सम्भोग से आत्मदर्शन-18

(Hindi Adult Kahani : Sambhog Se Aatmdarshan- Part 18)

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नमस्कार दोस्तो, यह हिन्दी एडल्ट कहानी अब चौथे और अंतिम पड़ाव पर पहुंच चुकी है, इस कहानी का पहला और दूसरा पड़ाव आप लोगों ने मेरी पिछली कहानी गलतफहमी में पढ़ा, पहले पड़ाव में मैंने तनु भाभी को अपने सपने के बारे में बताया और ख्याली सेक्स स्टोरी सुनाई, फिर तनु (कविता) भाभी मुझसे खुल गई और उसने अपनी जिन्दगी की सारी बातें विस्तार से बताई, जिसके अंत में रोहन और उसके पिता की जान चली जाती है और छोटी पागल हो जाती है। जिसे हम कहानी का दूसरा पड़ाव मान सकते हैं।

फिर कहानी का तीसरे पड़ाव में, मैं छोटी मतलब तनु कि बहन के पागलपन के इलाज का बीड़ा उठाता हूं, इसी दरमियान मुझे उसकी माँ कि आपबीती कहानी भी सुनने को मिलती है जो काफी रोचक होती है। साथ ही तनु और उसकी माँ सुमित्रा देवी के भोग का भी अवसर प्राप्त होता है, जिसे आप लोगों ने “संभोग से आत्मदर्शन” अर्थात इसी कहानी में पढ़ा।

अब चौथे पड़ाव में क्या होने वाला है, ये भविष्य के गर्भ में है, मैं कहानी का हर भाग विस्तार से लिखते हुए आप लोगों के सामने हर राज उजागर कर दूंगा।

अब से पहले आपने पढ़ा कि छोटी के अंदर मैंने अच्छा सुधार महसूस किया था और आंटी जी और मेरे बीच अब एक अलग ही मधुर संबंध बन चुका था। छोटी के बदलाव को देखते हुए मेरे दिमाग में कुछ उपाय आये थे जिसके बारे में मैंने आंटी जी से विस्तृत बात करना सही समझा।

पर जैसे ही मैंने आंटी जी से कहा- आंटी, मैंने छोटी के अंदर कल के इलाज के बाद एक अलग तरह का सुधार महसूस किया है उसे देख कर मेरे अंदर इलाज के कुछ अच्छे उपाय सूझे हैं.
आंटी ने मुझे इतने शब्द को सुनकर ही टोकते हुए कहा- क्या तुम अपने अगले इलाज में छोटी के साथ भी वही सब?!
आंटी के इन शब्दों में बेचैनी डर और कौतुहल स्पष्ट नजर आ रहा था और शायद मैंने पहले अपने मन के किसी कोने में ऐसा ही कुछ सोचा भी था, पर उनके इस वाक्य ने मुझे झकझोर कर रख दिया।

और मैं कुछ कह पाता इससे पहले ही, उन्होंने फिर टूटे हुए स्वर में डबडबाये आंसुओं और भारी गले से कहा- अगर छोटी के इलाज के लिए यही जरूरी है तो मुझे कोई एतराज नहीं है, मेरे लिए मेरी भावनाओं से ज्यादा मुझे मेरी बेटी की जिन्दगी प्यारी है, तुम हमारी जिन्दगी में मसीहा बनकर आये हो, हमें तुम्हारी नियत पर कोई शक नहीं है, पर अपनी बेटियों को बारी-बारी ऐसा करते देख पाने लायक जिगर मै कहाँ से लाऊं। और ये कमीना दिल है ना..! ये तुम्हें किसी और के साथ देखने को भी तो राजी नहीं है।

और बहुत व्यथित सी होकर लड़खड़ाते हुए कदमों के साथ चेयर पर बैठते हुए अपनी रुंधित आवाज में आंटी ने कहा- संदीप, तुम मेरे इन आँसुओं पर मत जाना! मेरी भावनाओं से ज्यादा जरूरी छोटी का इलाज है, तुम उसके साथ जो करना है वो करो, मैं तुम्हें नहीं टोकूँगी, नहीं संदीप मैं तुम्हें बिल्कुल नहीं रोकूँगी, तुम कुछ भी करो संदीप, मैं तुम्हें कुछ नहीं कहूँगी।
वो इतना कहते हुए कुर्सी के हैंडल पर अपना सर रख कर रोने लगी।

