कुंवारी भोली–9
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शगन कुमार
मुझे कुछ कहने की ज़रूरत नहीं थी। मैं खड़ी हो कर उससे लिपट गई। एक बार फिर मेरे नंगे बदन को उसके लिंग के छूने का अहसास नहीं हुआ… वह फिर से थक कर लटक गया था। मैंने अपना हाथ नीचे करके लिंग को हाथ में लिया और उसे प्यार से सहलाने लगी। यह मुझे क्या हो गया था… मेरी लज्जा कहाँ चली गई थी? मेरी देह पर मेरे दिमाग का बस नहीं चल रहा था… मेरे अंग अपनी मनमानी कर रहे थे।
भोंपू भी चौंक गया… उसे मुझसे यह उम्मीद नहीं थी… पर उसके लिए यह एक अच्छा अहसास था… वह शुरू से ही मुझे यौन-द्वंद्व में बराबर का हिस्सेदार बनाना चाहता था।
“मुझे बहुत मज़ा आया… तुम बहुत अच्छी हो।” भोंपू ने मेरी पीठ पर हाथ फेरते हुए कहा कहा।
“मुझे भी अच्छा लगा” मैंने बेशरमी से कह दिया।
“तुमको वो कैसा लगा?” उसने मेरी चूत पर हाथ रख कर मुँह से चाटने का इशारा किया।
“बहुत अच्छा !”
“दोबारा करवाओगी?”
मैंने जोर से सिर हिलाकर हामी भरी।
“तो एक काम करते हैं… दोनों को और भी मज़ा आएगा।” उसने सुझाव दिया।
“क्या?” मैंने पूछा।
“तुम्हारी मुन्नी को साफ़ करना है !”
“क्या? गन्दी है?” मैंने चिंतित होकर पूछा, मुझे लगा मेरी योनि उसे गन्दी लगी जबकि उसका लिंग मुझे बिल्कुल साफ़ लगा था। मुझे क्षोभ हुआ।
“नहीं… नहीं… ऐसा नहीं है… बस वहाँ के बाल छांटने हैं… मुँह में आते हैं ना !” उसने शिकवे के लहज़े में कहा।
“कैसे?” मैंने पूछा।
“वो तुम मुझ पर छोड़ दो… तुम्हें कोई आपत्ति तो नहीं है ना?”
“अगर तुम्हें अच्छा लगेगा तो ठीक है…” मैंने कहा और फिर पूछा,”कैसे करोगे? दर्द होगा?”
“अरे पगली, बाल काटने से भी कभी दर्द होता है…” उसने हँसते हुए जवाब दिया और अपने बस्ते में कुछ ढूँढने लगा।
“तुम बिस्तर के किनारे पर टांगें लटका कर लेट जाओ !” उसने हुक्म दिया।
मैं अच्छे बच्चे की तरह लेट गई… मैंने देखा वह एक छोटी कैंची और उस्तरा लेकर आ रहा था। उसने उनको बिस्तर पर रखा और फिर बाथरूम से एक मग में पानी ले आया। उसने मेरी टांगें खींच कर बिस्तर से लटका दीं जिससे मेरे पांव ज़मीन पर टिक गए और मेरे कूल्हे आधे बिस्तर पर और आधे हवा में हो गए। उसने मेरी टांगें अच्छी तरह खोल दीं और नीचे ज़मीन पर पुराना अखबार बिछा दिया। अब उसने कैंची से मेरे निचले बाल कतरने शुरू किये, बालों के छोटे छोटे झुण्ड बनाकर काट रहा था। उसकी उँगलियाँ जाँघों को लगीं तो मुझे गुदगुदी हुई और मैंने टांगें इधर-उधर हिलाईं।
“क्या कर रही हो… लग जायेगी” उसने कैंची वाला हाथ दूर करते हुए कहा।
“तुम गुदगुदी क्यों कर रहे हो?” मैंने शिकायत की।
“चुपचाप रहो और हिलो मत !” उसने आदेश दिया और फिर कतरने लगा। थोड़ी देर में वह अपने काम से संतुष्ट हो गया और उसने कैंची एक तरफ रख दी।
“हो गया?” मैंने पूछा।
