चाहत का इन्तज़ार

(Chahat Ka Intzar)

फ़ुलवा 2009-07-06 Comments

हमारे गाँव में पवन के पिताजी की करियाने की दुकान थी।
वह अपने पिताजी की तरह मोटू व अकड़ू था।

मेरे पिताजी नगर की नगरपालिका में क्लर्क थे, रोज छः किलोमीटर साइकिल चला कर दफ़्तर जाते और शाम को घर लौटते।
पवन के अतिरिक्त हमारे साथ में वह भी खेलती थी- पड़ोस की हमउम्र नाजुक-नरम सी लड़की।

उसके पिताजी शहर के सरकारी स्कूल में अध्यापक थे। वे भी साइकिल से शहर जाते थे। उनका स्कूल दोपहर में समाप्त हो जाता था तो वे दोपहर ढलने तक गाँव वापस आते थे।

पिताजी नहीं चाहते थे कि मैं पवन के साथ खेलूं।
वह ऐसी-ऐसी गालियाँ देता, जिन्हें सुनना भी हमारे यहाँ पाप माना जाता।

वैसे भी उसे पढ़ने-लिखने में रुचि नहीं थी, क्योंकि उसे तो बड़े होकर अपने पिताजी की दुकान ही संभालनी थी।

लेकिन मेरे पिताजी मुझे पढ़ा-लिखा कर अफ़सर बनाने का सपना संजोए बैठे थे।

मास्टर जी बहुत सीधे-सादे आदमी थे, अपनी बेटी से बहुत प्यार करते थे।
वह थी ही प्यार करने लायक … बड़ी प्यारी और बड़ी मोहिनी।

मेरे पिताजी तो सारे दिन घर में होते नहीं थे। माँ घर के कामकाज में लगी रहती थीं। तब हम गाँव के ही छोटे से स्कूल में ही पढ़ते थे।

स्कूल खत्म होते ही हम तीनों खेल में जुट जाते, तरह-तरह के खेल खेला करते।

पवन को गुड्डे-गुडियों के खेल पसंद नहीं थे, ताश-लूडो खेलना हम जानते नहीं थे। तो हम घर-घर खेलते।

पवन हमेशा ही घर वाला बनता, वो घर वाली और मैं नौकर। कभी पवन बन्ना बनता, वह बन्नो बनती और मैं पंडित बनता।

पवन किसी खेल का दांव कभी नहीं चुकाता था। खेलता, फिर बस्ता उठाता और चल देता।
वह हमेशा उसी की घर वाली या बन्नो बनकर रह जाती।

मेरा दांव तो कभी आता ही नहीं था और मैं नौकर या पंडित बनकर रह जाता।
मुझे गुस्सा तो बहुत आता, लेकिन पवन इतना अकड़ू था कि उससे लड़ने की हिम्मत मैं कभी जुटा नहीं पाया।

एक दिन हम शादी-शादी खेल रहे थे। हमेशा की तरह पवन बन्ना बना हुआ था और वह बन्नो।

पंडित ने दोनों की शादी की रस्म पूरी कराई ही थी कि पवन अपने घर चल दिया।
मैं तिलमिला गया।

मैंने हिम्मत जुटाई और चिल्लाया- मेरा बारी देकर जा!

उसने मुझे पलट कर भी नहीं देखा, बस चलते-चलते ही चिल्ला कर बोला- नहीं देता जा!

उस दिन मैं बदला लेने को आमादा था, इसलिए पूरी ताकत लगा कर कहा- बारी नहीं देगा तो तेरी बन्नो मैं रख लूंगा!

वह फिर भी नहीं मुड़ा, वैसे ही हवा में हाथ उड़ाता सा बोला- जा रख ले!

मैं रुआंसा हो आया, हाथ-पैर कांपने लगे।
तभी वह मेरे पास आकर खड़ी हो गई।
उसने अपने कोमल हाथों से मेरे गालों पर ढुलक आए आँसू पौंछे और बोली- कोई बात नहीं, आज से मैं तेरी बन्नो! खुश हो जा।

मैं शायद खुश हो भी गया था।

धीरे-धीरे हम बड़े हो गए।
हमारी पढ़ाई गाँव में जितनी होनी थी, हो गई थी।

जैसा कि तय था, पवन अपने पिताजी की दुकान पर बैठने लगा और मेरे पिताजी ने मेरा दाखिला शहर के स्कूल में करवा दिया।

मैं रोज सुबह उठता, तैयार होकर भारी बस्ता पीठ पर लाद कर छः किलोमीटर दूर स्कूल के लिए चल पड़ता।
जब तक घर वापस आता, सांझ ढलने को होती।

मैं पस्त हो जाता, लेकिन पिताजी मेरा हौंसला बढ़ाते रहते, वो मुझसे कहते- तुम्हें तो अफसर बनना है।

मास्टर जी ने अपनी बेटी को शहर के उसी स्कूल में प्रवेश दिला दिया, जिसमें वे पढ़ाते थे।
वे उसे अपने साथ साइकिल पर ले जाते और साथ वापस लाते।

