एक थी वसुंधरा-7
(Ek Thi Vasundhra- Part 7)
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नीचे मेरे हाथों की उंगलियां वसुंधरा की नाभि के नीचे, योनि के आसपास सितार बजाने में व्यस्त थी.
“राज..! … आह … ! … आप को सब पता है … उफ़..उफ़..!.” वसुंधरा मेरा हाथ उस की योनि पर से उठाने की बराबर जद्दोजहद कर रही थी लेकिन मैं ऐसा न होने देने के लिए दृढ़प्रतिज्ञ था.
कुछ देर की धींगा-मुश्ती के बाद अचानक वसुंधरा ने मेरे हाथ को अपनी योनि पर से उठाने की कोशिश करना छोड़ दिया और मेरे उस हाथ की पुश्त पर इक हल्की सी चपत मार कर अपना जिस्म ढीला छोड़ दिया.
यह मेरे लिए मन-मर्ज़ी करने का ग्रीन-सिग्नल था जिस में वसुंधरा की मर्ज़ी तो शामिल थी ही. इस सारी कार्यवाही के दौरान वसुंधरा का दायां हाथ मुसल्सल मेरे लिंग से खेल रहा था और वसुंधरा ने एक पल के लिए भी उस पर से अपना हाथ नहीं उठाया था.
पाठकगण! मैं अपने व्यक्तिगत अनुभव से कहता हूँ कि शैया पर अभिसार में काम-रमणी की ‘हाँ’ तो ‘हाँ’ होती ही है … ‘न’ भी नखरे वाली ‘हाँ’ ही होती है.
मैंने मुस्कुरा कर वसुंधरा की ओर देखा. वसुंधरा पहले से ही मेरी ओर देख रही थी. अचानक मेरी हंसीं छूट गयी.
“बहुत बदमाश हो आप!” कहते हुए वसुंधरा ने मुस्कुराते हुए मेरे दायें कंधे पर अपने बाएं हाथ से एक हल्का सा मुक्का मारा और फ़िर खुद ही शरमा कर मेरे गले लग गयी.
मैंने अपनी हथेली की पोजीशन घुमाई और अपनी उंगलियां नीचे की ओर रखते हुए कप सा बना कर हौले से, वसुंधरा की पैंटी बिल्कुल मध्य में टिका दी. मैं अपनी हथेली के नीचे वसुंधरा की गर्म धधकती योनि से निकलती आंच स्पष्ट महसूस कर रहा था. वसुंधरा की पैंटी, वसुंधरा की योनि की दरार से निकले काम-रज की बाढ़ के कारण भीगी-भीगी सी थी. मैंने पैंटी के ऊपर से ही वसुंधरा की योनि पर अपनी उँगलियों से छेड़खानी शुरू की और अंदाज़े से ही अपनी पहली उंगली और अंगूठे से वसुंधरा के भगनासा को सहलाना शुरू किया.
वसुंधरा के मुंह से चीखों … सही सुना आप ने पाठकगण! सिसकियों का नहीं चीखों का बाज़ार गर्म होने लगा.
“नईं … नहीं … रा … ज़! प्लीज़ नहीं … न..न … न करो! … नई … ईं … ईं … ईं … ईं … ! तुम्हें मेरी कसम … सी … ई … ई … ई … !”
“हा..आह … सी..ओह..सी … ओह … हा … आह..सी … मर गयी मैं … ओह … सी … सी … सी … ईं … ईं … ईं … !!”
मैंने अपने हाथ को जरा सा वसुंधरा की नाभि की ओर किया और वापिस नीचे की और ले जाते हुए रिफ्लेक्स-एक्शन में ही अपनी उँगलियों को वसुंधरा के पेट पर दबा कर अपना हाथ वसुंधरा की पैंटी का इलास्टिक के नीचे से पैंटी के अंदर ले गया. मेरी उँगलियों को वसुंधरा योनि के आसपास की रोमविहीन मख़मली त्वचा का अहसास हुआ. मेरे दिल का कहा शतप्रतिशत ठीक निकला था. वसुंधरा ने अपने प्यूबिक-हेयर की वैक्सिंग करवा रखी थी.
