कुंवारी भोली -2

(Kunvari Bholi-2)

शगन कुमार 2011-06-26 Comments

This story is part of a series:

भोंपू को कुछ हो गया था… उसने आगे खिसक कर फिर संपर्क बना लिया और अपने लिंग को मेरे तलवे के साथ रगड़ने लगा। उसका चेहरा अकड़ने लगा था और सांस फूलने लगी थी… उसने अपनी गति तेज़ की और फिर अचानक वहाँ से भाग कर गुसलखाने में चला गया…

भोंपू के अचानक भागने की आवाज़ सुनकर शीलू और गुंटू दोनों कमरे में आ गए,’क्या हुआ दीदी? सब ठीक तो है?’

‘हाँ… हाँ सब ठीक है।’
‘मास्टरजी कहाँ गए?’
‘बाथरूम गए हैं… तुमने सवाल कर लिए?’
‘नहीं… एक-दो बचे हैं !’
‘तो उनको कर लो… फिर खाना खाएँगे… ठीक है?’
‘ठीक है।’ कहकर वे दोनों चले गए।

भोंपू तभी गुसलखाने से वापस आया। उसका चेहरा चमक रहा था और उसकी चाल में स्फूर्ति थी। उसने मेरी तरफ प्यार से देखा पर मैं उससे नज़र नहीं मिला सकी।
‘अब दर्द कैसा है?’ उसने मासूमियत से पूछा।
‘पहले से कम है…अब मैं ठीक हूँ।’
‘नहीं… तुम ठीक नहीं हो… अभी तुम्हें ठीक होने में 2-4 दिन लगेंगे… पर चिंता मत करो… मैं हूँ ना !!’ उसने शरारती अंदाज़ में कहा।
‘नहीं… अब बहुत आराम है… मैं कर लूंगी…’ मैंने मायूस हो कर कहा।
‘तो क्या तुम्हें मेरा इलाज पसंद नहीं आया?’ भोंपू ने नाटकीय अंदाज़ में पूछा।
‘ऐसा नहीं है… तुम्हें तकलीफ़ होगी… और फिर चोट इतनी भी नहीं है।’

‘तकलीफ़ कैसी… मुझे तो मज़ा आया… बल्कि यूँ कहो कि बहुत मज़ा आया… तुम्हें नहीं आया?’ उसने मेरी आँखों में आँखें डालते हुए मेरा मन टटोला।

मैंने सर हिला कर हामी भर दी। भोंपू की बांछें खिल गईं और वह मुझे प्यार भरे अंदाज़ से देखने लगा। तभी दोनों बच्चे आ गए और भोंपू की तरफ देखकर कहने लगे,’हमने सब सवाल कर लिए… आप देख लो।’

‘शाबाश ! चलो देखते हैं तुम दोनों ने कैसा किया है… और हाँ, तुम्हारी दीदी की हालत ठीक नहीं है… उसको ज़्यादा काम मत करने देना… मैं बाहर से खाने का इंतजाम कर दूंगा… अपनी दीदी को आराम करने देना… ठीक है?’ कहता हुआ वह दोनों को ले जाने लगा।जाते जाते उसने मुड़कर मेरी तरफ देखा और एक हल्की सी आँख मार दी।

‘ठीक है।’ दोनों ने एक साथ कहा।

‘तो क्या हमें चिकन खाने को मिलेगा?’ गुंटू ने अपना नटखटपना दिखाया।

‘क्यों नहीं !’ भोंपू ने जोश के साथ कहा और शीलू की तरफ देखकर पूछा,’और हमारी शीलू रानी को क्या पसंद है?’

‘रस मलाई !’ शीलू ने कंधे उचका कर और मुँह में पानी भरते हुए कहा।

‘ठीक है… बटर-चिकन और रस-मलाई… और तुम क्या खाओगी?’ उसने मुझसे पूछा।

‘जो तुम ठीक समझो !’

‘तो ठीक है… अगले 2-4 दिन… जब तक तुम पूरी तरह ठीक नहीं हो जाती तुम आराम करोगी… खाना मैं लाऊँगा और तुम्हारे लिए पट्टी भी !’
‘जी !’