रास्ता तो एक ही था। मुलाकात भी होती, लेकिन कुछ ऐसे कि मैं धीरे-धीरे पैदल जा रहा होता और मेरे बाजू से मास्टर जी की साइकिल गुजर रही होती। पता नहीं वह मेरी ओर देखती या नहीं, लेकिन मैं उसकी ओर देखने का साहस नहीं जुटा पाता।

हम बड़े होते जा रहे थे। हमारे वयस्क होने के चिह्न उभरने लगे थे।
आयु के इस मोड़ पर कभी हमारा सामना होता भी तो मेरे पैर कांपने लग जाते और वह लजा कर भाग जाती।

तब हमारे शहर में कॉलेज नहीं था।
पिताजी ने आगे की पढ़ाई के लिए मुझे महानगर में मामा के पास भेज दिया।

पीछे मुड़ कर देखने का अवसर नहीं था, फिर भी कभी-कभार मुझे आज से मैं तेरी बन्नो वाली बात याद आती और मन में सिहरन का अनुभव होने लगता।

तीज-त्यौहार पर जब कभी गाँव आना-जाना होता तो आँखें अनायास उसे ढूंढने लगतीं।

कभी आमना-सामना होता तो इस स्थिति में कि वह छत पर खड़ी होती और मैं गली में। हम एक-दूसरे को ठीक तरह से देख ही नहीं पाते क्योंकि यदा-कदा जब हमारी आँखें मिलतीं तो पल-दो पल में ही शर्म से झुक जातीं।

हमारे संस्कार ही ऐसे थे और ऊपर से बड़े-बुजुर्गों का डर भी बना रहता था।

समय के साथ-साथ आयु में वर्ष जुड़ रहे थे, अतीत धुंधलाने लगा था।

मैं वकालत कर रहा था, जज बनने के सपने मेरे मस्तिष्क में अपनी जड़ें गहरी बनाते जा रहे थे।

गर्मी की छुट्टियाँ हुई, हर बार की तरह इस बार भी मैं छुट्टियाँ बिताने गाँव आया।

अब माता-पिताजी और घर के अलावा गाँव की अन्य चीजों से पहले जैसा लगाव बाकी नहीं रह गया था।

घर पहुँचते ही पता चला कि उसकी शादी होने वाली है।
जाने-अनजाने अन्तर्मन में कुछ टूटने की आवाज हुई और मैं यह समझ नहीं पाया कि ऐसा क्यों हुआ था।

उसके यहाँ शादी की तैयारियां जोर-शोर से चल रही थीं।
मुझे भी जिम्मेदार व्यक्ति की तरह काम सौंपे गए थे, लिहाजा मन में खासा उत्साह था। सुबह से रात तक किसी न किसी काम में लगा रहता।

धीरे-धीरे शादी का दिन आ गया।
गाँव-कस्बे के बड़े-बुजुर्ग, मुखिया तो सुबह से ही आकर जम गए थे। उनके लिए लस्सी-पानी का प्रबंध करते रहना भी बड़ा काम था। ऊपर से साज-सजावट, शाम के भोज की व्यवस्था … दम मारने की फुरसत नहीं मिल पा रही थी।

दिन कब बीत गया, पता नहीं चला।
अब तो बारात आने की बेला पास आ रही थी। स्त्रियां सज-संवर चुकी थीं।
ऊपर के कमरे में उसे दुल्हन बनाया जा रहा था।

खूब चहल-पहल थी।
मैं किन्हीं कामों में व्यस्त था कि तभी उसकी छोटी बहन आई, फुसफुसाते हुए बोली- दीदी आपको ऊपर कमरे में बुला रही है।

मैंने उस निर्देश को भी अन्य कामों की तरह ही लिया और सीधा ऊपर कमरे की ओर बढ़ चला।

कमरे का दरवाजा भिड़ा हुआ था और वहाँ उस समय कोई नहीं था।
मैं आगे बढ़ा और तनिक सहमते हुए दरवाजा खोला।

अंदर वह अकेली थी, लाल रंग की साड़ी और सुनहरे आभूषणों से सजी-संवरी वह एक ज्वाला की तरह लग रही थी।
मुझे वह एक अभिसारिका की तरह आकुल व उत्कंठित प्रतीत हुई।
जीवन का यह पहला अवसर था, जब मैं सजी-संवरी दुल्हन के इतने पास खड़ा था।

मैं निस्तब्ध था।

वह अचानक मेरे करीब आ गई।
अब हम एक-दूसरे की तेज चलती सांसों की आहट सुन पा रहे थे।
उसने मेरा हाथ पकड़ कर अपनी दोनों हथेलियों के बीच दबा लिया और बोली- कैसी लग रही है तुम्हारी बन्नो?