मैंने वसुंधरा के काम-ऱज़ में लिथड़ी हुई अपनी उंगलियां वसुंधरा की योनि की दरार पर टिका दी. उधर वसुंधरा का दायाँ हाथ मेरे लिंगमुण्ड को निम्बू की तरह निचोड़ने पर आमादा था. तभी मेरी बड़ी उंगली ने सितार की एक तार छेड़ी.
तत्काल वसुंधरा तड़प उठी- राज … ! बस … बस … करो..! … नईं..ईं … ईं … और नहीं … आगे नहीं … आ … ह … ! आ … आ … ह … आह … बस … बस!
अब समय आ गया था कि एक नारी-शरीर को उस की सार्थकता प्रदान की जाती. परम-उत्तेजना के कारण मेरे अपने अंडकोषों में हल्का-हल्का सा दर्द हो रहा था. रजाई के अंदर दोनों जिस्मों का तापमान अपने उच्चतम स्तर पर पहुँच गया था और गर्मी सी लग़ रही थी.
मैंने वसुंधरा के कसमसाते जिस्म को अपने से ज़रा सा परे किया और रजाई हटा कर पहले तो अपना पायजामा और जॉकी उतारा और फिर आहिस्ता से वसुंधरा के जिस्म को काली पैंटी के ग्रहण से आज़ाद कर दिया.
वसुंधरा आँखें बंद कर के बिस्तर पर चित पड़ी थी, उसके दोनों हाथ क्रास कर के उसकी छातियों पर धरे हुए थे. टाँगें सीधी लेकिन ज़रा सी खुली हुई थी. दोनों पैरों के बीच करीब दो-ढाई फ़ीट का फ़ासला था.
मैंने एक नज़र वसुंधरा के कुंदन से दमकते पूरे जिस्म को देखा. वसुंधरा की संकीर्ण सी योनि का रंग भी एकदम गोरा और गुलाबी सा था.
आमतौर पर भारतीय स्त्रियों … चाहे उन का रंग गोरा ही क्यों न हो, की योनि के आसपास की त्वचा कुछ-कुछ साँवलापन लिए रहती है लेकिन वसुंधरा निःसंदेह एक अपवाद थी. भगवान जाने … ये प्रकृतिप्रदत्त था या वी वाश का कमाल! लेकिन जो भी था … था बेहद लाजबाब!
मैं तो वसुंधरा के इस रूप पर मर-मिटा.
होंठों से होंठ … छाती से छाती लेकिन दोनों की जांघों के ऊपरी सिरे थोड़ा दूर-दूर. मेरा दायां हाथ वसुंधरा की योनि का जुग़राफ़िया नाप रहा था. मेरी उँगलियों के पोर मेरी आंखें बन गए थे. मेरे हाथ की बड़ी ऊँगली वसुंधरा की योनि की दरार की थाह लेने लगी.
यह ठीक था कि वसुंधरा कंवारी-कन्या नहीं थी. उस का योनि-भेदन सवा साल पहले, यहीं … इसी पलंग पर मेरे द्वारा ही संपन्न हुआ था लेकिन फ़िर भी वसुंधरा की योनि की संकीर्णता असधारण थी. मेरी उंगली ही बहुत-बहुत मुश्किल से वसुंधरा की योनि में प्रवेश कर पा रही थी. उधर ऊपर हम दोनों प्रेमी-युगल एक-दूसरे को चूमने-चाटने में व्यस्त थे और वसुंधरा के मुंह से निकलती आहों-कराहों का कोई ओर-छोर नहीं था.
“सी … इ … इ..इ … ई … ई … !!!”