‘अगर तुमने अपना ध्यान नहीं रखा तो हमेशा के लिए लंगड़ी हो जाओगी… समझी?’ उसने मेरी तरफ आँख मारकर कहा।

‘जी… समझी।’ मैंने मुस्कुरा कर कहा।

‘ठीक है… तो अब मैं चलता हूँ… कल मिलते हैं…’ कहकर भोंपू चला गया।

मेरे तन-मन में नई कशिश सी चल रही थी, रह रह कर मुझे भोंपू के हाथ और उँगलियों का स्पर्श याद आ रहा था… कितना सुखमय अहसास था। मैंने अपने दाहिने तलवे पर हाथ फिराया और सोचा वह कितना खुश-किस्मत है… ना जाने क्यों मेरा हाथ उस तलवे से ईर्ष्या कर रहा था। मेरे तन-मन में उत्सुकता जन्म ले रही थी जो भोंपू के जिस्म को देखना, छूना और महसूस करना चाहती थी। ऐसी कामना मेरे मन में पहले कभी नहीं हुई थी।

मैंने देखा मेरे पांव और घुटने का दर्द पहले से बहुत कम है और मैं चल-फिर सकती हूँ। पर फिर मुझे भोंपू की चेतावनी याद आ गई… मैं हमेशा के लिए लंगड़ी नहीं रहना चाहती थी। फिर सोचा… उसने मुझे आँख क्यों मारी थी? क्या वह मुझे कोई संकेत देना चाहता था? क्या उसे भी पता है मेरी चोट इतनी बड़ी नहीं है?…क्या वह इस चोट के बहाने मेरे साथ समय बिताना चाहता है? सारी रात मैं इसी उधेड़-बुन में रही… ठीक से नींद भी नहीं आई।

अगले दिन सुबह सुबह ही भोंपू मसाला-दोसा लेकर आ गया। शीलू ने कॉफी बनाईं और हमने नाश्ता किया। नाश्ते के बाद भोंपू काम पर जाने लगा तो शीलू और गुंटू को रास्ते में स्कूल छोड़ने के लिए अपने साथ ले गया। जाते वक्त उसने मेरी तरफ आँखों से कुछ इशारा करने की कोशिश की पर मुझे समझ नहीं आया।

मैंने उसकी तरफ प्रश्नात्मक तरीके से देखा तो उसने छुपते छुपते अपने एक हाथ को दो बार खोल कर ‘दस’ का इशारा किया और मुस्कुरा कर दोनों बच्चों को लेकर चला गया।

मैं असमंजस में थी… दस का क्या मतलब था?

अभी आठ बज रहे थे। क्या वह दस बजे आएगा? उस समय तो घर पर कोई नहीं होता… उसके आने के बारे में सोचकर मेरी बांछें खिलने लगीं… मेरे अंग अंग में गुदगुदी होने लगी… सब कुछ अच्छा लगने लगा… मैं गुनगुनाती हुई घर साफ़ करने लगी… रह रह कर मेरी निगाह घड़ी की तरफ जाती… मुई बहुत धीरे चल रही थी। जैसे तैसे साढ़े नौ बजे और मैं गुसलखाने में गई… मैंने अपने आप को देर तक रगड़ कर नहलाया, अच्छे से चोटी बनाईं, साफ़ कपड़े पहने और फिर भोंपू का इंतज़ार करने लगी।

हमारे यहाँ जब लड़की वयस्क हो जाती है, यानि जब उसको मासिक-धर्म होने लगता है, तबसे लेकर जब तक उसकी शादी नहीं हो जाती उसकी पोशाक तय होती है। वह चोली, घाघरा और चोली के ऊपर एक दुपट्टे-नुमा कपड़ा लेती है जिससे वह अपना वक्ष ढक कर रखती है। इस पोशाक को हाफ-साड़ी भी कहते हैं। इसे पहनने वाली लड़कियाँ शादी के लिए तैयार मानी जाती हैं। शादी के बाद लड़कियाँ केवल साड़ी ही पहनती हैं। जो छोटी लड़कियाँ होती हैं, यानि जिनका मासिक-धर्मं शुरू नहीं हुआ होता, वे फ्रॉक या बच्चों लायक कपड़े पहनती हैं। मैंने प्रथानुसार हाफ-साड़ी पहनी थी।

दस बज गए पर वह नहीं आया। मेरा मन उतावला हो रहा था। ये क्यों नहीं आ रहा? कहीं उसका मतलब कुछ और तो नहीं था? ओह… आज नौ तारीख है… कहीं वह दस तारीख के लिए इशारा तो नहीं कर रहा था? मैं भी कितनी बेवकूफ हूँ… दस बज कर बीस मिनट हो रहे थे और मुझे भरोसा हो गया था कि वह अब नहीं आयेगा।

मैं उठ कर कपड़े बदलने ही वाली थी कि किसी ने धीरे से दरवाज़ा खटखटाया।

मैं चौंक गई… पर फिर संभल कर… जल्दी से दरवाज़ा खोलने गई। सामने भोंपू खड़ा था… उसके चेहरे पर मुस्कराहट, दोनों हाथों में ढेर सारे पैकेट… और मुँह में एक गुलाब का फूल था।