“नहीं बाबा… अभी नहीं… अब ध्यान रखना और हिलना मत… मैं उस्तरे से तुम्हारा शेव करूँगा !” और वह मग में उँगलियाँ गीली करके मेरी योनि के इर्द-गिर्द के इलाके को गीला करने लगा। मैं सहम गई और अपनी टांगें कस लीं।
“घबराओ मत… कुछ नहीं होगा… बहुत सी लड़कियाँ ये करती हैं।” उसने मेरा ढांढस बढ़ाने के लिए कहा।
मैं चौकन्नी हो कर लेटी रही और अपनी आँखें बंद कर लीं।
उसने योनि से 3-4 इंच दूर अपनी तर्जनी उँगली और अंगूठे को रखा और नीचे दबाते हुए दोनों को बाहर की तरफ खींचा जिससे उनके बीच की चमड़ी खिंच गई… उसको खिंचा हुआ रखते हुए उसने उस्तरे को उँगली के पास रखकर अंगूठे तक चला दिया। एक ख्रिच सी आवाज़ हुई और उस्तरे ने उस इलाके के बाल बिल्कुल साफ़ कर दिए… मैं दर्द के अंदेशे से कसमसा गई पर दर्द नहीं हुआ। भोंपू ने फिर अपनी उँगली और अंगूठा उसके पास वाले इलाके पर रखा और चमड़ी खींचते हुए फिर उस्तरा चला दिया। उसने ऐसा दो-तीन बार किया तो मेरा डर जाता रहा।
वह बड़े ध्यान और प्यार से शेव कर रहा था। जिस दिशा में बाल उगे हुए थे वह उसी दिशा में उस्तरा चला रहा था… नहीं तो त्वचा छिलने का डर था। बीच बीच में वह पानी लगा कर शेव के इलाके को नरम कर रहा था। योनि के चारों तरफ करीब आधा इंच के इलाके को छोड़कर बाकी पूरा इलाका साफ़ हो चुका था। मैं अपने आप को और अधिक नंगा और ठंडा महसूस कर रही थी।
“देखो… अब मैं तुम्हारी मुन्नी के पास शेव करूँगा… घबराना मत… अगर तुम नहीं हिलोगी तो कुछ नहीं होगा।” उसने मुझे चौकस करते हुए कहा। मैंने सिर हिलाकर हाँ की। उसने योनि के होटों पर गीली उँगलियाँ चलाईं और फिर पूरे ध्यान के साथ मेरे सबसे मर्मशील अंग के पास शेव करने लगा।
मैं सांस रोके लेटी हुई थी… पलक भी नहीं झपक रही थी।
उसने कुछ देर में पूरी जगह शेव कर दिया और अपने काम को निहारने लगा। भोंपू ने पानी में तौलिए का किनारा गीला किया और मेरी योनि को अच्छे से पौंछने लगा। उसने यकीन किया कि कहीं कोई बाल नहीं छूटा और ना ही कटा बाल लगा रह गया है। जब वह खड़ा हुआ तो मैंने सांस लेना शुरू किया और उठ गई।
मैंने खड़े होकर अपने आप को देखा तो पहचान नहीं पाई। मेरी योनि इतनी नंगी… मुझे उन दिनों की याद आ गई जब मेरी योनि पर बाल नहीं आये थे… करीब 5-6 साल तो हो गए होंगे। मुझे शर्म आ गई और मैंने योनि पर हाथ रख दिया। मेरे हाथ लगते ही वह इलाका मुझे बहुत संवेदनशील लगा।
भोंपू मेरे सामने ज़मीन पर बैठ गया… मेरे हाथ योनि से हटाये, अपना मुँह वहाँ चिपका दिया और एक बार पूरे इलाके को चूम लिया… “वाह… अब मज़ा आयेगा… तुम्हें कैसा लग रहा है?”
“बड़ा नाज़ुक और नया सा लग रहा है… और ठंडा भी !”
“आदत हो जायेगी… एक बात है… अब तुम्हें शेव करवाते रहना होगा !”
“क्यों?”
“नहीं तो जब ये बाल उगेंगे तो तुम्हें चुभेंगे… जैसे मेरी दाढ़ी तुम्हें चुभती होगी… है न?”
“अच्छा?”
“हाँ… और तुम्हें ही नहीं… मुझे भी चुभेंगे !”