“सी … ई … ई..ई!! राज … !! प्लीज़ … नहीं … आह … ह … ह … ह..!!!”
“रा..!..! … !..ज़! सी … ई … ई … ई! … उफ़..फ़..फ़ … बस..! सी..सी..सी … ! बस..! … हा … आह … ह … ह … ह..!!!”
कामविकल वसुंधरा आपे से बाहर होने को थी पर अब मैं कहाँ सुनने या रुकने वाला था? एक उंगली योनि की दरार के अंदर सितार बजा रही थी, बाकी तीनों, अंगूठे की मदद से बाहर तानपुरा छेड़ रही थी … रति और कामदेव की सरगम अपनी पूरी फिज़ा में गुंजन कर रही थी. छूम … छन … न … न … न … छूम … छूम … छूम … !!!
सारा ब्रह्माण्ड, प्रकृति और पुरुष के मिलन की इस सरगम पर नृत्य कर रहा था. भोले और शक्ति का अभिनव मिलाप अपने चरम को छूने को ही था. एक नई सृष्टि के निर्माण की नींव … बस धरी जाने को ही थी.
मैं अपने घुटनों के बल, बिस्तर पर वसुंधरा की दोनों टांगों के बीच में आ बैठा.
वसुंधरा ने चौंक कर अपनी आँखें खोली और मुझे अपनी टांगों के मध्य बैठे पा कर थोड़ा शरमाई, थोड़ा मुस्कुरायी और उसने अपनी टांगों को ज़रा सा और खोल दिया.
मैं वसुंधरा की दोनों टांगों के बीच दायें हाथ से अपना लिंग-मुण्ड वसुंधरा की योनि पर रगड़ने लगा. वसुंधरा ने तत्काल अपनी दोनों टांगें हवा में उठा कर मेरे लिंग का अपनी योनि के मुख पर स्वागत किया.
मैंने तत्काल वसुंधरा के दोनों पैर अपने कन्धों पर टिकाये और अपने लिंग-मुण्ड को अपने दाएं हाथ में ले कर वसुंधरा की योनि की बाहरी पंखुड़ियों को ज़रा सा खोल कर, योनि के ऊपर भगनासे तक घिसने लगा. मारे उत्तेजना के मेरा शिश्न-मुण्ड फ़ूल कर किसी बड़ी सारी मशरूम के साइज का हो रहा था और प्रीकम से सना हुआ था. मेरे शिश्न-मुंड के अपनी योनि के भगनासे पर हो रहे लगातार घर्षण के कारण वसुंधरा के मुंह से लगातार निकलने वाली सीत्कारों और सिसकियों में इज़ाफ़ा हो रहा था लेकिन अब मुझे इस ओर ध्यान देने की होश कहाँ थी.
अचानक ही मेरा लिंग-मुण्ड वसुंधरा की प्रेम-गुफ़ा के मुहाने पर ज़रा सा नीचे किसी गुदगुदे से गढ्ढे में अटक गया. तत्काल वसुंधरा के शरीर में एक छनाका सा हुआ और और आने वाले पल की प्रत्याशा में वसुंधरा सिहर-सिहर उठी- सी … मर गयी … ओह … सी … ईं … ईं … ईं … !!
वसुंधरा के जिस्म में रह-रह कर सिहरन उठ रही थी.
हम दोनों के जिस्म का रोआं-रोआं खड़ा हो गया और उत्तेजना की एक तीखी लहर हमारे जिस्मों में से गुज़र गयी. मैं अपना लिंग-मुण्ड वहीं टिका छोड़ कर वसुंधरा के जिस्म के ऊपरी भाग पर छा गया. इस प्रक्रिया में वसुंधरा की दोनों टाँगें मेरी निचली पीठ तक फ़िसल गयी.
