एक थी वसुंधरा-3
(Ek Thi Vasundhra- Part 3)
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बैडरूम से अटैच वाशरूम में जाकर मैंने सब से पहले तो अपना ब्लैडर खाली किया और गीज़र ऑन कर दिया. फिर इधर-उधर देखा. गीज़र में पानी नहाने लायक़ गर्म होने में दस-पंद्रह मिनट तो लगने थे. टाइम पास करने के इरादे से मैंने ऐसे ही वाल-कैबिनेट को खोल लिया.
कैबिनेट में कई लेडीज़ पर्सनल-केयर आर्टिकल्स पड़े थे, उन में बड़ी कम्पनी का बॉडी-लोशन, की बॉडी-क्रीम, की एन्टी-एजिंग क्रीम, परफ्यूम की शीशियां, हेयर-रीमूवल क्रीम, फ़िलिप्स का लेडीज़ इलेक्ट्रिक शेवर और वी वाश भी थी. वी-वाश को देखते ही मेरे ताज़े-ताज़े शांत हुए लिंग में एक बार फिर से उफान आ गया.
आज वाशरूम की खूंटियों पर वसुंधरा का कोई पहना हुआ अंडर-गारमेंट नहीं टंगा था. ऐसा कैसे हो सकता था?
मेरा दिमाग फ़ौरन शरलक होम्ज़ मोड में आ गया. वसुंधरा स्कूल-टूर पर दो-तीन दिन घर से बाहर रह कर आज ही घर आयी थी बल्कि मेरे आने से दो-तीन घंटे पहले ही घर आयी थी. घर से बाहर मिक्स कंपनी में कोई … ख़ासतौर पर कोई स्त्री अपने अंडर-गारमेंट्स धो कर सूखने के लिए बाहर किसी रस्सी पर नुमाईश नहीं लगाती और बाहर से घर लौटते ही हर कोई सब से पहले अपने साथ ले कर गया अटैची या बैग तो खाली करता है लेकिन कोई घर लौटते ही प्रवास के दौरान पहने हुए अपने अंडर-गारमेंट्स धोने बैठ जाए … ये बात तर्क़ की कसौटी पर ख़री नहीं उतरती.
तो माज़रा क्या था … वसुंधरा के पहने हुए अंडर-गारमेंट्स थे कहाँ?
मैंने इधर-उधर देखा तो परे कोने में पड़ी वॉशिंग-मशीन दिखी. जैसे ही मैंने वॉशिंग-मशीन का हुड उठाया, मेरे चेहरे पर एक मुस्कान आ गयी. मेरा अंदाज़ा ठीक था.
अंदर वसुंधरा की दो-तीन ड्रेसेस के साथ-साथ साटन के दो नाईट-सूट और उन के नीचे साटन के तीन सेट डिज़ाइनर ब्रा-और पैंटीज़ के पड़े थे. क्रीम, महरून और पिंक. पहले तो एक अनाम सी प्रत्याशा में मैंने पीछे घूम कर वाशरूम के दरवाज़े की ओर देखा. दरवाज़ा मज़बूती से अंदर से लॉक्ड था.
फिर मैंने आहिस्ता से वसुंधरा की महरून ब्रा उठायी और अपना दायां हाथ ब्रा के कप के अंदर वाली साइड में रख कर अपना बायां हाथ ब्रा के कप के बाहर वाली साइड पर फिराने लगा. एक तीव्र कामानुभूति की लहर मेरे शरीर में से गुज़र गयी. उत्तेज़ना-वश कांपते हाथों में से ब्रा गिरा कर मैंने वसुंधरा की यूज़्ड पिंक पैंटी उठायी और पैंटी को अपने दोनों हाथों में ले कर सहलाने लगा.
पैंटी की जाली के पीछे अपना हाथ रख कर बाहर से जाली को देखने से वसुंधरा की योनि के आस-पास की गोरी त्वचा का सा धोखा हो रहा था.
