हवसनामा: मेरी चुदती बहन-2
(Hawasnama: Meri Chudati Bahan- Part 2)
This story is part of a series:
-
keyboard_arrow_left हवसनामा: मेरी चुदती बहन-1
-
keyboard_arrow_right हवसनामा: मेरी चुदती बहन-3
-
View all stories in series
“अभी बैठे-बैठे तेरी बहन के बारे में सोच रहा था। झेल पायेगी उसकी चूत।” वह लहराती हुई आवाज में बोला और ऐसे तो मुझे आग लग गयी लेकिन मेज पर रखे कट्टे की तरफ देख कर मेरे अंदर उठा गुस्से का गुबार झाग की तरह बैठ गया।
“मुझे क्या पता।” प्रत्यक्षतः मैंने अनमने भाव से कहा।
“तुझे पता तो होगा कि कितनी बार चुद चुकी है… उंगली डलवाने में तो साली सी-सी करने लगती है। वैसे चूत मस्त है उसकी फूली हुई।” वह अपने हाथ से मेरा हाथ पकड़ कर अपना लिंग सहलवाते हुए बोला।
और मैं मन ही मन हैरान रह गया कि यह क्या कह रहा था वह … मुझे तो नहीं लगता था कि रुबीना किसी को स्पर्श भी करने देती होगी और यह उसकी योनि में उंगली करने की बात कर रहा है। मुझे कुछ बोलते न बन पड़ा।
“अच्छा भोसड़ी के… कभी दूध देखे तूने उसके। एकदम झक्क सफेद हैं और ऊपर से गुलाबी-गुलाबी घुंडियां। मजा आ जाता है चूसने में.. बस दूध ही पिलाई है बहन की लौड़ी। अभी तक चूत के दर्शन भी न कराये हैं.. बस उंगली करा के ही रह गयी है।”
मेरे लिये सब किसी बड़े आश्चर्य से कम नहीं था कि मेरी सती सावित्री बहन, जो हमेशा नकाब में रह कर घर से निकलती थी… मुहल्ले के एक छंटे हुए बदमाश को अपने साथ यह सब करने दे रही थी। या हो सकता है कि वह भी ऐसे ही मजबूर पड़ जाती हो जैसे इस वक्त मैं था।
“देख बेटा फैजान… इस टाईम मेरे जितनी गर्मी चढ़ी है कि बिना माल निकाले लंड ठंडा नहीं होगा। तेरी बहन को तो जब चोदूंगा तब चोदूंगा लेकिन अभी तेरे पास दो ऑप्शन हैं। या तो गांड में ले सकता है तो ले ले या फिर मुंह से चूस कर निकाल दे।”
मन में गालियों का गुबार फूट पड़ा लेकिन जाहिर है कि कुछ कर तो सकता नहीं था। जी चाहा कि पलट कर भाग लूं लेकिन बाहर तो उसका चेला यमदूत की तरह जमा था।
“हाथ से निकाल देता हूं न दद्दा।” मैंने लगभग रो देने वाले अंदाज में कहा।
“उससे तो आधी रात हो जायेगी तुझे बेटा … इतनी आसानी से नहीं निकलता मेरा।”
यानि कोई ऑप्शन नहीं था… इस तरह के छोटे शहरों में रहने वाले जानते होंगे कि सीधे सादे लड़कों के साथ यह सब होता रहता है। ऐसा नहीं कि मेरे साथ कभी गुदामैथुन न हुआ हो … कभी सात आठ बार इसका शिकार अब तक हो चुका था लेकिन यह कोई सहज स्वीकार्य स्थिति मेरे लिये एक तो कभी नहीं हुई और दूसरे उसका लिंग ऐसा था कि मेरे बस से बाहर था।
तो पीछे से लेने का ऑप्शन ही नहीं था… मैंने रो देने वाले अंदाज में थोड़ा झुक कर उसकी टोपी को मुंह में ले लिया। यह मेरे लिये बिल्कुल पहला अनुभव था। एक तीखी सी गंध नथुनों में घुसी जो शायद मूत्र की थी और एकदम से उबकाई होने को हुई तो नीचे ही थूक दिया।
उसने एक हाथ से मेरे बाल पकड़ लिये ताकि मैं मुंह न हटा सकूँ और मैं मरे-मरे अंदाज में जहां तक हो सकता था, उसके लिंग को मुंह में लिये मन ही मन घिनाते हुए ‘चपड़-चपड़’ करने लगा।
“अबे चिकने, क्या मरे-मरे अंदाज में चूस रहा है… थोड़ा दबा के, रगड़ के चूस।” उसने लगभग गुर्राते हुए कहा।
मना करने की तो जुर्रत नहीं थी… जी भले हबक रहा हो। उसने दूसरे हाथ से मेरी कमर को अपनी तरफ खींच कर मेरे नितंब सहलाने और गुदा द्वार में ऊपर से ही उंगली करने लगा।