“ना बाबा ना… तुम्हें नहीं चुभने चाहिए… कितने दिनों में करना होगा?”
“हर 8-10 दिनों में बाल चुभने लगेंगे !” उसने सहजता से बताया।
“उफ़ !” मेरे मुँह से निकला।
इतने में भोंपू का फोन बजा। उसने देखा बाउजी (रामाराव जी) का फोन था… उसने मुझे चुप रहने का इशारा करते हुए बात की।
“मुझे जाना होगा… घर में कुछ सामान डलवाना है।”
“साब आ गए हैं क्या?” मैंने पूछा।
“नहीं, वे 4-5 दिन बाद आयेंगे।” उसने खुश होते हुए कहा। मेरी भी सांस में सांस आई।
“तुम्हें ऐसे छोड़ कर जाने का मन नहीं हो रहा… मैं तो एक घंटे तुम्हारी नई-नवेली मुन्नी को चाटना चाहता था।”
“कल आओगे ना?” मैंने भी हताश होते हुए पूछा।
“इसमें क्या शक है? ज़रूर आऊँगा… अभी तो तुम्हें बहुत कुछ सिखाना है।” कहते हुए वह कपड़े पहनने लगा और तैयार हो कर चला गया।
मैं कई देर तक अपने आप को शीशे में निहारती रही। जब मैंने चड्डी पहनी तो मुझे बड़ा नया लगा… लग रहा था मानो चड्डी का कपड़ा योनि को हर जगह छू रहा है। मुझे लगा मैं 5-6 साल छोटी हो गई हूँ… जब मेरे नीचे के बाल नहीं आये थे।
अगले दिन भोंपू सुबह नाश्ता लेकर आया पर बाहर से ही देकर चला गया। जाते वक्त मुझे कह दिया कि वह समय पाते ही आ जायेगा। नाश्ते में पूरी-भाजी थी… हमने चाय के साथ नाश्ता किया और शीलू-गुंटू स्कूल चले गए। मैंने जल्दी जल्दी अपना काम खत्म किया। शीलू-गुंटू के सामने मैं अभी भी लंगड़ाने का नाटक कर रही थी जिससे भोंपू के बार बार घर आने का बहाना कायम रहे। मुझे वासना का नशा चढ़ गया था। पिछले दो-तीन दिनों में मैं पूरी बदल गई थी। पहले मुझे जो जो काम गंदे लगते थे अब मुझे बस उन्हीं का ख्याल रहता था। अपने गुप्तांगों के प्रति भी मेरा रुख बहुत बदल गया था… और सबसे बड़ी बात तो यह थी कि मुझे मर्द के लिंग से अब घबराहट होनी बंद हो गई थी… वह अच्छा लगने लगा था। मेरा मन आठों पहर यौन में ही लगा रहने लगा था। जो भी काम करती उसमें अनेकों गलतियाँ होने लगी थीं… शुक्र है मुझे खाना नहीं बनाना पड़ रहा था।
खैर, मैंने घर की साफ़ सफाई की, कपड़े धोए और फिर नहा कर चाय बनाने लगी थी कि दरवाज़े पर एक हलकी सी खट खट… खट खट खट…खट खट हुई। दरवाज़े पर भोंपू था .. उसके हाथ में एक बैग था।
अंदर आते हुए उसने कहा- मैं हमेशा इसी तरीके से दरवाज़ा खटखटाया करूँगा… इससे तुम्हें पता चल जायेगा कि मैं हूँ।
फिर उसने दरवाज़े पर खटखटा कर नमूना दिया… दो बार तीन बार और दो बार… खट खट… खट खट खट …खट खट। मैं समझ गई।
“इसका फ़ायदा पता है?” उसने पूछा।
“क्या?”
“तुम नंगी होकर मेरा स्वागत कर सकती हो !” उसने शरारात भरी नज़रों से देखते हुए कहा।
“चलो… हटो… गंदे !” मैंने उसको धक्का देते हुए कहा और उसे चाय पकड़ाने लगी।
“चाय? वाह… तुम्हें कैसे पता चला मैं आनेवाला हूँ?”
