान तो बाँध कर नहीं आई थी फिर यह बाकी का इतना सब समान कहाँ से ले आये?”
उसने छोटा सा उत्तर दिया- हवेली से ले कर आया हूँ.

अगले आधे घंटे में जब तक मैंने रसोई में सभी सामान लगा कर कमरे में गयी तो देखा की तरुण ने वहाँ एक अतिरिक्त चारपाई और बिस्तर लगा दिया था तथा मेज़ के पास अब तीन कुर्सियां पड़ी थी.
मैं दिन में चूल्हा-बर्तन, झोंपड़ी की सफाई करती और खाली समय में खेतों की रखवाली करने में तरुण की सहायता करती थी.

क्योंकि पन्द्रह माह का वरुण अब बहुत अच्छे से चलता फिरता था इसलिए वह पूरा दिन तरुण या मेरे साथ खेतों में भागता फिरता रहता था. दिन में जब भी मैं नलकूप पर कपड़े धोने और नहाने जाती थी, तब वरुण मेरे साथ नहाता था और शाम को वह अकसर तरुण के साथ नहाने नलकूप पर पहुँच जाता था.

जब मैं उसे लेने जाती थी तब अकसर तरुण के गीले जांघिये में उसका तना हुआ लिंग मुझे दिख जाता था जिससे मेरे शरीर में एक तरह की झुरझुरी हो उठती थी. तब मैं वहाँ से वरुण को जल्दी से उठा कर झोंपड़ी में ले जाती थी और अपने को संयम में रखने के लिए उसे पौंछने एवं कपड़े पहनाने में व्यस्त कर लेती.
लेकिन कभी कभी नहाने के बाद तरुण जब तौलिया बाँध कर जांघिये को उतारता या पहनता तब मुझे उसका वह सुन्दर एवं आकर्षक नग्न लिंग दिख जाता तब मेरा मन उसे पाने के लिए विचलित हो उठता.

जब भी मैं तरुण के नग्न लिंग को देख लेती तब दिन हो या रात हर समय मुझे आँखें बंद करते उसी लिंग की छवि दिखाई देती रहती. तब मेरे स्तन सख्त हो जाते थे तथा उन की चूचुक कड़ी एवं लम्बी हो जाती थी और उन्हें सहलाने या उँगलियों के बीच में मसलने की इच्छा होने लगती थी.
जब कभी भी मैं काम वासना के आवेश में बह कर अपने स्तनों और चूचुकों को सहला एवं मसल देती थी तब मेरी योनि में हलचल होने लगती थी.
उस हलचल के कारण मैं बहुत ही उत्तेजित हो जाती और अपनी योनि की हलचल शांत करने के लिए प्राय: मुझे उसमें उंगली करके रस का स्खलन करवाना पड़ता.

मैं अपने को नियंत्रण में रखने के लिए कई बार तरुण के नहाने के समय नलकूप पर नहीं जाने का निश्चय करती लेकिन उसके लिंग को देखने की मेरी लालसा मुझे ना चाहते हुए भी वहाँ जाने के लिए बाध्य कर देती.
जब रात को मैं बिस्तर पर लेट कर आँख बंद करती तब मेरी वासना जाग उठती और मेरी नौ माह से प्यासी योनि की नसें तरुण के लिंग के लिए फड़कने लगती थी. मैं कई बार साथ वाले बिस्तर की ओर देख कर जब तरुण को वहां नहीं पाती तब मन मसोस कर रह जाती और रात भर जागती रहती थी. मेरी इच्छा होती थी की तरुण अपना लिंग को योनि में डाल कर मेरी उत्तेजना को शांत करे लेकिन ऐसा कैसे सम्भव हो यह नहीं जानती थी.

देसी कहानी जारी रहेगी.
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माँ की अन्तर्वासना ने अनाथ बेटे को सनाथ बनाया-3

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