उसे देखकर मैं खुश हो गई और जल्दी से आगे बढ़कर उसके हाथों से पैकेट लेने लगी… उसने अपने एक हाथ का सामान मुझे पकड़ा दिया और अंदर आ गया। अंदर आते ही उसने अपने मुँह में पकड़ा हुआ गुलाब निकाल कर मुझे झुक कर पेश किया। किसी ने पहली बार मुझे इस तरह का तोहफा दिया था। मैंने खुशी से उसे ले लिया।

‘माफ करना ! मुझे देर हो गई… दस बजे आना था पर फिर मैंने सोचा दोपहर का खाना लेकर एक बार ही चलूँ… अब हम बच्चों के वापस आने तक फ्री हैं !’

‘अच्छा किया… एक बार तो मैं डर ही गई थी।’

‘किस लिए?’

‘कहीं तुम नहीं आये तो?’ मैंने शरमाते हुए कहा।

‘ऐसा कैसे हो सकता है?… साब हैदराबाद गए हुए हैं और बाबा लोग भी बाहर हैं… मैं बिल्कुल फ्री हू॥’

‘चाय पियोगे?’

‘और नहीं तो क्या…? और देखो… थोड़ा गरम पानी अलग से इलाज के लिए भी चाहिये।’

मैं चाय बनाने लगी और भोंपू बाजार से लाये सामान को मेज़ पर जमाने लगा।

‘ठीक है… चीनी?’

‘वैसे तो मैं दो चम्मच लेता हूँ पर तुम बना रही हो तो एक चम्मच भी काफी होगी ‘ भोंपू आशिकाना हो रहा था।

‘चलो हटो… अब बताओ भी?’ मैंने उसकी तरफ नाक सिकोड़ कर पूछा।

‘अरे बाबा… एक चम्मच बहुत है… और तुम भी एक से ज़्यादा मत लेना… पहले ही बहुत मीठी हो…’

‘तुम्हें कैसे मालूम?’

‘क्या?’

‘कि मैं बहुत मीठी हूँ?’

‘ओह… मैंने तो बिना चखे ही बता दिया… लो चख के बताता हूँ…’ कहते हुए उसने मुझे पीछे से आकर जकड़ लिया और मेरे मुँह को अपनी तरफ घुमा कर मेरे होंटों पर एक पप्पी जड़ दी।

‘अरे… तुम तो बहुत ज्यादा मीठी हो… तुम्हें तो एक भी चम्मच चीनी नहीं लेनी चाहिए…’

‘और तुम्हें कम से कम दस चम्मच लेनी चाहिए !’ मैंने अपने आप को उसके चंगुल से छुडाते हुए बोला… ‘एकदम कड़वे हो !!’

‘फिर तो हम पक्का एक दूसरे के लिए ही बने हैं… तुम मेरी कड़वाहट कम करो, मैं तुम्हारी मिठास कम करता हूँ… दोनों ठीक हो जायेंगे!!’

‘बड़े चालाक हो…’

‘और तुम चाय बहुत धीरे धीरे बनाती हो…’ उसने मुझे फिर से पीछे से पकड़ने की कोशिश करते हुए कहा।

‘देखो चाय गिर जायेगी… तुम जल जाओगे।’ मैंने उसे दूर करते हुए चाय कप में डालनी शुरू की।

‘क्या यार.. एक तो तुम इतनी धीरे धीरे चाय बनाती हो और फिर इतनी गरम बनाती हो… पूरा समय तो इसे पीने में ही निकल जायेगा !!!’

‘क्यों?… तुम्हें कहीं जाना है?’ मैंने चिंतित होकर पूछा।

‘अरे नहीं… तुम्हारा ‘इलाज’ जो करना है… उसके लिए समय तो चाहिए ना !!’ कहते हुए उसने चाय तश्तरी में डाली और सूड़प करके पी गया।

‘अरे… ये क्या?… धीरे धीरे पियो… मुंह जल जायेगा…’

‘चाय तो रोज ही पीते हैं… तुम्हारा इलाज रोज-रोज थोड़े ही होता है… तुम भी जल्दी पियो !’ उसने गुसलखाने जाते जाते हुक्म दिया।

मैंने जैसे तैसे चाय खत्म की तो भोंपू आ गया।

‘चलो चलो… डॉक्टर साब आ गए… इलाज का समय हो गया…’ भोंपू ने नाटकीय ढंग से कहा।

मैं उठने लगी तो मेरे कन्धों पर हाथ रखकर मुझे वापस बिठा दिया।

‘अरे… तुम्हारे पांव और घुटने में चोट है… इन पर ज़ोर मत डालो… मैं हूँ ना !’