वसुंधरा ने अपने पांवों की कैंची सी बना कर जुड़ी हुईं अपनी दोनों एड़ियां मेरे नितम्बों पर टिका दी. काम-रस से मेरा लिंग और वसुंधरा की योनि … दोनों बुरी तरह सने हुए थे. मैंने अपने लिंग पर धीरे-धीरे दबाव बढ़ाना शुरू किया.
“रा..!..! … !..ज़! सी … ई … ई … ई! … उफ़..फ़..फ़ … बस..! मर गयी … मैं..!!! … सी..सी..सी … आह … ह … ह … ह!”
“राज … ! आह … ! आराम से..प्लीज़ … ओह … ! सी … ई … ई..! राज … धीरे … ! राज रुको..! आह..उई..!आह..हा..!वेट … वेट..!”
“राज … बस … बस … ना करो … नईं..ईं … ईं … और आगे नहीं … आ … ह … ! आ … आ … आ … ह … आह … !!
वसुंधरा की काम-सीत्कारों में अब कुछ कुछ दर्द का समावेश भी था लेकिन इस वक़्त पर कौन माई का लाल अपनी प्रेयसी की रुक जाने की विनतियों पर कान धरता है? समय आ गया था एक पुरुष को अपना पुरुषत्व दिखाने का और अपनी प्रेयसी को अपना बनाने का. अब थोड़ा कठोर तो बनना ही होगा.
मैंने अपने पैर बिस्तर के निचले सिरे पर मज़बूती से जमाये, वसुंधरा के ऊपरी होंठ को अपने होठों में दबाया और दो-तीन बार अपनी कमर ऊपर-नीचे करते-करते अपने शरीर के निचले हिस्से को नीचे की ओर एक ज़ोर का धक्का दिया.
मेरा लिंग-मुंड जो अब तक वसुंधरा की योनि की बाहरी पंखुड़ियों में ही कुछ-कुछ अंदर-बाहर हो रहा था … अपने रास्ते में आने वाली हर रुकावट को छिन्न-भिन्न करता हुआ वसुंधरा की योनि के अंदर करीब तीन इंच उतर गया.
“आह … !!! रा..!..! … !..ज़! मैं मरी … !” वसुंधरा के मुंह से आर्तनाद निकला और वसुंधरा की आँखों से आंसुओं की अविरल धार बह निकली. साथ ही वसुंधरा अपने दोनों हाथों की मुट्ठियों से बिस्तर पीटने हुए अपना सर दाएं-बाएं पटकने लगी.
वसुंधरा की दोनों टाँगें मेरी पीठ पर से फ़िसल कर सीधी हो गयी थी और वसुंधरा अपनी टांगों को दाएं-बाएं मोड़-माड़ कर मुझे अपने जिस्म से उठाने की कोशिश करने लगी लेकिन मैं भी कोई कच्ची गोलियां नहीं खेला था. चूंकि मैं वसुंधरा की दोनों टांगों के ठीक मध्य में था इसीलिए वसुंधरा की मुझे अपने जिस्म पर से उठाने की कोई कोशिश कामयाब नहीं हो पा रही थी. मैं प्यार से वसुंधरा के कपोलों से अपने होंठों द्वारा वसुंधरा के आंसू बीनने लगा.
“बस बस … मेरी जान! बस … हो गया वसु! हो गया.”
मैं वसुंधरा को दिलासा भी दे रहा था और अपने निचले धड़ को कुछ-कुछ क्रियाशील भी कर रहा था. वसुंधरा की योनि की संकीर्णता अपूर्व थी, हालांकि मेरे लिंग-प्रवेश से पूर्व बहुत देर तक काम-किलोल करने के कारण वसुंधरा की योनि में काम-रज़ की बाढ़ आ चुकी थी, तो भी मुझे वसुंधरा की योनि में लिंग प्रवेश करवाने में ज़ोर लगाना पड़ रहा था.