“मुझे सब पता रहता है।” मैंने इठलाते हुए कहा और हम आमने सामने बैठ कर चाय पीने लगे।
“अच्छा जी ! तो ये बताओ आज मैं क्या करने वाला हूँ?” उसने मुझे ललकारा।
“तुम्हें तो एक ही काम आता है।” मैंने उसे चिढ़ाते हुए जवाब दिया।
“क्या?” उसने अनजान बनते हुए सवाल किया।
“अब बनो मत… तुम्हें सब पता है मेरा क्या मतलब है !!”
“तुम अजीब हो… कभी बोलती हो तुम्हें सब पता है और कभी कहती हो मुझे सब पता है !!!”
“तुमसे बातों में तो कोई नहीं जीत सकता।” मैंने हथियार डालते हुए कहा और कप उठाने लगी।
“तो किस में जीत सकती हो?” उसने फिर से ललकारा।
मैं कुछ नहीं बोली पर उसके सामने खड़ी होकर कमर से आगे झुक कर अपने हाथ ज़मीन पर रख दिए और अपना चेहरा अपने घुटनों से लगा दिया। कुछ देर ऐसे रुक कर खड़ी हो गई।
“तुम ऐसा कर सकते हो?” मैंने स्वाभिमान के साथ पूछा।
“भई वाह ! बहुत अच्छे… मैं ऐसा नहीं कर सकता… तुम योग करती हो?” उसने सच्ची तारीफ करते हुए पूछा।
“बाबा ने सिखाया था… हम तीनों को आता है।”
“कितने आसन कर सकती हो?”
“सारे ही कर पाती हूँ… क्यों?”
“फिर तो बहुत मज़ा आएगा।” कहते हुए वह अपने हाथ मलने लगा मानो कोई षड्यंत्र रच रहा हो।
“क्या सोच रहे हो?” मैं उसके मंसूबे जानना चाहती थी… मेरा मन उत्सुक हो रहा था।
“कुछ नहीं… मैं सोच रहा था योग के साथ सम्भोग… कितना मज़ा लूटा जा सकता है।”
“मतलब?… मैं नहीं समझी?”
“देखती जाओ… तुम आम खाओ… पेड़ क्यों गिनती हो?”
मैं सोच ही रही थी वह क्या योजना बना रहा है कि उसने मुझे गोदी में उठा लिया और बिस्तर पर ले जाकर गिरा दिया। वह जल्दी जल्दी मेरे कपड़े उतारने लगा और फिर खुद भी नंगा हो गया। फिर वह मुझ पर लेट गया और मुझे इधर-उधर प्यार-पुचकारने लगा। मेरे मम्मों को मुँह में लेकर उन्हें चाटने-चूसने लगा। आज वह थोड़ा बेचैन और बदहवास सा लग रहा था। उसने मम्मों को ज़ोर से मसला और मेरी चूचियों को लाल कर दिया… एक बार तो उसने मम्मों में दांत गड़ा कर मेरी चीख ही निकलवा दी।
उसकी टांगें और हाथ मेरे पूरे बदन पर बेदर्दी से चल रहे थे। मुझे यहाँ-वहाँ थोड़ा दर्द भी हो रहा था पर ना जाने क्यों उसके इस पागलपन में मुझे मज़ा भी आ रहा था। वह मुझे जगह जगह दबा रहा था और मेरे हर अंग को चोट-कचोट रहा था। मैंने उसका यह रूप पहले नहीं देखा था। उसने मेरे सिर के नीचे से तकिया खींच कर निकाल दिया और मेरे चूतड़ों के नीचे रख दिया। अब उसने मेरी दोनों टांगों को घुटनों से मोड़ कर मेरे घुटनों को मेरे स्तनों के पास लगा दिया… इस तरह मैं जैसे तीन परतों में तह हो गई। अब उसने अपनी बाहें मेरे घुटनों के नीचे डाल कर मेरी टांगों को मेरे बहुत ज़्यादा पीछे कर दिया… मैं एक तरह से दोहरी हो गई थी… मेरे पैर मेरे कानों के पास थे। अब उसने मेरी चिकनी साफ़ चूत को अपने मुँह के हवाले किया और उसको चाटने, चूसने और चखने लगा। योग अभ्यास के कारण मुझे इस आसन में ज़्यादा तकलीफ़ नहीं हो रही थी। वह मुझे जिस तरह पागलों माफिक प्यार कर रहा था मुझे बहुत अच्छा लग रहा था और इसके लिए मैं थोड़ा बहुत दर्द आसानी से सह सकती थी। उसने मेरे योनि होटों को जीभ से खोल कर जीभ अंदर डाल दी और चटकारे लेने लगा।
उसका एक हाथ मेरे चूतड़ के नीचे चला गया था और वहाँ से एक उँगली मेरी गुदा में डालने लगा।
“अरे अरे… ये क्या कर रहे हो?” मैं एकदम उचक गई।
उसने मेरी अनसुनी कर दी और उस छेद पर उँगली का ज़ोर बनाता गया।
“छी छी… तुम तो वाकई बहुत गंदे हो।” मैंने असलियत में विरोध जताते हुए कहा।
“क्या? मैंने क्या गन्दा किया?” उसने पूछा।
“वहाँ से उँगली हटाओ।” मैंने पहली बार आदेश दिया।
“कहाँ से?” उसने नादान बनते हुए पूछा।
“तुम जानते हो।”
“हाँ… जानता हूँ… पर तुम्हारे मुँह से सुनना चाहता हूँ।”
“क्यों?”