उनकी विवशता स्पष्ट थी, पर अब मैंने एक लंबी सांस ली, फिर साहस और आत्मविश्वास के साथ कहा- अब उठो, अपने आपको सम्भालो और मेरी बात ध्यान से सुनो सुमित्रा देवी… मेरे लिए किसी के जिस्म को भोगने से ज्यादा मायने रखता है कि मैं किसी के दिल में अपने लिए बहुत मामूली सी जगह बना पाऊं। आप छोटी के इलाज की चिंता ना करो, उसके लिए और भी हजार उपाय हैं। ऐसे भी मैं आज इलाज के जिस तरीके की बात कर रहा था, वो छोटी के साथ संभोग का नहीं था, मैं तो बाबा को रंगे हाथों पकड़ना चाहता था, और छोटी के सामने या छोटी के हाथों से उसे सजा दिलाना चाहता था। मैं जानता हूँ कि भावनाओं से बड़ी कोई चीज नहीं होती, संदीप वो शख्स है जो किसी की भावनाओं को ठेस पहुंचाने के बजाय मर जाना पसंद करता है।

शायद आंटी को मेरी बातों से बहुत राहत मिली और उन्होंने कुर्सी से उठ कर मुझे चूमना शुरू कर दिया।
मैंने उन्हें और विश्वास दिलाया कि मैं छोटी के साथ ऐसा कुछ नहीं करुंगा.
तब वो और भी भावुक हो उठी।
मैंने उन्हें सम्हाला और शांत किया।

उस दिन के बाद तनु के लौट कर आते तक, हर दूसरे तीसरे दिन मैं और आंटी हमबिस्तर होते रहे, और छोटी को साथ रख कर उसे इलाज का असर हो ऐसी बातें समझाते रहे. उस दिन के बाद आंटी ने भी मुझे समझा रखा था कि जब वो खुद मुझ पर चढ़कर सेक्स करें, तब मैं ऐसे व्यवहार करूँ कि मुझे बहुत ज्यादा पीड़ा हो रही है।
हम छोटी को हर बार दिखाना चाहते थे कि सेक्स में औरत को मजा आता है, और पुरुष को तकलीफ भी हो सकती है।

अब हम जब भी सेक्स करते थे, ऐसा ही करने का प्रयास करते थे, और इस तरीके से छोटी के अंदर बहुत सुधार भी महसूस हो रहा था।

तनु के अपने ससुराल से लौट आने के बाद मैं तनु के साथ सम्भोग करके, छोटी का इलाज कर करने लगा, अब भी कुछ बातें अटपटी थी, पर हर चुदाई के बाद संकोच कम होता जा रहा था। और हमने आंटी और मेरे बीच सम्भोग वाली बात तनु से छुपा रखी थी, पर शायद तनु को शक था लेकिन वो भी, अपनी माँ की खुशी के लिए और वो शर्मिंदा ना हो सोच कर अनजान ही बनी रही।
मैं और आंटी तनु से छुपकर घमासान चुदाई करते रहे.

अब छोटी बहुत सी बातों को समझने लगी थी, जो उसके ठीक होने का लक्षण था, पर उससे आंटी और मेरा संबंध तनु के सामने जाहिर भी हो सकता था, इसलिए अब हम इलाज के वक्त सम्भोग नहीं करते थे, बल्कि छोटी के सोने के बाद चुपके से सेक्स किया करते थे, इस तरह डर वाली या छुपन छुपाई वाली चुदाई का आनन्द ही कुछ और होता है।

अब हमें छोटी को अन्य लोगों के बीच भी लाना ले जाना था, ताकि हम उसका अन्य जगहों पर व्यवहार जान सकें। या छोटी के लिए कहो कि उसका जीवन सामान्य हो सके। इसलिए हम उसे बाजार, मंदिर, सिनेमा और उपवन जैसी जगहों पर ले जाने लगे, जहां वो एकदम सामान्य व्यवहार तो नहीं किन्तु पहले की तुलना में नब्बे प्रतिशत अच्छा व्यवहार करने लगी थी।

हमारे लिए अभी एक और चिंता का विषय यह था कि छोटी का शरीर अब नियमित मालिश और अच्छे खानपान की वजह से मजबूत दिखता तो था, पर अंदर से उसकी कमजोरी गई नहीं थी, उसकी उदासी और मन की हार उसके चेहरे और तन की चमक को निगल जाती थी।
हमारी सारी कोशिशें नाकाम साबित हो रही थी।