कुछ देर बाद वसुंधरा कुछ संयत हुई. मैंने वसुंधरा की पेशानी पर एक चुम्बन लिया और वसुंधरा की आँखों में देखा. तत्काल वसुंधरा के होठों पर एक मधुर सी मुस्कान आयी और उस ने मेरे होंठ चूम लिए. मैंने अपनी कमर कुछ ऊपर उठायी. मेरा लिंग कोई इंच भर वसुंधरा की योनि से बाहर खिसका और अगले ही पल फिर जहां था वहीं वापिस पेवस्त हो गया.
फिर मैंने अपना लिंग कोई दो इंच वसुंधरा की योनि के से बाहर निकला और वापिस वहीं धकेल दिया. धीरे-धीरे ऐसा करते-करते वसुंधरा के जिस्म में कुछ कुछ प्रणय-हिलोर सी उठने लगी और उस की योनि में दोबारा ऱज़-स्राव होने लगा.
धीरे-धीरे वसुंधरा भी मेरी ताल से ताल मिलाने लगी. जैसे ही मैं लिंग को बाहर की और खींचता, वसुंधरा अपने नितम्बों को पीछे की ओर ख़म दे देती. नतीज़तन मेरा लिंग वसुंधरा की योनि से एक-आधा इंच और ज़्यादा बाहर आ जाता और जैसे ही मैं अपने लिंग को वापिस योनि में आगे डालता, वसुंधरा अपने नितम्बों को ज़ोर से आगे की ओर धकेलती, इस से वसुंधरा की योनि में धंसता हुआ मेरा लिंग, हर नए धक्के में वसुंधरा की योनि में एक-आध सेंटीमीटर और ज्यादा गहरा धँसने लगा.
वसुंधरा ने अपने दोनों हाथ अपनी योनि के आजू-बाजू रखे हुए थे और उस की योनि में मेरा आता-जाता लिंग वसुंधरा की उँगलियों के पोरों को छू कर आ-जा रहा था. शायद वसुंधरा अपनी ही योनि की थाह नाप रही थी.
करीब दस-एक मिनट बाद वसुंधरा की योनि ने मेरा समूचा लिंग लील लिया लेकिन मेरे काम-आघातों में कोई कमी नहीं आयी थी. अपितु अब तो वसुंधरा की जांघों से मेरी जाँघें टकराती और एक तेज़ ‘ठप्प’ की आवाज़ आती. इस के साथ ही वसुंधरा के मुंह से ‘आह’ की इक सीत्कार निकल जाती.
“आह … ह … ह … ह!! यस.. यस..! राज … ! उफ़ … ! ज़ोर से … !!हा … हआ … ! मार डालो मुझे … ! राज … आह … ह … !”
“ओ … ओह … ओ गॉड … हा … आ ह … उम्म्ह… अहह… हय… याह… सी … इ … ई … ई … !!!!”
“रा..!..! … !..ज़! सी … ई … ई … ई! … उफ़..फ़..फ़ … यहीं ..! मर गयी … मैं..!!! … सी..सी..सी … आह … ह … ह … ह!”
“हय रा..!..! … !..ज़! … हूँ … हूँ … ! मर गयी … मैं..!!! उफ़..फ़..फ़ … !!!”
बेहिसाब चुम्बनों का आदान-प्रदान जारी था. हम दोनों अपनेआप से बेसुध, तेज़ी से एक-दूसरे में समा जाने का उपक्रम कर रहे थे. दोनों की सांसें भारी और बेतरतीब हो रहीं थी.
वसुंधरा की दोनों टांगें हवा में लहरा रहीं थी और अब मेरा लिंग कुछ सुगमता से वसुंधरा की योनि में आवागमन कर पा रहा था. बेड के सारे अंजर-पंजर ढीले हो गए थे और समूचा बिस्तर हमारी लय पर चूँ-चूँ कर रहा था. हमारे जिस्मों का जबरदस्त काम-उफ़ान हम दोनों को समूचा अपने साथ बहा ले जाने को आमादा था.