“तुम अंगों का नाम लेने से क्यों घबराती हो?”
“नहीं तो?”
“फिर लेती क्यों नहीं?” उसने सहजता से पूछा।
मैं कुछ नहीं बोली तो उसने जानबूझकर गुदा में उँगली का दबाव बढ़ा दिया। मैं कुछ नहीं बोली और अपने हाथ से उसका हाथ वहाँ से हटाने लगी। उसने अपनी ताक़त के सहारे मुझे हाथ नहीं हटाने दिया और ज़्यादा ज़ोर के साथ उँगली छेद में डालने लगा।
“ऊई !!” जैसे ही उसकी उँगली का सिरा अंदर गया तो मुझे दर्द हुआ और मैं अपने कूल्हे इधर-उधर हिलाने लगी।
“ऊ ऊ ऊई… दर्द हो रहा है !” मैंने कहा।
“मालूम है… मैं जानबूझ कर कर रहा हूँ… जब तक तुम नाम लेकर मना नहीं करोगी मैं करता रहूँगा !” उसने दृढ़ता से कहा।
“मुझे नाम नहीं मालूम !” मैंने सच कहा।
तो उसने उँगली को अंदर दबाते हुए कहा,” इसको गांड कहते हैं।”
मैं कुछ नहीं बोली।
“तो तुम्हें गांड गन्दी लगती है?”
“लगती क्या है… होती ही है।” मैंने विश्वास से कहा।
“देखो…” कहकर उसने अपनी उँगली छेद से निकाली… मेरे चूतड़ ऊपर उठाये और उनको छत की दिशा में करके अपने अंगूठों से मेरे चूतड़ खोल दिए। फिर बिना किसी झिझक के उसने अपनी जीभ मेरे उसी छेद पर रख दी।
“ऊउई माँ…” मैं भौचक्की रह गई और अपने आप को उसके चंगुल से छुटाने लगी।
भोंपू बिना किसी हाव-भाव के जीभ को छेद के चारों ओर घुमाने लगा और बीच बीच में छेद के अंदर भी दबाने लगा। मुझे अभी भी विश्वास नहीं हो रहा था कोई वहाँ जीभ भी लगा सकता है। भोंपू अपनी जीभ उस छेद से लेकर योनि के ऊपर तक चलाने लगा।
धीरे धीरे मेरा प्रारंभिक आश्चर्य खत्म हुआ और मुझे उसकी जीभ के करतब महसूस होने लगे। मुझे तो योनि पर ही उसकी जीभ बहुत आनन्द देती थी… पर उस छेद पर तो उसकी जीभ मुझ पर बिजलियाँ गिरा रही थी। मैं गुदगुदी और अचरज से मचल रही थी… मुझे बहुत गहरा मज़ा आने लगा था।
भोंपू ने अपना सिर मेरी टांगों के बीच से निकाला और पूछा “कैसा लगा?”
मैं आनन्द और आश्चर्य से लाजवाब थी… कुछ नहीं बोली।
“अब तो गांड को गन्दा नहीं समझोगी? गन्दी चीज़ को मुँह थोड़े ही लगा सकते हैं… हैं ना?”