और उसने मुझे अपनी बाहों में उठा लिया… मैंने अपनी बाहें उसकी गर्दन में डाल दी… उसने मुझे अपने शरीर के साथ चिपका लिया और मेरे कमरे की तरफ चलने लगा।

‘बड़ी खुशबू आ रही है… क्या बात है?’

‘मैं तो नहाई हूँ… तुम नहाये नहीं क्या?’

‘नहीं… सोचा था तुम नहला दोगी !’

‘धत्त… बड़े शैतान हो !’

‘नहीं… बच्चा हूँ !’

‘हरकतें तो बच्चों वाली नहीं हैं !!’

‘तुम्हें क्या पता… ये हरकतें बच्चों के लिए ही करते हैं…’

‘मतलब?… उफ़… तुमसे तो बात भी नहीं कर सकते…!!’ मैंने उसका मतलब समझते हुए कहा।

उसने मुझे धीरे से बिस्तर पर लिटा दिया।

‘कल कैसा लगा?’
‘तुम बहुत शैतान हो !’
‘शैतानी में ही मज़ा आता है ! मुझे तो बहुत आया… तुम्हें?’
‘चुप रहो !’

‘मतलब बोलूँ नहीं… सिर्फ काम करूँ?’
‘गंदे !’ मैंने मुंह सिकोड़ते हुए कहा और बिस्तर पर बैठ गई।
‘ठीक है… मैं गरम पानी लेकर आता हूँ।’

भोंपू रसोई से गरम पानी ले आया। तौलिया मैंने बिस्तर पर पहले ही रखा था। उसने मुझे बिस्तर के एक किनारे पर पीठ के बल लिटा दिया और मेरे पांव की तरफ बिस्तर पर बैठ गया। उसके दोनों पांव ज़मीं पर टिके थे और उसने मेरे दोनों पांव अपनी जाँघों पर रख लिए। अब उसने गरम तौलिए से मेरे दोनों पांव को पिंडलियों तक साफ़ किया। फिर उसने अपनी जेब से दो ट्यूब निकालीं और उनको खोलने लगा। मैंने अपने आपको अपनी कोहनियों पर ऊँचा करके देखना चाहा तो उसने मुझे धक्का देकर वापस धकेल दिया।
‘डरो मत… ऐसा वैसा कुछ नहीं करूँगा… देख लो एक विक्स है और दूसरी क्रीम… और अपना दुपट्टा मुझे दो।’

मैंने अपना दुपट्टा उसे पकड़ा दिया।
उसने मेरे चोटिल घुटने पर गरम तौलिया रख दिया और मेरे बाएं पांव पर विक्स और क्रीम का मिश्रण लगाने लगा। पांव के ऊपर, तलवे पर और पांव की उँगलियों के बीच में उसने अच्छी तरह मिश्रण लगा दिया। मुझे विक्स की तरावट महसूस होने लगी। मेरे जीवन की यह पहली मालिश थी। बरसों से थके मेरे पैरों में मानो हर जगह पीड़ा थी… उसकी उँगलियाँ और अंगूठे निपुणता से मेरे पांव के मर्मशील बिंदुओं पर दबाव डाल कर उनका दर्द हर रहे थे। कुछ ही मिनटों में मेरा बायाँ पांव हल्का और स्फूर्तिला महसूस होने लगा।कुछ देर और मालिश करने के बाद उस पांव को मेरे दुपट्टे से बाँध दिया और अब दाहिने पांव पर वही क्रिया करने लगा।
‘इसको बांधा क्यों है?’ मैंने पूछा।

‘विक्स लगी है ना बुद्धू… ठण्ड लग जायेगी… फिर तेरे पांव को जुकाम हो जायेगा !!’ उसने हँसते हुए कहा।
‘ओह… तुम तो मालिश करने में तजुर्बेकार हो !’
‘सिर्फ मालिश में ही नहीं… तुम देखती जाओ… !’
‘गंदे !!’

‘मुझे पता है लड़कियों को गंदे मर्द ही पसंद आते हैं… हैं ना?’
‘तुम्हें लड़कियों के बारे बहुत पता है?’
‘मेरे साथ रहोगी तो तुम्हें भी मर्दों के बारे में सब आ जायेगा !!’
‘छी… गंदे !!’