पूरे कमरे में रति-सुगंध फ़ैली हुई थी और हमारे दोनों के जिस्मों में विद्यमान कामदेव का आवेश अपने चरम पर था. मेरा काम-आवेग अपने उरूज़ पर था और मेरी क़मर बिजली की रफ़्तार से चल रही थी.
टप्प..टप्प … टप्प..टप्प! टप्प..टप्प.. टप्प..टप्प! टप्प..टप्प.. टप्प..टप्प … टप्प..टप्प! टप्प..टप्प.. टप्प..टप्प! टप्प..टप्प.. टप्प..टप्प!
मंज़िल अब ज्यादा दूर नहीं थी. मैंने वसुंधरा के दोनों हाथ उसके सर के आजु-बाज़ू टिका कर अपनी दोनों कलाइयों से दबा लिए और खुद अपना ज्यादातर वज़न कोहनियों पर कर लिया और अपने लिंग को पूरा वसुंधरा की योनि से बाहर निकाल कर, योनि के भगनासा को अपने शिश्नमुंड से रगड़ देता हुआ वापिस वसुंधरा की योनि में उतारने लगा.
अपनी योनि के भगनासे पर मेरे लिंग-मुंड की बार-बार रगड़ लगने से वसुंधरा के काम-आनंद में तो सहस्र गुना वृद्धि हो गयी और वसुंधरा का काम-शिखर छूना महज़ वक़्त की बात रह गया था.
अचानक ही मैंने वसुंधरा के जिस्म में ज़बरदस्त थरथराहट महसूस की. कुछ ही देर बाद उस का जिस्म अकड़ने लगा और वसुंधरा के मुंह से अजीब-अजीब सी आवाजें निकलने लगी.
” हाय … य … ! मरी … मरी … ! मैं मरी … ! सी … ई … ई … ई! … मर गयी … ! हे राम … !!!”
“हा … हा … हा..! हक़ … हक़ … ! हक़ … हक़ … ! … गुर्र..गर्र..गर्र.. गुर्र..गुर्र … !”
अचानक ही मेरे लिंग पर वसुंधरा योनि की पकड़ बहुत ही सख़्त हो गयी और फिर वसुंधरा की योनि में जैसे काम-ऱज़ की ज़ोरदार बारिश होने लगी और इस के साथ ही वसुंधरा की आँखें उलट गयी और वो बेहोश सी हो गयी.
वसुंधरा का गर्म-गर्म ऱज़ मेरे लिंग के साथ-साथ योनि से बाहर टपकने लगा.
आज की शाम वसुंधरा दो बार स्खलित हुई थी और मैं भी अपनी मंज़िल से कोई ख़ास दूर नहीं था. वसुंधरा की टांगों ने मेरी पीठ पर कैंची सी कस ली थी और इस से मुझे अपना लिंग वसुंधरा की योनि में से वापिस खींचने में थोड़ी दिक़्क़त हो रही थी तदापि अभी तक तो मैं डटा ही हुआ था.
दो-एक मिनट बाद अचानक मेरा लिंग वसुंधरा की योनि के अंदर फूलने लगा और मैंने अंतिम बार अपना लिंग अपने लिंग-मुंड तक वसुंधरा की योनि से बाहर खींच कर पूरी शक्ति से वापिस वसुंधरा की योनि में धकेलना शुरू कर दिया.
टप्प..टप्प … टप्प..टप्प … टप्प..टप्प..टप्पा..टप्प ..टप्प..टप्प..टप्पा..टप्प!
फिर अचानक वसुंधरा की योनि के अंदर आखिरी पड़ाव पर पहुँच कर जैसे मेरे लिंग में विस्फ़ोट हो गया. गर्म-गर्म वीर्य की एक ज़ोरदार धार सीधी वसुंधरा वसुंधरा के गर्भाशय के मुख पर पड़ी … फिर एक और! … एक और … एक और!