“हाँ !” मेरे मुँह से निकला।
“हाँ क्या?” उसने ज़ोर देकर पूछा।
“गन्दा नहीं समझूंगी।” मैंने जवाब दिया।
“किसे?” वह मुझे छोड़ नहीं रहा था।
“गांड को !” मैंने एक गहरी सांस लेते हुए दबे स्वर में कहा।
“मुझे सुनाई नहीं दिया।” उसने कहा।
“मैंने कहा मैं गांड को गन्दा नहीं कहूँगी।” मैंने सिर उठा कर थोड़ा ज़ोर से कहा।
“कहोगी भी नहीं और गन्दा समझोगी भी नहीं… ठीक है?”
“ठीक है।” मैं इस विषय पर ज़्यादा बहस नहीं करना चाहती थी।
“ऐसे नहीं… तुम्हारा इम्तिहान होगा…” उसने ऐलान किया।
“कैसे?” मैंने पूछा।
जवाब में भोंपू बिस्तर पर लेट गया और अपनी टांगें उसी मुद्रा में ऊपर कर लीं जिसमें वह मेरी गांड चाट रहा था।
“देखें… तुम सच कह रही हो या नहीं… चलो… मैं तैयार हूँ… तुम्हारी परीक्षा शुरू हो गई है।”
मुझे समझ आ गया मुझे क्या करना है। अपनी गांड चटवाना एक बात है पर यह परीक्षा… मैं हिचकिचा रही थी।
“तुम फ़ेल हो गई।” भोंपू ने उठते हुए घोषणा की।
“नहीं… नहीं… फ़ेल नहीं” मैंने उसको धक्का देकर बिस्तर पर गिराते हुए कहा और उसको गांड-चुस्सी मुद्रा में कर दिया। फिर अपने हाथ से मैंने उसकी गांड साफ़ की और धीरे धीरे अपना सिर आगे करते हुए अपनी जीभ उसकी गांड के छेद के पास लगा दी और फिर उठने लगी।
“फ़ेल… फ़ेल…” भोंपू कहते हुए उठने लगा।
मैंने उसको वापस दबाते हुए अपनी जीभ सीधे उसकी गांड के छेद पर रख दी और जी कड़ा करके उसको गोल घुमाने लगी।
“नाटक छोड़ो… या तो मज़े लेकर करो… या फिर अपने आप को फ़ेल समझो !” भोंपू ने चेतावनी दी।
मैंने भी सोचा जब जीभ लगा ही दी है तो अब क्या फर्क पड़ता है… ओखली में सिर देकर मूसली से क्यों डरूं… और फिर भोंपू के व्यंग्यों से भी छुटकारा पाना था। इस सोच ने मेरे संकोच को दूर किया और पूरे निश्चय के साथ मैंने अपने मुँह से उसकी गांड पर धावा बोल दिया। मैं भोंपू के हर इम्तिहान में पास होकर दिखाना चाहती थी… और उसने भी तो मेरी गांड चाटी थी। मुझ पर जैसे चंडी चढ़ गई थी… मैंने उसकी गांड के छेद के चारों ओर जीभ घुमाई और फिर जीभ पैनी करके छेद में डालने की कोशिश करने लगी।
ज़ाहिर था भोंपू को अच्छा लग रहा था… उसने आँखें बंद कर लीं थीं और उसके चेहरे पर एक संतोषजनक मुस्कान थी। मैंने जीभ उसकी गांड के पूरे कटाव पर चलाई और उसके टट्टों को एक एक करके मुँह में लेकर चूसने लगी। मैंने मुँह से उसके निम्नांगों पर प्रहार जारी रखा और एक हाथ में उसका लिंग पकड़ लिया और उसे सहलाने लगी। मेरा दूसरा हाथ उसके पेट और सीने पर चल रहा था… कभी उँगलियाँ तो कभी नाखून चला कर उसे गुदगुदा रही थी।
भोंपू मज़े ले रहा था… उसकी प्रसन्न-मुद्रा देखकर मुझे भी अच्छा लगने लगा … मेरी सारी शर्म और आपत्ति काफ़ूर हो चुकी थी… मैं मगन हो कर उसके बदन की बांसुरी बजा रही थी।