मैंने अपना हाथ पैंटी में से निकाल कर अपने नाक के पास कर के एक लम्बी सी सांस ली. मेरी हथेली से वसुंधरा के जिस्म के पसीने और डियो की मिलीजुली, सौंधी सी महक आ रही थी और मेरे हाथ के पोरों से वसुंधरा की योनि की वही जानी-पहचानी, होश उड़ा देने वाली, नशीली सी मादक खुशबू आ रही थी. काम-ज्वर के मारे मेरा मेरे बदन का तापमान लगातार बढ़ रहा था.
मैंने अपने दूसरे हाथ पर से वसुंधरा की पेंटी को फ़ौरन वापिस वाशिंग-मशीन में फिसल जाने दिया और खुद मैंने पल भर में अपने कपड़ों को तिलांजलि दे दी और ख़ुद शॉवर के नीचे खड़ा हो कर ‘अपना हाथ … जगन्नाथ’ करने लगा.
करीब आधे घंटे बाद नहा-धो कर, पूरी तरह से रिलैक्सड मैं जब वाशरूम से बाहर आया तो देखा कि आतिशदान में और लकड़ियां डाल दी गयी थी और उसमें भड़भड़ा कर आग जल रही थी. सारे कॉटेज में एक सुखद सी गर्माहट फैली हुई थी. डिनर-टेबल पर ऊँचे कैंडल-स्टैंड में तीन बड़ी-बड़ी मोमबत्तियां जल रही थी और कॉटेज की तमाम दूसरी फालतू लाइट्स बंद कर दी गयी थी. खाना टेबल पर सज़ चुका था.
डिनर-टेबल की मास्टर्स चेयर पर बैठी वसुंधरा अपने बायें हाँथ की कोहनी टेबल पर टिका कर अपनी बायीं हथेली से अपनी ठुड्डी को सहारा दिये अपलक मेरी ओर देख रही थी.
काल का पहिया जैसे चौदह महीने पीछे घूम गया था. मोमबत्तियों की लहराती लौ की नाक़ाफी सी झिलमिलाती रोशनी और बाहर हो रही बारिश का शोर क़रीब-क़रीब उसी जादुई माहौल का अहसास जगा रहा था जिस का रसस्वान हम दोनों पहले भी एक बार कर चुके थे.
मैं चुप-चाप छोटे-छोटे डग भरता हुआ वसुंधरा के दायें बाज़ू की पहली कुर्सी पर आ बैठा. वसुंधरा एकटक मुझे निहार रही थी. मोमबत्तियों की झिलमिलाती रोशनी में वसुंधरा की कज़रारी आँखें हीरों की तरह चमक रही थी.
मैंने वसुंधरा की नज़र से नज़र मिलायी. जाने क्या भाव था वसुंधरा की नज़र में, मेरे होश उड़ने लगे. अचानक वसुंधरा का दायां हाथ मेरे बायें हाथ पर कस गया. वसुंधरा का हाथ लगते ही ख़्वाबों के खटोले से मैं एकदम धरातल पर आ गया.
“वसु … !”
“जी … !” वसुंधरा भी जैसे सपने से जागी.
“आ! आज मैं तुझे अपने हाथ से खिलाऊं.”
“राज … ! क्या बचपना है यह!” कुछ कुछ लज्जाते हुए वसुंधरा बोली.
“देख! ना मत कर वसु … आइंदा जिंदगी में फिर ये मौका नसीब नहीं होने का … !”
मेरे स्वर में गहरी गुहार का पुट पाकर वसुंधरा ने दो पल मेरी आँखों में एकटक देखा और फिर वसुंधरा के होंठों के कोरों पर एक गुप्त सी मुस्कान प्रकट हुई. मैं जान गया था कि मेरी अर्ज़ परवान चढ़ चुकी थी.