उसने दाहिना पांव करने के बाद मेरा दुपट्टा उस पांव पर बाँध दिया और घुटने पर दोबारा एक गरम तौलिया रख दिया। मुझे बहुत अच्छा लग रहा था। अब वह उठा और उसने मेरे दोनों पांव बिस्तर पर रख दिए और उनको एक चादर से ढक दिया। भोंपू अपनी कुर्सी खींच कर मेरे सिरहाने पर ले आया, वहाँ बैठ कर उसने मेरा सर एक और तकिया लगा कर ऊँचा किया और मेरे सर की मालिश करने लगा। मुझे इसकी कतई उम्मीद नहीं थी। उसकी उँगलियाँ मेरे बालों में घूमने लगीं और धीरे धीरे उसने अपना हुनर मेरे माथे और कपाल पर दिखाना शुरू किया। वह तो वाकई में उस्ताद था। उसे जैसे मेरी नस नस से वाकफियत थी। कहाँ दबाना है… कितना ज़ोर देना है… कितनी देर तक दबाना है… सब आता है इसको।

मैं बस मज़े ले रही थी… उसने गर्दन के पीछे… कान के पास… आँखों के बीच… ऐसी ऐसी जगहों पर दबाव डाला कि ज़रा ही देर में मेरा सर हल्का लगने लगा और सारा तनाव जाता रहा। अब वह मेरे गालों, ठोड़ी और सामने की गर्दन पर ध्यान देने लगा। मेरी आँखें बंद थीं… मैंने चोरी से एक आँख खोल कर उसे देखना चाहा… देखा वह अपने काम में तल्लीन था… उसकी आँखें भी बंद थीं। मुझे ताज्जुब भी हुआ और उस पर गर्व भी… मैंने भी अपनी आँखें मूँद लीं।

अब उसके हाथ मेरे कन्धों पर चलने लगे थे। उसने मेरी गर्दन और कन्धों पर जितनी गांठें थीं सब मसल मसल कर निकाल दीं…

जहाँ जहाँ उसकी मालिश खत्म हो रही थी, वहां वहां मुझे एक नया हल्कापन और स्फूर्ति महसूस हो रही थी।

अचानक वह उठा और बोला,’मैं पानी पीने जा रहा हूँ… तुम ऊपर के कपड़े उतार कर उलटी लेट जाओ।’

मेरी जैसे निद्रा टूट गई… मैं तन्मय होकर मालिश का मज़ा ले रही थी… अचानक उसके जाने और इस हुक्म से मुझे अचम्भा सा हुआ। हालाँकि, अब मुझे भोंपू से थोड़ा बहुत लगाव होने लगा था और उसकी जादूई मालिश का आनन्द भी आने लगा था… पर उसके सामने ऊपर से नंगी होकर लेटना… कुछ अटपटा सा लग रहा था। फिर मैंने सोचा… अगर भोंपू को मेरे साथ कुछ ऐसा वैसा काम करना होता तो अब तक कर चुका होता… वह इतनी बढ़िया मालिश का सहारा नहीं लेता।

तो मैंने मन बना लिया… जो होगा सो देखा जायेगा… इस निश्चय के साथ मैंने अपने ऊपर के सारे कपड़े उतारे और औंधी लेट गई… लेट कर मैंने अपने ऊपर एक चादर ले ली और अपने हाथ अपने शरीर के साथ समेट लिए… मतलब मेरे बाजू मेरे बदन के साथ लगे थे और मेरे हाथ मेरे स्तन के पास रखे थे। मैं थोड़ा घबराई हुई थी… उत्सुक थी कि आगे क्या होगा… और मन में हलचल हो रही थी।

इतने में ही भोंपू वापस आ गया। वह बिना कुछ कहे बिस्तर पर चढ़ गया और जैसे घोड़ी पर सवार होते हैं, मेरे कूल्हे के दोनों ओर अपने घुटने रख कर मेरे कूल्हे पर अपने चूतड़ रखकर बैठ गया। उसका वज़न पड़ते ही मेरे मुँह से आह निकली और मैं उठने को हुई तो उसने अपना वज़न अपने घुटनों पर ले लिया… साथ ही मेरे कन्धों को हाथ से दबाते हुए मुझे वापस उल्टा लिटा दिया।

इसके आगे क्या हुआ ‘कुंवारी भोली–3’ में पढ़िए !
शगन
[email protected]
2892

What did you think of this story??

Click the links to read more stories from the category चुदाई की कहानी or similar stories about

You may also like these sex stories

Download a PDF Copy of this Story

कुंवारी भोली -2

Comments

Scroll To Top