मैं चौंका, घबराया और लड़खड़ाते हुए बोला- सुंदर, बहुत सुंदर!
वह तपाक से बोली- तो अपनाया क्यों नहीं?
अपनी बात पूरी करते-करते उसका गला भर आया था।

“मतलब?” मैंने कहा।

“मतलब क्या? भूल गए? मैंने कभी तुमसे वादा किया था कि मैं केवल तुम्हारी बन्नो बन कर रहूँगी।”
उसकी आवाज में अधीरता थी।

“वे तो बचपन की बातें थीं!” मैंने कहा।

तो वह बोली- जवानी बचपन से ही निकल कर आती है, आसमान से तो नहीं टपकती। बचपन के वादे जवानी में निभाने चाहिए या नहीं? बोलो?

मुझे कुछ सूझ नहीं रहा था, चुप रहा।

वह फिर बोल उठी- मैंने तो बहुत प्रतीक्षा की। शायद कभी न कभी तुम कुछ कदम आगे बढ़ाओ, धीरे-धीरे मैं निराश हो गई। क्या करती, मैंने शादी के लिए हाँ कर दी।

मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि क्या कहूँ!

लेकिन मुँह से निकला- अब क्या हो सकता है?
उत्तर में वह बोली- चलो भाग चलते हैं।

“धत् … ऐसा कुछ नहीं हो सकता।” मेरे मुँह से अनायास ही निकला।

वह तनिक और आगे बढ़ आई और बोली- तुमसे कुछ नहीं हो सकता। पर मुझसे जो हो सकता वह तो मैं करूँगी।

वह मेरे और करीब आ गई और मुझे अपने बाहुपाश में जकड़ लिया।

हमारी सांसें तेज चल रही थीं।

उसकी उत्तेजना में …

तो मेरी घबराहट में!

वह किसी मदोन्मत्त की तरह मेरे आगोश में थी.

अब यह बखान करना तो बेमानी होगा कि उस समय जो कुछ हुआ वह क्या और कैसा था।
किस कमबख्त को ऐसे पलों में होश रहता है।

लेकिन मेरा पूरा शरीर आंधी में किसी पेड़ से लगे पत्ते की भान्ति कांप रहा था।
कोई देख न ले, यह शाश्वत भय न जाने कितने अवसर चूकने को मजबूर करता है।

मैंने धीरे से दरवाजा खोला और बाहर निकल गया।

अभी मैं छत से नीचे जाने वाली सीढ़ियों की ओर बढ़ रहा था कि किसी ने मजबूती से मेरा हाथ पकड़ लिया।

मैंने घबरा कर देखा तो वह भाभी थीं, सगी नहीं, परिवार-खानदान के रिश्ते वाली भाभी।

मेरी हमउम्र थीं और सच कहूँ तो वह हमारे परिवार की रौनक थीं।

मेरा हाथ पकड़े-पकड़े भाभी ने अपने आंचल से मेरे होंठ और गालों को रगड़ कर पौंछ डाला।

मैं कुछ समझ नहीं पा रहा था और स्तब्ध खड़ा था।

आज पहली बार भाभी ऐसा कुछ करते हुए हंस नहीं रही थीं, वह गंभीर थीं, धीरे से बोलीं- लाली लगी थी, पौंछ दी है। इस हालत में नीचे जाते तो दोनों फांसी पर लटके मिलते।

मैं सिहर उठा।
वक्त की नजाकत को समझने में मुझसे भूल हुई थी।

भाभी बोलीं- जाओ, भूल जाओ उसे!

इस वक्त एकाएक अपना कुछ खोने जैसी कसक दिल में चुभती सी महसूस हुई।
आँखें नम हो आई।

फिर भी, मैंने खुद को निर्दोष साबित करने का प्रयास करते हुए कहा- वो अब तक बचपन की बातें सहेज कर बैठी है।

भाभी धीरे से बोलीं- होता है … प्यार तो कच्ची उम्र में ही होता है।

“कच्ची उम्र नहीं भाभी …” मैंने कहा- वो सब बचपन की बातें हैं।

वह बोलीं- तुम सचमुच भाग्यवान हो। कोई तुम्हें बचपन से प्यार करता है।

मैंने उनकी बात पर ध्यान न देते हुए अपने को तनिक व्यवस्थित किया और कहा- बिना सोचे समझे यह कर डाला।

भाभी ने गहरी सांस ली और बोली- जो नासमझी में हो जाए वही प्यार है। सोच-समझ कर तो सौदा किया जाता है।

भाभी जो कुछ भी कह रही थीं वह उनके चिर-परिचित स्वभाव के नितांत विपरीत था।

मुझे उनके स्वर में टीस का आभास हो रहा था, मैं खुद को रोक नहीं पाया और मैंने उनसे बिंदास प्रश्न किया- भाभी, आपके साथ भी कुछ ऐसा.. मेरा मतलब, कभी आपने भी किसी से.. मैं प्रश्न पूरा कर पाता उससे पहले भाभी नीचे जाने वाली सीढ़ियों की ओर जा चुकी थीं।

वह सीढ़ियाँ उतरते-उतरते बोलीं- स्त्रियाँ अपने विफल प्यार के किस्से नहीं सुनाया करतीं।

मैं अवाक खड़ा रह गया था।

बाजे की आवाज अब पास आती जा रही थी.

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