मैंने प्लेट में खाना परोसा और बहुत हौले से एक कौर तोड़ कर बहुत प्यार से वसुंधरा के दोनों होंठों के बीच रख दिया. वसुंधरा, जोकि मेरी एक-एक हरकत को बहुत ग़ौर से देख रही थी … ने अचानक नज़र और चेहरा झुका लिया और मुंह में रखा लुक्मा धीरे-धीरे चबाने लगी. खाना चबाने की प्रक्रिया में वसुंधरा के जबड़े के मसलज़ बार-बार कसने से, वसुंधरा के गालों में बार-बार पड़ते गड्डे, फिर खाना गले के नीचे उतारते वक़्त फ़ूड-पाइप की हिलोर, सब कुछ अद्भुत था.
फिर वसुंधरा ने प्लेट के खाने में से एक कौर तोड़ा और उसमें सब्ज़ी भर कर मेरे होंठों के आगे किया.
मैंने शरारतन ‘न’ में सर हिलाया.
वसुंधरा की पेशानी पर एक सिलवट सी उभरी और उसने मेरी आखों में देख कर आखें तरेरी.
मैंने फिर से सर ‘न’ में हिलाया.
तत्काल वसुंधरा की आँखों में एक याचना का भाव उभर आया. मैंने झट से अपना मुंह खोला और जैसे ही वसुंधरा ने अपने हाथ का निवाला मेरे मुंह में रखा, मैंने आहिस्ता से अपना मुंह फ़ौरन बंद कर के वसुंधरा की कलाई अपने बाएं हाथ से पकड़ ली. वसुंधरा के दायें हाथ की दो उंगलियां मेरे होंठों और दांतों के बीच आ गयी. मैंने वसुंधरा के हाथ की उँगलियों के पोरों पर अपनी जीभ फिराई.
“सी..ई … ई..ई … ई … ई … ई … ई!!!!” वसुंधरा के मुंह से एक तीखी सिसकारी निकल गयी और अपनी उंगलियां मेरे मुंह से निकालने की कोशिश करने लगी.
वसुंधरा के जिस्म में उठती प्रेम-सिहरन को मैंने साफ़-साफ़ महसूस किया. हर कौर के साथ-साथ मैंने बारी-बारी से वसुंधरा की हथेली समेत हाथ की सभी उँगलियों को प्यार से चूमा भी और चूसा भी. वसुंधरा तो आनंद के अतिरेक से जैसे किसी गहरे नशे की ग़िरफ़्त आ गयी और उसकी आँखें गुलाबी हो उठी. बेखुदी में सीने पर से आँचल भी ढलक गया. वसुंधरा की आवाज़ थरथराने लगी और आँखों से जैसे मद टपकने लगा. अपनी प्रेयसी को अपने हाथ से खिलाना और उस के हाथ से खुद खाना इतना आह्लादकारी, इतना रोमांचक भी हो सकता है … इस से पहले मुझे इस बात का अंदाज़ा ही नहीं था.
ख़ैर! जैसे तैसे डिनर ख़त्म हुआ. मोमबत्तियों को बुझाने के बाद, वसुंधरा के बहुत मना करने के बावज़ूद मैं सभी जूठे बर्तन डाइनिंग टेबल पर से उठा-उठा कर किचन में सिंक में रखने लगा और वसुंधरा किचन में कॉफ़ी बनाने लगी.
मैं जूठे बर्तनों की आखिरी ख़ेप सिंक में रख कर, खड़ी वसुंधरा के पीछे से … अपने दोनों हाथों से वसुंधरा के दोनों कन्धों और गर्दन की मांसपेशियों की जैसे मसाज़ करने लगा.
कुछेक पल तो इस का वसुंधरा पर कुछ असर होता नहीं दिखा लेकिन चंद ही क्षणों बाद इस पर वसुंधरा की प्रतिक्रिया बहुत ही विस्फोटक हुई. वसुंधरा ने फ़ौरन मेरे दोनों हाथ खींच कर अपनी दोनों सुदृढ़ और उन्नत छातियों पर रख लिए और मेरे दोनों हाथ ऊपर से अपने दोनों हाथों से सख्ती से दबा लिए.
