बाबा की शीशी
प्रेषक : जो हण्टर यदि घर में एक अदद भाभी हो तो मन लगा रहता है। उसकी अदायें, उसके द्विअर्थी डॉयलोग बोलना, कभी कभी ब्लाऊज
प्रेषक : जो हण्टर यदि घर में एक अदद भाभी हो तो मन लगा रहता है। उसकी अदायें, उसके द्विअर्थी डॉयलोग बोलना, कभी कभी ब्लाऊज
लेखिका : लक्ष्मी कंवर मैं जोरावर सिंह, राजस्थान से हूँ… गांव में बरसात ना होने के कारण हमारे यहाँ से बहुत से जवान फ़ौज में
लेखिका : कामिनी सक्सेना “विवेक… तुम मुझे प्यार करते हो?” “नहीं… बिलकुल नहीं… तुम मुझे अच्छी लगती हो बस…” “कितने कठोर हो… फिर रात को
लेखिका : कामिनी सक्सेना दिल की कोमल उमंगों को भला कोई पार कर सका है, वो तो बस बढ़ती ही जाती हैं। मैंने भी घुमा
प्रेषक : जो हन्टर राधा धीरे से उठी…- मेरे माधो… मेरे दिल की इच्छा पूरी हो गई… अब मैं चलूँ… बहुत से काम बाकी हैं
प्रेषक : जो हन्टर इस इन्सानी दुनिया से खौफ़नाक और कोई दूसरी क्रूर दुनिया नहीं है। आप ठीक कहते है, जी हाँ ! एक दूसरी
प्रेषक : गुल्लू जोशी मेरी नौकरी शहर में लग गई थी। मैंने सबसे पहले वहाँ पर एक किराये का मकान तलाश किया। मेरे साथ मेरा
प्रेषक : केदार राव मेरा नाम केदार है, मैं मुंबई में रहता हूँ, 21 साल का हूँ और इंजीनियरिंग कॉलेज में पढ़ता हूँ। मैं एक
लेखिका : शमीम बानो कुरेशी वो बोला- कल घर के सब लोग एक शादी में जायेंगे, आप उस समय मेरे घर आ जाना, बातें करेंगे।”
लेखिका : शमीम बानो कुरेशी “क्या बात है अब्दुल, आजकल तो तू मिलने भी नहीं आता है?” मैंने शिकायत भरे स्वर में कहा। “नहीं, ऐसी
मुझे चार दिन से वायरल बुखार चल रहा था। मेरे पति राजेश को अपने रूटीन कार्य सर्वे के लिये जाना जरूरी था। वो मुझे अकेला
प्रेषिका : दिव्या डिकोस्टा उसकी गीली झांटों से मेरे होंठ गीले हो गये थे। फिर मैंने अपना मुख उसकी चूत में झांटों के साथ छुपा
प्रेषिका : दिव्या डिकोस्टा मैं गोवा में रहती हूँ, एक केथलिक स्कूल में 12वीं में पढ़ती हूँ। मैं कक्षा में सबसे आगे बैठती हूँ। मेरे
प्रेषिका : निशा भागवत कहानी का पिछ्ला भाग: ये दिल … एक पंछी- 1 “ओह्ह्ह ! मैं तो गई…” “प्लीज निशा …” निशा की चूत
निशा की शादी हुये पांच वर्ष से अधिक हो चुका था। अब वो पच्चीस वर्ष की हो चुकी थी। पति सरकारी नौकरी में थे। सब
प्रेषिका : स्लिम सीमा कल बुआ का श्राद्ध विधि-विधान से सम्पन्न हो गया, लगभग सभी लोग चले गए, अंश आज सुबह ही गया था, सलोनी
प्रेषिका : स्लिमसीमा “जी नहीं ! अक्ल के लिए !” उसने गर्दन ऊँची करके कहा। “क्या निरे बेवकूफ हैं जो बार-बार तुमसे अक्ल मांगने चले
प्रेषिका : स्लिमसीमा “तुम यह काम क्यों कर रही हो? महज पैसे के लिए? क्या पैसा ही तुम्हारे लिए सब कुछ है?” “मैं इस प्रोफेशन
प्रेषिका : स्लिमसीमा खान मार्केट के ब्लू कैफ़े में उसे पहली बार देखा कला प्रदर्शनी के चित्रों को गौर से देखते, जैसे रंगों की जुबां
प्रेषक : गुल्लू जोशी कहानी का पहला भाग: उन दिनों की यादें-1 अगले दिन मनोज एक नई सीडी लाया था। वो भी समलिंगी लड़कों की
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