“कसम से फैजान … लंड तू ले रहा है और दिख मुझे रुबीना रही है। शाबाश और जोर से चूस।” वह थोड़े जोश में आता हुआ बोला।
थोड़ी ‘चपड़-चपड़’ के बाद ही वह फुल टाईट हो गया। मोटा तो दा ही, लंबाई में भी आठ इंच से कम न रहा होगा… उसे देखते बार-बार मेरे मन में यही ख्याल आ रहा था कि यह मेरी बहन पर चढ़ेगा तो उस बेचारी को कितनी तकलीफ होगा, कितना तड़पेगी वह।
चूसते चूसते एकदम से वह फूल गया और उसके झड़ने की आशंका में मैंने मुंह पीछे खींचना चाहा लेकिन उसने दोनों हाथों से मेरा सर जकड़ लिया। एकदम से वीर्य की पिचकारी मेरे गले में उतरती चली गयी। फिर और कुछ हल्की पिचकारी उसने मारी, कुछ हलक में उतर गयी तो कुछ मैंने हलक बंद करके रोक ली। एकदम से उबकाई होने लगी और मैं छटपटाने लगा तो उसने मुझे छोड़ दिया।
मैं झटके से बाहर खड़े चेले को धक्का देते बाहर निकला और झुक कर उल्टी करने लगा। जो पेट में गया था, वह तो निकला ही… जो पहले का था, वह भी निकल गया।
उल्टी रुकी तो मैं पलट के भाग लिया। पीछे से उसने आवाज दी थी लेकिन मैंने रुकने की जरूरत नहीं समझी।
घर तक पहुंचने पर सवा दस से ऊपर हो चुके थे। ठंडी के दिनों में इतनी देर तक अम्मी अब्बू सो जाते थे। मैंने रुबीना के फोन पे मिसकाल दी… देर से आने पर यह मेरा इशारा होता था और वह दरवाजा खोल देती थी।
उसके दरवाजा खोलते ही मैंने अम्मी अब्बू के बारे में पूछा तो उसने कहा कि शायद सो गये हैं। मैंने उसे अपने कमरे में आने को कहा और बेसिन पर जा कर मुंह धोने, कुल्ली करने लगा।
वह समझ गयी थी कि कोई बात थी तो चुपचाप मेरे कमरे में आ गयी थी। भले वह उम्र में मुझसे दो साल बड़ी थी लेकिन कोई बहुत अदब इज्जत वाली बात नहीं थी हमारे बीच और यही वजह थी कि हम दोस्तों की तरह बात कर लेते थे।
मैंने उसे वह सबकुछ बता दिया जो राकेश ने अभी मेरे साथ किया था। सुन कर वह थोड़ी हैरान जरूर हुई लेकिन परेशानी उसके चेहरे पर फिर भी न दिखी।
“मुझे उम्मीद नहीं थी कि वह तुम्हें भी छोड़ेगा।” उसने बस इतना ही कहा।
“वह बता रहा था कि वह तुम्हारे साथ सब करता है? एक दिन मैंने उसे देखा भी था तुम्हें रगड़ते, जब वह तुम्हें छोड़ने आया था।”
“रोज ही रगड़ता है जब छोड़ने आता है। कहता है कि बाडीगार्ड की ड्यूटी निभाता हूँ तो इतनी उजरत तो मिलनी चाहिये।”
“तुम्हें बुरा नहीं लगता।”
“हर वह लड़की जो जवान होती है, उसे इन तजुर्बों से गुजरना ही पड़ता है। पहली बार जब किसी ने हिप पे टच किया था तो बुरा लगा था, पहली बार जब किसी ने सीने पर हाथ मारा था तब बहुत खराब लगा था। लेकिन अपने शहर का हाल तो जानते ही हो … लड़की ज्यादा हिम्मत दिखाये तो कुछ भी कर सकते हैं हरामी। सिवा चुप रह जाने के सही विकल्प क्या था भला।
पहले भी सब होता था पर इस मुहल्ले में आते ही जैसे रोज का मामूल हो गया। नहीं अच्छा लगता था। जी करता था कि उन सब के हाथ तोड़ दूं लेकिन यह कहां मुमकिन था? फिर तुमने राकेश से बात की तो यह सिलसिला थम गया … लेकिन यह राहत भला कितनी देर की थी। आखिर उसे भी तो उजरत नहीं थी इस अहसान की।
पहली बार घर छोड़ते आने के टाईम उसने हिप पर टच किया। बुरा लगा, लेकिन कुछ कह न पाई… अगले दिन उसने गले में हाथ डाल दिया। तब भी अच्छा नहीं लगा और मना भी किया तो उसने कहा कि ठीक है, कल से वह छोड़ने नहीं आयेगा… फिर खुद झेलना। तो मुझे झुकना पड़ा, क्योंकि वह तजुर्बे इस तजुर्बे से ज्यादा बुरे और जलालत वाले थे। फिर उसे खुली छूट मिल गयी।”
“लेकिन वह तो और भी बहुत कुछ बता रहा था… चलते-चलते इतना सब का मौका कहां मिल जाता है?”