अचानक भोंपू ने मेरा सिर नीचे से हटाकर मेरा मुँह अपने लिंग पर लगा दिया… मैं समझ गई और उसके आधे खड़े लिंग में जान फूंकने लगी… जीभ से लंड को जड़ से सुपारे तक चाटने लगी… फिर सुपारे को जीभ से लपलपा कर चिढ़ाने लगी… लिंग में जान आती जा रही थी और वह लगभग पूरा खड़ा हो गया था। मुझे अपना आसन बदलना पड़ा जिससे लंड को ठीक से मुँह में ले पाऊँ। मैंने लंड को मुँह में ले लिया पर वह पूरा अंदर नहीं आया… मैंने जैसे कल सीखा था… अपनी जीभ निकाल कर फिर कोशिश की पर अभी भी आधे से थोड़ा ज़्यादा ही अंदर ले पाई। भोंपू मेरे प्रयासों से खुश था पर मैं सारी कोशिशों के बावजूद भी लंड पूरा अंदर नहीं ले पाई… कल के अनुभव के बाद तो मुझे लगा था मैं पूरा निगल सकती थी।
“ऐसे नहीं जायेगा !” भोंपू ने कहा,”गर्दन मुँह के सीध में करनी पड़ेगी।” उसने युक्ति दी और कहा,” हर बार पूरा अंदर लेने की ज़रूरत नहीं है… मुझे तो ऐसे भी मज़ा आता है।”
मैंने सिर हिलाकर उसकी बात समझने का संकेत दिया और लंड को प्यार से चूमती-चाटती रही। अब मैं अपना सिर ऊपर नीचे करके लंड को मुँह में अंदर-बाहर कर रही थी।
उसकी उत्तेजना बढ़ रही थी… मैं उसके बदन के अकड़ने को महसूस कर रही थी और उसका लंड और भी फूल गया था… उसके सुपारे पर नसें उभर गईं थीं। उसने अपना हाथ मेरे सिर के पीछे लगा दिया और एक लय में मेरे मुँह को लंड पर ऊपर-नीचे करने लगा। कभी कभी वह अपनी कमर उचका कर लंड को मुँह के और अंदर डालने की हरकत करता। भोंपू चौकन्ना होता प्रतीत हो रहा था।
मैं थोड़ा थक रही थी सो मैंने मुँह से लंड निकालने के लिए अपने आप को ऊपर किया… तभी भोंपू ने मेरे सिर को ज़ोर से दबाते हुए लंड पूरा अंदर डाल दिया और ज़ोर से आआहहाह्ह चिल्लाते हुए मेरे मुँह की चुदाई सी करने लगा।
अचानक मेरे मुँह में कुछ लिसलिसा सा भरने लगा… मैंने झट से अपना मुँह खोल दिया और मेरे मुँह से भोंपू का दूध गिरने लगा। भोंपू ने ज़ोर लगा कर लंड फिर से मुँह में डाल दिया और मेरे सिर को कसकर पकड़ लिया। मैं कुछ ना कर सकी… उसका बाकी रस मेरे मुँह में बरस गया। उसने काफ़ी देर तक मुझे हिलने नहीं दिया… मुझे हारकर उसका काफ़ी रस निगलना पड़ा। उसका स्वाद थोड़ा नमकीन लगा… इतना खराब नहीं था जितना मुझे डर था।
अब भोंपू ने मेरे ऊपर से दबाव हटाया और मैंने लंड को मुँह से निकाला… वह लचीला हो कर लाचार सा भोंपू के पेट पर चित हो गया।
“पास या फ़ेल?” मैंने उठते हुए पूछा।
“पास !” उसने ज़ोर से कहा।
“सौ में से सौ !” और मुझे गले लगा लिया।
मुझे भोंपू के मुरझाये और तन्नाये… दोनों दशा के लंड अच्छे लगने लगे थे। मुरझाये पर दुलार आता था और तन्नाये से तन-मन में हूक सी उठती थी। मुरझाये लिंग में जान डालने का मज़ा आता था तो तन्नाये लंड की जान निकालने का मौक़ा मिलता था। मुझे उसके मर्दाने दूध का स्वाद भी अच्छा लगने लगा था।
शेष कहानी ‘कुंवारी भोली-10’ में जारी है।
शगन
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