मुझे पहले भी लगा था कि जब तक उस ढोंगी बाबा को सजा नहीं मिलेगी, छोटी का ठीक होना संभव नहीं है, और अब धीरे धीरे उस बात ने मेरे मन को और जकड़ लिया।
अब मैंने तनु और आंटी से इस बारे में बता के उनके यहाँ आते जाते इसी विषय में बात करके उपाय ढूंढने शुरू कर दिये, मैं उन लोगों से बाबा के बारे में हर वो बात पूछना चाहता था जो वो लोग जानते थे।

मैं बाबा को चारों तरफ से घेरने के लिए एक जासूस की तरह सोचने लगा, फिर मैंने सोचा कि क्यों ना एक बार उस गांव से होकर आया जाये जहां ये घटना घटी थी.

मैंने अपनी आगे की तैयारी उसके गाँव से आने के बाद करने की सोची, लेकिन मैं वहाँ अकेले नहीं जा सकता था। और छोटी के साथ आंटी का रहना भी जरूरी था, इसलिए मैंने तनु के साथ वहाँ जाने का फैसला किया लेकिन उनके पति जाने कि इजाजत नहीं देते इसलिए उन्हें हम लोगों ने मकान का किराया वसूलने और कुछ छूटे सामानों को लाने का बहाना करके दो दिन की छुट्टी के लिए तैयार किया।

ऐसे भी यह बात एकदम से गलत नहीं थी, छोटी और उसकी माँ को गांव से आये छह महीने हो गये थे, उसका किराया लेना सच में जरूरी था, हम लोगों ने वहाँ आने की खबर कर दी, ताकि वो पैसे तैयार रखें और साथ ही एक कमरा भी खाली और तैयार रखें ताकि हम वहाँ दो दिन रुक सकें।

हम सारी तैयारियों के साथ मंगलवार के दिन सुबह पांच बजे से ही, तनु भाभी के यहाँ की कार में निकल गये, मंगलवार को ही जाने का भी एक कारण था, इस दिन वो ढोंगी बाबा अपने आश्रम में विशेष अनुष्ठान और पूजा पाठ से भक्तों को इलाज के लिए सुबह दस बजे से बुलाता है।
उसने अनुष्ठान इलाज के लिए मंगलवार और शनिवार का दिन चयन कर रखा था।

हमारे कस्बे से तनु का गांव चार घंटे की दूरी पर है, इसलिए हम सुबह से निकले थे ताकि हम भी बाबा के पास किसी इलाज के बहाने जाकर उनके पाखंड को समझ सकें।
वैसे मैंने तनु और आंटी से उस ढोंगी बाबा के बारे में कुछ बातें जान ली थी, और तनु ने रास्ते भर अपने गांव की पुरानी बातों को रोहन, स्कूल और सहेलियों को खूब याद किया, कई बार तो उसकी आंखें भी भर आई और कभी कभी वो खुश होकर उछल भी पड़ती थी।

और जब तनु को अपनी कामुक दास्तान याद हो आती तो वो मेरा लंड सहलाने लगती थी, मैं भी उसकी चूत पर हाथ फेर देता था, मन तो होता था कि उसे गाड़ी में ही चोद लूं, पर हम जहां जा रहे थे, उसके लिए देर हो जाती।
अब तक मैं भी उसकी बातों में शामिल हो गया था, सभी चीजें वहाँ पहुंचने से पहले ही महसूस करने लगा था।

पर वहाँ जाकर स्थिति को समझने का कौतुहल अलग ही था।
आंटी ने मुझे बाबा के बारे में पहले जो बताया था उसके अनुसार बाबा ज्यादातर संतानहीन और भूत प्रेत वालों के लिए अनुष्ठान करता है। वैसे तो ऐसे बाबाओं के पास दुनिया की हर बिमारी का इलाज होता है, पर भूत प्रेत के नाम से डरे लोगों को और संतान ना होने से परेशान लोगों को दूसरे मरीजों या भक्तों की अपेक्षा ज्यादा आसानी से बिस्तर तक ले जाया जा सकता है।