और इस के साथ ही अर्ध-बेहोशी में भी वसुंधरा ने मुझे अपने अंक में कस लिया.
मैं भी अर्धसम्मोहित सा वसुंधरा के पसीने से लथपथ अर्ध-बेहोश जिस्म पर ढह गया. दो रूहें एक हो गयी थी … समय रुक सा गया था … कायनात थम सी गयी थी और हिरणी सी दौड़ती रात ने अपनी चाल शून्य कर ली थी.
अचानक ही मन के सारे संशय मिट गए. आने वाले कल के सब अंदेशे, सारे डर निकल गए. एकाएक मेरा चित एकदम शांत हो गया. परम-आनंद से मेरे नयन भर आये.
इस एक पल ने मुझे क्षुद्र मनुष्य की श्रेणी से ऊपर उठा लिया. जैसे मेरे अंदर परम-रचियता खुद बोल उठा- अपने होश कायम रखते हुए मज़बूती से थाम ले इस क्षण को, लीन हो जा इस पल में … यही है जीवन का वर्तमान एंवम इकलौता जीवंत क्षण. यही मोक्ष है और यही इस समग्र त्रिभुवन का अंतिम सच भी. इस के बाद सब ख़त्म! अब कोई जन्म नहीं … न ही कोई मृत्यु.
अब कोई मिलन नहीं … कोई जुदाई भी नहीं … कोई अतीत न भविष्य … न शाम, न सहर. ‘दो’ का भेद ही नहीं, कोई आत्मा नहीं … कोई परमात्मा नहीं. “अहम् ब्रह्मास्मि”! मैं ही ब्रह्म हूँ, मैं ही रचियता हूँ और मैं ही शाश्वत हूँ. … मैं प्रेम हूँ और मैं ही परमात्मा हूँ.”
अब कोई ‘वसुंधरा’ नहीं … कोई ‘राजवीर’ भी नहीं, कुछ है तो सिर्फ प्रेम. ये दोनों प्रेम की एक ही डोर के दो सिरे हैं. ‘वसुंधरा’ ही ‘राजवीर’ और ‘राजवीर’ ही ‘वसुंधरा’ है.” जब तक अखण्ड प्रेम का ये पवित्र बंधन रहेगा … वसुंधरा! तू आकाश की अनंत ऊंचाइयों से भी परे परवाज़ करेगी तो भी मैं तुझ में रहूंगा और मैं महासागर की असीम गहराइयों में भी खो जाऊं तो भी तू सदा मुझ में विद्यमान रहेगी. भौतिक सीमाओं से इतर यह हमारा प्रेम हमेशा हमें आपस में बांधे रखेगा.
यद्यपि जब एक बार राधा श्याम से बिछड़ी तो पार्थिव तौर पर दोबारा मिल नहीं पायी … सीता राम से जुदा हुई तो दोबारा मिलन नहीं हुआ और दक्ष के हवनकुंड में छलांग मारकर देह त्याग करने बाद उमा की निष्प्राण लौकिक देह ही शंकर जी के हाथ लगी तदापि अलौकिक और भावनात्मक तल पर तो राधा हमेशा से श्याम में ही वास किये है, सीता आज भी राम में ही रमी है और उमा भी तो नित्य ही शंकर में लीन है. इसीलिए तो युगों-युगों से राधेश्याम, सीताराम, उमाशंकर एक ही संज्ञा है. इसी तरह से … आज के बाद, कम से कम … हम दोनों के दिलों में राधेश्याम, सीताराम, उमाशंकर के साथ-साथ एक नाम और गूंजता रहेगा. वसुंधरा और राजवीर … वसुंधरा-राजवीर … वसु-राज … वसुराज वसुराज!!!
ॐ शांति शांति शांति!
पाठकों की सुबुद्ध राय का मेरे ईमेल [email protected] पर मुझे बेसब्री से इंतज़ार रहेगा.
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