“वह हलवाई के साथ वाली गली है न, उसमें उसकी एक रखैल रहती है जो शाम के वक्त अकेली होती है तो कोचिंग से वापसी में पांच से दस मिनट मुझे वहीं जाना पड़ता है। उसका बस चले तो घंटा भर रोक ले लेकिन मैंने कह रखा है कि देर हुई तो अब्बू कोचिंग पहुंच जायेंगे और उन्हें पता चल जायेगा कि मैं बीच में कहीं गायब होती हूँ तो अगले दिन से कोचिंग बंद … इसी बिना पर पांच दस मिनट में छोड़ देता है।”
“मैंने यह सोच कर उसकी मदद मांगी थी कि यह तीन चार महीने संभाल लेगा, तब तक एग्जाम हो जायेंगे औल तुम्हें बाहर निकलने की जरूरत ही नहीं रह जायेगी लेकिन …”
“सोचा तो मैंने भी यही था लेकिन उसने भी यह भांप लिया है शायद … इसलिये एग्जाम से पहले ही सबकुछ कर लेना चाहता है।”
“क्यों न अब्बू को सबकुछ इशारों में बता कर मुहल्ला ही चेंज कर लें।”
“उससे क्या होगा? कौन सा यह दिल्ली मुंबई है… छोटा सा तो शहर है। हम जहां जायेंगे वह वहां पहुंच जायेगा। मुझे नहीं लगता कि हमें अब तब तक उससे छुटकारा मिलने वाला जब तक वह किसी केस में अंदर न हो जाये।”
“लड़की होना भी ऐसी जगह गुनाह है। तुम्हें कितना खराब लगता होगा यह सब।”
“एक बात कहूँ… तुम लड़के हो, शायद इस बात को ठीक से न समझ पाओ। जवान जनाना बदन स्पर्श पे मर्दाना संसर्ग मांगने ही लगता है। पहले जब जबरदस्ती, अनचाहे तौर पर मुझे छुआ जाता था तब बहुत खराब लगता था लेकिन फिर वह मौका आया जब उसकी गोद में बैठ कर खुद को छुआना पड़ा और वह उस उस अंदाज में जो पहले कभी सोचा भी नहीं था तो अहसास बदल गये।”
“मतलब?” मैं हैरानी से उसका चेहरा देखने लगा।
“मतलब कि मैं भले तुम्हारी बहन हूँ तो तुम्हें खराब लगेगा लेकिन हूँ तो एक लड़की ही, जिसके शरीर में भी एक भूख बसती है … तो उसका पांच दस मिनट में वह सब कर लेना बुरा नहीं बल्कि एक राहत जैसा महसूस होता है।”
“तो मतलब मौका आयेगा तो तुम उससे करा भी लोगी?” मैंने अविश्वास भरे अंदाज में कहा।
“क्या मेरे पास नकारने का विकल्प होगा? क्या अभी तुम्हारे पास था? जिस चीज से यह तय है कि हम बच नहीं सकते तो क्यों न उसे एंजाय ही कर लिया जाये। अक्लमंदी इसी में है।”
“तुमने उसका सामान देखा है कितना बड़ा है?”
“हां.. वह निकाल कर सहलवाता है तो देखा तो है ही और उसी वजह से तो डरती हूँ कि जल्दी पीछा छुड़ा के भागती हूँ लेकिन मन में कहीं न कहीं यह सोच के एक एक्सेप्टेंस तो रहता ही है कि बकरे की माँ कब तक खैर मनायेगी।”
“तुमने पहले किया है क्या कभी?” कोई और मौका होता तो यह बात मेरी जुबान से न निकल पाती लेकिन आज बात और थी।
“कभी नहीं। ज्यादा डर तो इसी से रहता है कि पहली बार में ही इतना बड़ा लेकिन खैर… देखते हैं।”
“हो ही न पायेगा।” मैंने बेयकीनी से कहा।
“तुम बुद्धू हो। तकलीफ ज्यादा होगी लेकिन हो सब जायेगा। कुदरत ने वह अंग बनाये ही इस तरह से होते हैं।”
“तुम्हें कभी उसने चुसाया?”
“कोशिश कई बार की लेकिन मैं न नुकुर कर के टाल गयी … लेकिन देर सवेर यह नौबत आयेगी ही तो मन में उसका भी नकार नहीं है।”
“और मुंह में ही निकाल दिया तो … छी। उल्टी करते आंतें गले में आ गयी हैं।”
“तुम्हारा मामला दूसरा है। न तुम समानलिंगी आकर्षण महसूस करते हो, न गे हो और न ही तुम्हारे लिये यह एक्सेप्टेड था जबकि मैं अपोजिट सेक्स हूँ तो मेरे लिये हर चीज में आकर्षण भी है और कुछ भी अनएक्सपेक्टेड नहीं।”
मैं बड़े ताज्जुब से उसे देखने लगा और वह मुस्करा रही थी… मुझे ऐसा लगा जैसे मेरी बहन और बड़ी हो गयी हो। अपना अच्छा बुरा मुझसे कहीं बेहतर समझती हो और उसे अपने शरीर को इस्तेमाल करने की भी पूरी आजादी है, जिसकी चिंता में मैं दुबला हुआ जा रहा हूँ।
कहानी जारी रहेगी.
[email protected]
https://facebook.com/imranovaish2
What did you think of this story??
Comments