औसतन लोगों का इलाज एक ही तरीके से होता था पर कुछ लोगों का अलग तरह से इलाज भी किया जाता था, और ज्यादा बीमार लोगों के लिए उसी आश्रम के अंदर एक धर्मशाला की भी व्यवस्था थी, जहां मरीज और उसके साथ एक सहयोगी निशुल्क रह सकता था।

आंटी ने वहाँ के पहनावे के बारे में बताया था कि सभी लोग गर्दन से लेकर पैर तक ढके हुए बगल से नाड़ा बांधने वाला कपड़ा ही पहनते हैं, महिला हो या पुरुष दोनों ही एक ही तरह के भगवा रंग के कपड़े पहनते हैं। बाबा जी कहते हैं कि हम महिला पुरुष को समानता का दर्जा देते हैं।

उनके यहाँ आश्रम में लगभग तीस सेविका और पचास सेवक रहते हैं जो जीवन समर्पण के नियमों को पूरा करके वहाँ के सदस्य बने हैं, वहाँ बहुत बड़े बड़े और बहुत सारे कक्ष हैं, जहां उन सभी के रहने की व्यवस्था होती है। जीवन समर्पण के नियम मतलब आप सांसारिक नियमों से अलग रहकर अपना पूरा जीवन बिताने की और आश्रम के सभी नियमों को मानने की शपथ लेते हो।

आश्रम को ही सब कुछ मान कर बाहरी दुनिया से नाता तोड़ लेते हो, तब आपके जीते जी मरण की रस्म की जाती है, और फिर एक गोपनीय शुद्धिकरण होता है, उसी के बाद आप उस आश्रम के सदस्य बनते हो, जिन्हें उनकी भाषा में साधक साधिका या साधु साधवी कहा जाता है।
उन्ही लोगों में सबका कार्य भी बंटा हुआ है, कोई खाना बनाता है, कोई पहरेदारी करता है, कोई आश्रम की देखरेख करता है, बर्तन, कपड़ा, झाडू पोंछा, पानी भरने से लेकर हर काम उन्हीं लोगों को बांट कर करना होता है।

उस आश्रम में एक ऐसी जगह भी है जहाँ तक जाने की इजाजत किसी को भी नहीं है। वहाँ बाबा जी के अलावा कुछ गिनती के ही लोग आ जा सकते हैं। वहां तक पहुँचने के लिए कठोर तप और आसन करने होते हैं, उसे पार करके ही वहाँ जाया जा सकता है।

मुझे बाबा की पूरी करतूत का अड्डा वही लग रहा था, पर सिर्फ संदेह से कुछ नहीं होने वाला था, और वो कठोर तप आसन क्या हैं, ये भी हम नहीं जानते थे।
बाबा जी सिर्फ स्वेच्छा से चंदा या दान देने वालों से ही कुछ लेते थे, और वो भी अपने हाथों से कभी कुछ नहीं लेते थे, ये एक पेटी में डाल दिया जाता था, जिसे साल में एक बार ही खोला जाता था, और जब पेटी खुलती थी तब बाबा जी यह पूरा धन गरीबों में वापस बांट देते थे। आश्रम में सिर्फ खाने पीने की चीजों और कपड़े लत्ते, सरीखे समानों के दान ही रखे जाते थे।

एक तरह से देखने पर बाबा जी के सारे काम बहुत अच्छे लग रहे थे, पर गड़बड़ कहाँ थी, यह समझने के लिए मुझे बहुत सी बातों को और जानना जरूरी था।
खैर मैं और तनु पुरानी बातों को करते हंसते बतियाते उस गांव में पहुंचे, और तनु अपने घर को देख कर भावुक हो उठी।

हमें वहाँ पहुँचने में ही लगभग नौ से ज्यादा हो गये थे, और बाबा जी के पास जितना पहले लाईन लगा लो उतना ही अच्छा होता है। तनु के किरायेदार को जब ता चला कि हम बाबा जी के यहाँ जा रहे हैं तब वे भी उन्हीं का गुण गाने लगे।

फिर हमने एक खाली कमरे जो उन्होंने हमें दिया था उसमें सामान रखा और बाबा जी के आश्रम पहुंच गये।
आश्रम गांव से लगभग पांच किलोमीटर की दूरी में था, हमें वहाँ तैयार होर पहुंचते तक पौने दस हो गये थे, और इस समय तक अंदर से लाईन लगती हुई बाहर तक आ गई थी, हमें उनके बड़े से गेट के बाहर ही लाईन लगानी पड़ी थी।