अब स्थिति यह थी कि मेरे दोनों हाथ जिसमें मेरे दोनों हाथों की आठों उंगलियां वसुंधरा की साड़ी-ब्लाउज़ के ऊपर से ही वसुंधरा के उरोजों के नीचे वाली साइड पर और दोनों हाथों के दोनों अंगूठे, दोनों उरोजों के बीच वाली साइड में मज़बूती से जमे थे और मेरे दोनों हाथों के पृष्ठ भाग पर वसुंधरा के अपने दोनों हाथ दवाब बढ़ा रहे थे.
तभी वसुंधरा ने अपने दोनों हाथ ऊपर उठा कर मेरे गले में डाल दिये और अपना जिस्म पीछे की ओर झुका कर अपने जिस्म का लगभग पूरा भार मुझ पर डाल दिया. कपड़ों के सभी आवरणों सहित मेरा पत्थर सा उत्तेजित लिंग वसुंधरा के नितम्बों की दरार में लंबरूप फ़िट था. और मैं अपनी छाती और पेट पर वसुंधरा की नारी-देह से उठती तीव्र ऊष्णता सहित वसुंधरा के जिस्म में तरंगित होती मदन-तरंग के और अपनी नासिका … जोकि वसुंधरा की छातियों के ऊपर ऐन सीध में थी … में समाती वसुंधरा की छातियों में से उठती सहमतिपूर्वक अभिसार के पूर्व उठती स्त्री-देह की ख़ास नशीली गंध का जी भर कर रसपान कर रहा था.
निःसंदेह मैं ज़न्नत में था.
“वसु … !”
“हूँ … !”
“आज तेरी ख़ैर नहीं.” मैंने वसुंधरा की गर्दन पर अपने होंठ फिराते हुए अपने आइंदा इरादों को ले कर वसुंधरा को ख़बरदार किया.
“और आप की …??” अपने सिहरते हुए जिस्म को मेरे जिस्म के साथ रगड़ते हुए खनकती हुई आवाज़ में वसुंधरा ने पलटवार किया.
“देखना … !” मैंने वसुंधरा के दोनों उरोजों को टहोका.
“देखेंगें … !” वसुंधरा ने खुद को पूर्ण रूप से मेरे आगोश में ढीला छोड़ कर जवाबी चोट की.
मैंने एक लम्बी सांस ली और वसुंधरा को अपने आगोश से मुक्त कर दिया. तब तक कॉफ़ी भी बन चुकी थी. दो कॉफ़ी के बड़े-बड़े मग्गों में उबलती-उफ़नती कॉफ़ी डाल कर और दोनों मग्गों को एक ट्रे में रखकर आगे-आगे वसुंधरा और पीछे-पीछे मैं … बैडरूम में पहुँचे.
वॉल टू वॉल कार्पेटिड बैडरूम में एक डबलबेड के दूर वाली तरफ़ एक वार्डरोब और उसके साथ कोने में एक अटैच वॉशरूम का दरवाज़ा और बेड के इस तरफ़ आमने-सामने दो कुर्सियां और एक छोटी सी ग्लॉस-टॉप वाली राउंड काफ़ी-टेबल थी. जिस पर भाप उगलती कॉफ़ी के मग्गों वाली ट्रे रख कर वसुंधरा ‘मैं अभी आयी’ कह कर वॉर्डरोब में से कुछ कपड़े निकाल कर वाशरूम में जा घुसी.
शायद चेंज करने गयी थी. मैंने खिड़की पर पड़ा मोटा पर्दा उठा कर बंद शीशों के पार बाहर देखा. बाहर रह-रह कर बिजली चमक रही थी और बारिश बदस्तूर जारी थी.