यहाँ एक और अजीब बात थी, पुरुषों की लाईन छोटी और महिलाओं की लाईन लंबी थी, इसलिए तनु को और भी दूर जाकर खड़ा होना पड़ा। मैं वहीं खड़े रह कर उस आश्रम का मुआयना करने लगा, पर वहाँ के पहरेदार मुझे तगड़े और चौकन्ने लगे इसलिए अपने शातिर दिमाग को शांत रखना ही मुझे उचित लगा।

अंदर पहुँचते ही छाया के लिए ऊपर टीन का शेड लगा था और मैं अभी भी लाईन में ही खड़ा था, गेट के अंदर लगभग दस मीटर लंबी कतार पुरुषों की थी और गेट के अंदर उतनी ही लंबी कतार महिलाओं की भी थी।

मुझे इतनी दूर से और आगे खड़े लोगों की वजह से बाबा जी स्पष्ट नजर नहीं आ रहे थे लेकिन मैं आश्रम की भव्यता और बाबा जी का वैभव अब समझ सकता था। आश्रम लगभग दस एकड़ में फैला हुआ था और बाबा जी आश्रम के शुरुआती हिस्से में ही बैठे थे ताकि कोई भी व्यक्ति आसानी से आश्रम के अंदर प्रवेश ना कर सके.

बाबा जी एक मंचनुमा कुटिया में बैठे थे जो सभी तरफ से खुला था, उस कुटिया के थोड़े पीछे लगभग दस फुट ऊंची दीवार थी, जिसके आर पार देख पाना या उसे लांघ पाना संभव नहीं लग रहा था।
माहौल बहुत ही शांत और भक्तिमय लग रहा था, हमारी कतार अब भी लंबी थी, क्योंकि मेरे पीछे और भी बहुत लोग आ गये थे, पर मैं अब सरकते हुए चौथे क्रम पर आ गया था, यहाँ से मैं बाबा को बहुत अच्छे से देख पा रहा था।
बाबा भगवा रंग की धोती पहने बैठे थे, उनके कमर के ऊपर का हिस्सा बिल्कुल नग्न था, चेहरे पर तेज और दाढ़ी बढ़ी हुई पर सेट कराई हुई सी लग रही थी। गले पर एक पतला सा गमछा रखा हुआ था जो कमर तक आ रही थी।

बाबा जी पद्मासन में बैठे हुए थे, पेट सपाट और बदन कसरती नजर आ रहा था, सर के बाल थोड़े लंबे और सीने पर भी हल्के बाल थे, जो बिल्कुल काले थे, उनके शरीर में कुछ ही बाल सफेदी लिए हुए थे, जिनमें से कुछ सर पे, कुछ दाढ़ी में और कुछ सीने पर थे, मूँछ में कोई बाल सफेद नजर नहीं आया।

मैं इन चीजों को इतनी बारीकी से इसलिए देख रहा था क्योंकि मैं बाबा की उम्र का अंदाजा लगाना चाह रहा था, देखने पर वो पैंतीस सैंतीस वर्ष के लग रहे थे, लेकिन मुझे लगता है उनकी उम्र पैंतालीस के पार रही होगी क्योंकि ऐसे लोग अपने खान पान और रहन सहन की वजह से लंबा और स्वस्थ जीवन यापन करते हैं।
उनका नाम जो भी था उसे मैं इस मंच पर खुल कर नहीं लिख सकता, इसलिए उसे हम अभी भोगानंद का नाम दे देते हैं।

और अब लंबे इंतजार के बाद उस बाबा भोगानंद से मेरी मुलाकात का वक्त भी आ गया। मैंने उनके पैर छूये और सामने बिछी चटाई में बैठ गया, उन्होंने कहा.. क्या समस्या है बालक.. मैंने इस विषय में कुछ सोचा नहीं था, फिर भी अचानक ही कह दिया- व्यवसाय में दिक्कत हो रही है बाबा!
तो उन्होंने अपने पास एक कटोरे में रखी छोटी सी कागज की पर्ची मुझे उठा कर थमा दी और थोड़ी दूर पर एक मेज की ओर इशारा करके कहा- वहाँ चले जाओ।

मैंने जी बाबा जी कहते हुए फिर चरण छुए और उस मेज की ओर बढ़ गया।

कहानी जारी रहेगी.
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