दो-तीन मिनट बाद चेंज कर के वसुंधरा वॉशरूम से बाहर निकली. काले रंग की साटन की नाइटी के ऊपर काले रंग का साटन का और काले नेट की काली फ़्रिल वाला फ्रंट ओपनिंग नाईट गाऊन पहने जिसे कमर के ऊपर काले रंग की साटन की बैल्ट ने वसुंधरा के जिस्म पर टिका रखा था. काले कपड़ों में वसुंधरा की दैहिक ख़ूबसूरती बहुत उभर कर नुमायां हो रही थी. कमर पर बंधी बैल्ट वसुंधरा की पतली कमर के ख़म को विशिष्ट ढ़ंग से उजागर कर रही थी. ऊपर से वसुंधरा ने अपने सर के बाल खोल कर अच्छी तरह से कंघी कर के एक ढीले-ढाले से हेयर-बैंड में पिरो लिए थे.
काले बालों और काले नाईट-सूट में वसुंधरा का गोरा बेदाग़ चेहरा चाँद सा चमक रहा था.
वात्सायन के अनुसार किये गए नारी वर्गीकरण के हिसाब से वसुंधरा सर्वश्रेष्ठ ‘पद्मिनी’ वर्ग की स्त्री थी और निःसंदेह एक अमूल्य नारीरत्न थी … ऐसी स्त्रियों की योनि की संर्कीणता प्रकृतिप्रदत्त होती है अर्थात् ‘पद्मिनी’ वर्ग की स्त्री की योनि कभी ढीली नहीं पड़ती. ‘पद्मिनी’ वर्ग की स्त्री अपने पति/प्रेमी को फर्श से अर्श पर ले जाने में सक्षम होती है और उसे बहुत ही श्रेष्ठ और योग्य संतानों से नवाज़ती है.
बहुत ही भाग्यवान होते हैं वो लोग जिन्हें ‘पद्मिनी’ वर्ग की स्त्री का समीप्य नसीब होता है. और यह मुज्जसिम हुस्न आज की पूरी रात मेरे आगोश में होने को था. ऐसी एक रात पाने को तो सौ जन्म कुर्बान किये जा सकते हैं.
मुझे अपनेआप पर एक ग़रूर सा हो आया और बेसाख्ता ही मेरे होंठों पर मुस्कान आ गयी.
तब तक वसुंधरा भी वार्डरोब से एक ए-4 साइज़ का एक लिफ़ाफ़ा निकाल कर मेरे सामने की कुर्सी पर आ विराज़ी.
“राज! कॉफ़ी लीजिये … !” वसुंधरा ने अपना कप उठा कर कॉफ़ी का एक सिप लेते हुए कहा.
मैंने भी अपने कप में से कॉफ़ी का एक घूँट भरा. कॉफ़ी अभी भी काफी गर्म थी.
“राज! एक मिनिट … ज़रा ध्यान दीजिये.” वसुंधरा ने लिफाफा खोलकर उस में से कुछ कागज़ निकाले और मेरी और बढ़ाये. मैंने यंत्रचालित तरीके से हाथ बढ़ा कर कागज़ ले लिए और गर्म कॉफ़ी के सिप लेते हुए उन का अवलोकन करने लगा.
वसुंधरा भी कॉफ़ी के घूँट भरते हुए मेरी ही तरफ देख रही थी. जल्दी ही मेरी समझ में आ गया कि मैं एक स्पैशल पॉवर ऑफ़ अटॉर्नी देख रहा था जिसमें गुज़री 20 जनवरी के दिन वसुंधरा ने मुझे … मुझे बोले तो, राजवीर को आइंदा के लिए अपने इस डगशई वाले कॉटेज के तमाम मालिकाना इख़्तियार अता कर दिये थे. मैं राजवीर, वसुंधरा के इस कॉटेज को जैसे चाहे यूज़ कर सकता था, चाहे तो किराए पर दे सकता था या बेच सकता था.
कहानी जारी रहेगी.
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